नियुक्तियों के अभाव में रिक्त पड़ी अदालतें और भटकते न्यायार्थी
|तीसरा खंबा लगातार यह बताता रहा है कि न्यायालयों की कमी के कारण किस तरह आम न्यायार्थी को बरसों तक न्याय नहीं मिल पा रहा है। विगत दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश से मिलने का अवसर न मिलने पर एक न्यायार्थी ने अपने मुकदमे की अपनी फाइल फाड़ कर मुख्य न्यायाधीश पर फैंक दी। उधर मुख्य न्यायाधीश ने जिला न्यायालय और उस से निचले स्तर के 10,000 नए न्यायालयों की तुंरत जरूरत बताई है। इन न्यायालयों आरंभ करने के लिए आवश्यक साधन जुटाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। लेकिन किसी भी राज्य सरकार ने आज तक मुख्य न्यायाधीश द्वारा बताई गई जरूरत पर अपनी प्रतिक्रिया तक व्यक्त नहीं की है।
लेकिन खुद हमारे उच्चन्यायालयों का प्रशासन इस मामले में कितना चौकस है यह इस बात से पता लगता है कि हर जिला मुख्यालय पर जहाँ बहुत से न्यायालय होते हैं हमेशा कुछ न्यायालयों में जज नहीं होते। न्यायालय में बस पेशियाँ बदलती रहती हैं। क्यों कि बिना जज के तो किसी न्यायालय में कार्यवाही नहीं हो सकती।
राजस्थान में जितने न्यायालय स्थापित हैं उन में से अनेक हमेशा जज के पदस्थापन की राह देखते रहते हैं। इस का मुख्य कारण है कि उच्चन्यायालय समय से जजों की नियुक्तियाँ नहीं कर पा रहा है। इस समय राजस्थान में जिला जज और अपर जिला जज स्तर के 64 न्यायालय, वरिष्ठ खंड व कनिष्ठ खंड सिविल जजों व अपर मुख्यन्यायिक मजिस्ट्रेट व मजिस्ट्रेट स्तर के 115 न्यायालय जजों के अभाव में रिक्त पड़े हैं। इस तरह 179 न्यायालयों में जजों के अभाव में कोई काम नहीं हो रहा है। मेरे अपने नगर कोटा में 6 न्यायालय रिक्त पड़े हैं।
उक्त पदों में से जिला व अपर जिला जज स्तर के पद पदोन्नतियों और वकीलों में से सीधे भर्ती के द्वारा भरे जाने हैं। यदि पदोन्नतियों से ये सभी पद भर दिए जाएँ तो भी मजिस्ट्रेट स्तर के उतने ही न्यायालय रिक्त पड़े रह जाएंगे। हमारी नियुक्ति के लिए चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि उस के पूरे होते होते फिर से जजों के सेवानिवृत्त होने और नए न्यायालयों की स्थापना के कारण बहुत से न्यायालय रिक्त पड़े रह जाएंगे।
क्या हमारी न्यायप्रणाली चयन और नियुक्ति की कोई ऐसी पद्यति विकसित नहीं कर सकती कि जिस से कभी किसी न्यायालय में जज का अभाव ही न रहे?
काश कोइ आला सरकारी नुमाइंदा भी इसे पढ़ पाता । न्यायिक व्यवस्था पर आपका यह लेख जागरूकता कि निशानी है ।
इस सन्दर्भ में आप प्रारम्भ से ही पूर्णत: व्यावहारिक दृष्टिकोण से आधारभूत मुद्दे उठा रहे हैं। खेद की बात है कि ाम्बन्धितों का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा है।
अजित जी ने बिल्कुल सही कहा है दादा….. शेष देश की मर्जी….
न्यायार्थी तो हर हाल में भटकते ही रहते हैं दिनेश जी.
न्याय में विलंब का सबसे बड़ा रोड़ा तो जजों की कमी है। इमारत और कक्ष तो दोयम हैं। जब वकील पेड़ के नीचे, गलियारों में अपनी मेज कुर्सी लगा सकते हैं तो जज भी बिना तामझाम के फैसले सुना सकते हैं, सवाल है नियुक्तियां तो हों ? अभी तो शायद यह भी प्रश्न है कि बैठेंगे कहां ?
शायद आज इस बात की महती आवश्यकता है कि बहुत देर होने के पहले ही कोई व्यवस्था कर ली जाये जिससे न्यायमंदिर मे न्यायाधिषों की कुर्सियां खाली ना रहे और न्याय पाने मे तेजी आ सकें
रामराम.