गुर्जरों में उलझी अक्षम सरकार और नमूने के चावल
|जी, मैं आज उसी सरकार की बात करना चाहता हूँ, जो बीस दिनों से गुर्जरों से उलझी पड़ी है। जिस ने सारे राजस्थान के यातायात को तहस-नहस कर दिया है। जो इस बात पर अड़ी है कि समझौते की बात जयपुर में ही हो। जो यह कहती है कि जिन महिलाओं को किसी जुर्म में गिरफ्तार किया गया है उन्हें रिहा करना उस के बस में नहीं है और उन्हें केवल अदालत ही जमानत पर रिहा कर सकती है, क्यों कि दंड संहिता में उन के खिलाफ मुकदमे बना दिए गए हैं। जिस सरकार के कर्मों का खामियाजा न केवल राजस्थान को भुगतना पड़ रहा है, बल्कि पूरे भारत का राजस्थान से होकर गुजरने वाला यातायात बुरी तरह प्रभावित होने से पूरा देश भुगत रहा है। केन्द्र सरकार और पूरा देश इस ऐतिहासिक घटना को चुपचाप देख रहा है, बिना कोई हरकत किए।
सबसे पहले हम आते हैं, सरकार के बयानों पर। सरकार को पहले से पता था कि गुर्जर आंदोलन करेंगे, उन से पहले से बातचीत की जा सकती थी। वे पहले भी आंदोलन कर चुके थे। आंदोलन की वजह है चुनाव के समय वोट लेने के खातिर गुर्जरों से किया गया, एक पूरा नहीं किए जा सकने वाला वायदा। यह वायदा वसुन्धरा का सरकार बनाने के पहले बोला गया झूठ था। अब वे कैसे बोलेंगी झूठ? और सच बोलीं तो भी कौन विश्वास करेगा उनके उस सच? पर।
दूसरा, जो सरकार जिला मुख्यालयों पर जा कर अपनी केबीनेट बैठको का प्रहसन चलाती है। सारे लवाजमे को जिला मुख्यालय पर हाजिर कर देती है। जनशिकायतों का मेला लगाती है। वह एक आंदोलन के नेताओं से अपने ही राज्य में किसी जिला मुख्यालय पर जा कर बात नहीं कर सकती। उसे क्या भय है? और है तो क्यों? क्या उसे अपनी ही सरकार और प्रशासन की कानून व्यवस्था बनाए रखने की सक्षमता पर भरोसा नहीं रह गया है?
तीसरा, जो सरकार अपने मंत्रियों पर, पिछली सरकार के समय में पुलिस द्वारा चलाए गए वे अपराधिक मुकदमें वापस ले सकती है, जिन में मन्त्री बरसों से न्यायालय में हाजिर नहीं हुए थे, और जिन्हें अदालत से गिरफ्तारी वारंटों के जारी कर दिए जाने के बावजूद पुलिस गिरफ्तार कर न्यायालय में हाजिर नहीं कर सकी थी; वही सरकार क्या तीस महिलाओं के विरुद्ध लगाए गए मुकदमें इस सहृदयता से वापस नहीं ले सकती थी, कि यह एक सामाजिक राजनैतिक मामला था। यह उसी राजनैतिक दल की सरकार है, जिस राजनैतिक दल की सरकार के एक मंत्री कुछ दुर्दांत आंतकवादियों को उनके स्वर्ग में विमान में बिठा कर छोड़ आए थे। क्या ये महिलाएँ उन आतंकवादियों से भी बुरी थीं?
मुझे पता है, राजस्थान सरकार या उस का कोई भी नुमाइंदा इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देगा। चुनाव आने तक इन सवालों पर कुछ और तात्कालिक सवाल खड़े कर दिए जाएँगे, जिन्हें खड़े करने की योजना सरकार ने पहले से बना रखी होगी। ये सवाल फिर दब जाएँगे।
जहाँ तक इस सरकार की सक्षमता का प्रश्न है तो उस का जवाब मुझे पता है। कोटा नगर विकास न्यास में वह पिछले चार सालों में एक अदद अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं कर सकी। खैर वहाँ का काम तो जिला कलेक्टर के जिम्मे छोड़ दिया गया और उन्होंने उसे जैसे तैसे निभा भी लिया। लेकिन जिला उपभोक्ता न्यायालय में दो सदस्यों की नियुक्ति भी वह दो साल से नहीं कर सकी है। जिस से उपभोक्ता न्यायालय बंद पड़ा है। उस के कमरों की धूल तक साफ नहीं होती। उपभोक्ता केवल तारीखें जो रोज सुबह एक सूची में लिख कर रख दी जाती हैं, नोट कर के चले आते हैं। इन नियुक्तियों को न करने का कारण यही कि जिन को नियुक्त कर दिया गया उन से कई गुना उन के ही दल के लोग नाराज न हो जाएँ।
और ये केवल नमूने के चावल हैं।
This blog seems to recieve a large ammount of visitors. How do you promote it? It offers a nice unique spin on things. I guess having something useful or substantial to give info on is the most important thing.
This blog appears to get a great deal of visitors. How do you promote it? It offers a nice individual twist on things. I guess having something real or substantial to post about is the most important thing.
सियासत को कोसते रहने से आने वाली पीढ़ीयाँ,
हमें कोसेंगी, समीर भाई !
भला बताइये, मीणा गुर्जर के मध्य एक अदद कामा ( , ) रख इतने दिनों तक तो चला लिया, अब ?
भस्मासुर पैदा किया है, तो भुगतो भी !
मैं तो नैतिक रूप से गुर्जरों का पक्षधर हूँ ।
चावल पहले भुन तो जाय फिर देखेंगे…..,कि ?
Dwiwediji Gujjar andolan ke baare mein bhram ki sthiti bani hui thi dimmag mein… maamle ki poori jaankaari na hona bhi ek karan tha… aapne kaafi had tak wo sthiti khatm kar di hai.
सुरेश जी, गुर्जरों को मैं क्या दोष दूँ, जिन की बहुसंख्या को आज तक भी सभ्यता से दूर रखा गया है। वे जंगलों के बीच अपने गाँवों में मवेशियों के बीच रहते हैं, उन्हें पालते हैं, दूध निकालते हैं, और बेचते हैं। सभ्य दुनियाँ से उन का नाता बस इतना है कि उन्हें जानवरों के लिए खल-चूरी खऱीदनी पडती है या खाने और कपड़े, लत्ते के लिए उन्हें शहर आना पड़ता है। कोटा जैसे नगर से जो दो राष्ट्रीय राजमार्गों, मह्त्वपूर्ण रेल लाइनों, चम्बल की अथाह जल सामग्री से जुड़ा है। कोचिंग में जिस ने देश भर में नाम कमाया है, उस से मात्र 15 से 20 किलोमीटर दूर के गांवों में गूजरों के 20-30 सालों के नौजवान मिल जाएंगे जो कभी बस और रेल में नहीं बैठे, जिन्होंने रेल देखी नहीं। आसमान में उड़ता हवाई जहाज उन के लिए मात्र पंछी है। जो बांसुरी इतनी मीठी बजाते है कि उस के जानवर उसे सुन कर इकट्ठे हो जाते हैं। जिन्हें तालाब पर नहाना अच्छा लगता है। माँ की बांधी रोटी, प्याज और नमक से खा लेते हैं, और जानवरों का दूध पी कर सो रहते हैं। उन के सबसे नजदीकी रिश्तेदार, उन की माँ और उन के जानवर हैं। जिन की बातें समझने में मुझे जुगत भिड़ानी पड़ती है, और अपनी समझाने में। वे आज अपने लिए अधिकार मांग रहे हैं तो हम उन्हें मांगने का रास्ता सिखाएँ? वे तो वैसे ही मांगेंगे जैसे उन्हें मांगना आता है। उन्हें सभ्य लोगों की तरह मांगना नहीं आता, केवल मरना आता है। तो इसमें दोष उन का नहीं, इस साठ वर्षीय इस जनतंत्र का है।
पाठकों, मित्रों।
दुत्कार दिया गया इंटेन्स डिबेट आज फिर चिट्ठे पर नमूदार हो गया। मुझ जैसे नौसिखिया तकनीक वाले वकील को उस से निजात पाने में कई घंटे लगे। इस बीच बिजली भी रूठी, ब्लॉगर भी नाराज हुआ। पर इंटेस डिबेट से निजात पाई, पर रूप बदल गया। अगर आप बताएँगे कि यह नया रूप कैसा है? तो मेरे ताजा घावों को कुछ मरहम लगेगा।
इस बीच कुछ मित्रों के आशीर्वचन इंटेंस पर आए थे, उन्हें और मेरी एक प्रति टिप्पणी को यहाँ चिपका रहा हूँ………
• Gyandutt Pandey
यह तो मेरे विचार से गुर्जरों को थकाया जा रहा है। यातायात बन्द है – पर उसका दबाव सरकार पर नजर नहीं आता। लिहाजा उस दबाव झेल लेने को एक नेगोशियेशन टूल की तरह सरकार प्रयोग कर रही है, और बखूबी कर रही है।
• समीर लाल
नमूने के चावलों में महक बासमती की और परोसे जायेंगे हरिया चावल..सब सियासत का खेल है. जब जिसकी चल जाये.
• सुरेश चन्द्र
आपके नमूने के चावल आधे कच्चे हैं. इन्हें ‘गुर्जर आंदोलनकारी भी ग़लत हैं’ इस आंच पर भी रखिये तभी पूरे पकेंगे.
“मुझे पता है, राजस्थान सरकार या उस का कोई भी नुमाइंदा इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देगा। चुनाव आने तक इन सवालों पर कुछ और तात्कालिक सवाल खड़े कर दिए जाएँगे, जिन्हें खड़े करने की योजना सरकार ने पहले से बना रखी होगी। ये सवाल फिर दब जाएँगे। “
यही तो हो रहा है हर जगह हर समस्या के साथ.
शायद सरकार की यही नीति हो की आन्दोलन कारियो का हौसला तोडा जाये ..या ये ठीकरा अपने सर पे नही फोड़ना चाहती…..