फैसले का दिन मुकर्रर हुआ
|कस्बे की अदालत में कुछ घंटे -3
मैं इसी से चिंतित हो गया था कि जज साहिबा कहीं आज भी टल्ला न मार जाएँ। पहले भी एक बार ऐसा ही हुआ था। वे कह चुकी थीं कि आगे की तारीख ले लीजिए आज बहस नहीं सुन पाऊंगी। कन्हैया पहले ही बता चुका था कि लंच के बाद उन की रुचि बहस सुनने में कतई नहीं रहती। मैं ने दबाव बनाना आरंभ किया।
-मैडम अभी 12.40 हो रहे हैं। मुश्किल से आधे घंटे में हम बहस निपटा देंगे।
-मैडम हम शायद बातें न कर बहस शुरू करें तो काम चल सकता है। मैं ने कहा।
-ठहरिए, एक मिनट। इतना कर जज साहिबा ने पै़ड से दो कागज निकाले और उन्हें लम्बाई में बीच में से मोड़ कर अपने सामने रखा। फाइल में देख कर मुकदमे का नम्बर और शीर्षक अंकित किया। फिर मुझ से पूछा।
– आप का नाम?
-दिनेशराय द्विवेदी।
-आप किस की और से हैं?
-मैं प्रार्थिया की ओर से हूँ।
-बताइए मामला क्या है? मैं बिना किसी देरी के शुरू हो गया।
-मैडम! इस मामले में एक बार यहाँ से अंतरिम राहत पर आदेश हो चुका है।तब आवेदन इस आधार पर निरस्त कर दिया गया था कि जज साहब ने वाद कारण कानून बनने के पहले का था, और उन का मानना था कि घरेलू हिंसा का कानून इस मामले पर लागू नहीं होता। हमने उस आदेश की अपील की और अपील न्यायालय ने माना कि कानून इस मामले पर लागू होगा। फिर उन्हों ने इस मामले को निर्णय हेतु आप के पास भेज दिया।
– तो आप को इतनी जल्दी क्यों है? हम इस मामले में गवाही ले कर अंतिम रूप से निर्णीत कर देते हैं।
-मैडम, यहाँ इस मामले को आए छह माह गुजर चुके हैं। मुश्किल से आज सुनवाई का अवसर मिला है। गवाही ले कर निर्णय होने में तीन बरस गुजर जाएंगे। तब तक यह लड़की और इस का बच्चा कैसे जिएगा। जैसे तैसे इस का पिता इन दोनों की देख रेख कर रहा है। आज ही बच्चा बीमार है, इसी लिए वह अदालत नहीं आ सकी है उस का पिता ही आया है। फिर संसद ने कानून में अंतरिम राहत देने का अधिकार आप को इसीलिए दिया है जिस से कमजोर पक्ष को जीने का रास्ता बना रहे। अगर यह पिता इस के सहारे के लिए न होता तो क्या यह आज तक जी पाती? और यहाँ आप की अदालत में आ कर अर्जी दे पाती ?
-चलिए, आप बहस शुरू कीजिए। वरना लंच तक पूरी न हो पाएगी। जज बोली। मैं ने मामले के तथ्य बताना शुरू किया। कब आशा का ब्याह हुआ? कब उस के साथ ज्यादती शुरू हुई? जज साहिबा मेरी बहस का एक एक वाक्य लोंग हेण्ड में लिखने लगीं। तीन पंक्तियाँ लिखते लिखते मुझे रोक दिया।
-जरा ठहरिए वकील साहब, मुझे आप की बात लिख लेने दीजिए। मैं रुक गया। इस बीच पीछे अवकाशागार में फोन की घंटी बज उठी। चपरासी दौड़ कर गया और फोन उठाय़ा। जज साहिबा का ध्यान अब फोन की तरफ था। पूछा- किस का फोन है?
चपरासी ने बताया आप के लिए है। जज साहिबा फोन पर बात करने चली गईं। उन्हों ने फोन पर किसी को बहुत सारे निर्देश दिए। कोई पाँच मिनट में वापस लौटीं। आते ही कहने लगी – आप ने इस मामले में समझौते के प्रयास नहीं किए? आप करिए ना।
मैं ने बताया कि जाति पंचायत ने समझौता करवा दिया था। पति राजी हो गया था कि वह बच्चे को रख लेगा। बचे हुए दहेज के बदले देने वाली रकम भी तय हो गई थी और यह भी कि राजी से तलाक ले लेंगे। लेकिन बाद में ससुराल के मुखिया ताउ ससुर ने समझौता तोड़ दिया। कहने लगा इस ने 498-अ के मुकदमें में हम सब को मुलजिम बना कर हमारा अपमान किया है। हम कुछ भी नहीं देंगे। वह मुकदमा भी आप की अदालत में चल रहा है। सभी गवाह हो चुके हैं। बस एक -दो और होने शेष हैं। मेरा तो यह भी मानना है कि यदि अदालत अब तक का आशा और बच्चे का भरण पोषण का खर्चा देने का आदेश कर दे और माहवार खर्चा तय कर दे तो शायद दबाव के कारण समझौता हो जाए।
चलिए, आप बहस करिए। वरना लंच हो जाएगा तो अधूरी रह जाएगी। शायद लंच बाद फिर हो न सके। मुझे कुछ अर्जेंट निर्णय लिखाने हैं
। आप आगे की कोई तारीख ले लीजिए और उस दिन ठीक ग्यारह बजे आ जाइए। जज बोली।
-नहीं मैडम अब मैं पाँच मिनट में अपनी बात कह देता हूँ। मैं ने कहा और तुरंत संक्षेप में अपने मामले के तथय बताने लगा। जज साहिबा लिखने लगी। मैं उन के लिखने की गति से आगे बढ़ जाता तो वे टोक देतीं, मैं रुक जाता। जब उन की कलम रुक जाती तो मैं फिर बोलने लगता। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं कोई आवेदन अपने मुंशी को बोल कर लोंगहेण्ड में लिखवा रहा हूँ। दूसरी कक्षा के मास्टर जी का इमला लिखाना याद हो आया। जब जज साहिबा फोन सुनने गई थीं तब मैं ने विपक्षी वकील से पूछा था कि ये ऐसे ही बहस सुनती हैं क्या? उस ने बताया था कि ये जो लिख रही हैं उसे सीधे स्टेनो को दे देंगी। वह जैसा का तैसा टाइप कर देगा। उसे बता देगी कि आदेश में राहत क्या देनी है। तथ्यों का विश्लेषण स्टेनों अपनी अकल से लिखेगा। मुझे अंदाज हो गया था कि मुझे क्या लिखाना है? मैं ने उतने ही तथ्य लिखाए जितने अक्सर आदेशों में लिखे जाते हैं और अपने हक में निर्णय के लिए आवश्यक तर्क लिखा दिए।
अब विपक्षी वकील की बारी थी। उस ने गिना कर पाँच बिन्दु लिखवाए।
बाद में मैं ने इतना ही लिखवाया कि विपक्षी ने जितने बिंदु बताए हैं वे सब उन के जवाब में नहीं अंकित किए हैं इस लिए उन्हें आधार नहीं बनाया जा सकता है और उन का कोई तथ्यात्मक आधार भी नहीं है। आम तौर पर ऐसा जज तब अपने आदेश में तब लिखते हैं जब उन्हें विपक्षी के विरुद्ध निर्णय करना होता है।
बहस समाप्त हो गई थी। जज साहिबा ने आदेश सुनाने के लिए पाँच दिन की तारीख देदी। हम अदालत से बाहर आ गए।
अदालत से बाहर आते ही मैं अपनी गाड़ी की ओर लपका। इतने में कुछ वकील आ गए। कहने लगे चाय पी कर जाइएगा। वे मुझे एक टीनशेड़ की तरफ ले गए जहाँ और भी वकील बैठे थे।
मैं कहने लगा -यहाँ के वकील धन्य हैं जो ऐसे जज को झेल रहे हैं। मैं ने उन से पूछा कि यह जज रविवार को होने वाली जजों की सेमीनार में कैसे भाग ले सकेंगी? वे बता रहे थे कि बीमार हो कर न जाने का बहाना बना लेंगी। ऐसे अवसरों से वे अक्सर बच निकलती हैं। मैं ने उन से पूछा कि अदालत का काम का कोटा कैसे पूरा होता होगा? तो कहने लगे फौजदारी मुकदमों में अपराध स्वीकार करा लेते हैं और मामूली जुरमाने या नेकचलनी के बंध पत्र पर मुलजिम को रिहा कर देती हैं। जिन मुकदमों में सजा का अवसर आता है, उन्हें किसी न किसी बहाने टालती रहती है। वकील भी ऐसे मामलों में तारीख ले लेते हैं। अपने पैर कुल्हाड़ी कौन मारेगा। हम चले वहाँ से चले आए। आखिर हमें शहर आ कर यहाँ की अदालतों के मुकदमों में काम भी करना था।
कन्हैया को समझा दिया था कि कैसा भी फैसला करे घबराना नहीं। यहाँ से कोई राहत न मिली तो अपील अदालत से मिलेगी। वैसे हमारे पक्ष में निर्णय होने पर भी सामने वाले को तो अपील करनी ही है।
अब आज उस मामले में आदेश होना है। जो भी निर्णय आएगा आप को जरूर बताया जाएगा। पर कम से कम एक दिन की प्रतीक्षा तो करनी होगी। यह भी हो सकता है कि जज आदेश न लिखाए और आदेश सुनाने की तारीख मुल्तवी कर दे।
किसी ने कहा है
जनता की, जनता के लिये, जनता के द्वारा की जाती है एसी तेसी वो होती है डेमोक्रेसी.
तो ऐसी डेमोक्रेसी मे ऐसी ही व्यवस्था की उम्मीद की जा सकती है क़तरा-क़तरा
सब तरह के लोग सब जगह होते हैं । तसल्ली की बात यह है कि अच्छे लोग ज्यादा हैं । जज साहिबा भी कम संख्या वालों में शरीक हैं ।
मैं ऐसे जज साहब को जानता हूं जो वकीलों की, अंग्रेजी में की गई बहस को तसल्ली से सुनते थे और बहस समाप्त होने के बाद दोनों वकीलों को, शाम का अलग-अलग समय देकर अपने निवास पर बुला कर कहते थे कि अदालत में उन्होंने जो कुछ भी अंग्रेजी में कहा था उसे हिन्दी में समझाएं । उसके बाद वे अपना फैसला लिखते थे । आप भाग्यशाली हैं कि आपको ऐसे जज नहीं मिले वर्ना आप उस दिन, देर रात को ही वहां से मुक्त हो पाते ।
विवरण बिलकुल ‘आंखों देखा हाल’ है । सब कुछ सजीव, सब कुछ जीवन्त ।
मामले के निर्णय की प्रतीक्षा अधीरता से है ।
बेहतरीन शब्द चित्रण ! लग रहा है की अदालत से उठकर आया हूँ , बस आपने चाय नहीं पिलाई !
सच है .कई बार तो मुजरिम अपनी पूरी जिन्दगी सुखपूर्वक बिता कर इस दुनियां से विदा ले लेता है सजा की नौबत ही नहीं आती . क्या किया जाय जज साहब/साहिबा के मूड का ?
पद्मा राय
धन्य है…
सभी… जज साहिबा, कानून की रफ़्तार, अगली तारीख, इस अदालत से अगली अदालत !
“संसद ने कानून में अंतरिम राहत देने का अधिकार आप को इसीलिए दिया है जिस से कमजोर पक्ष को जीने का रास्ता बना रहे।”
यदि इसे हर व्यक्ति समझ ले जिसके हाथ में अधिकार है तो देश सतयुग की ओर वापस लौट जायगा. क्यों नहीं!
लगे रहिये, पाठकों के मनों को कचोटते रहें. कभी न कभी तो इसका फल दिखेगा!!
— शास्त्री
— हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
काफी रोचकता से पेश किया है आपने शब्द चित्र
विनीता जी का कहना ठीक है कि ऐसे जजों के कारण ही आम आदमी को न्याय पाने में सालों लग जाते है.
और ज्ञानदत्त जी की जिज्ञासा चुटीली है कि यह अभी सेमी फाइनल है या क्वाटर फ़ाइनल या लीग मैच?
इंतजार है फैसले का।
शुक्रिया एक आइना ओर दिखाया आपने…
अब जाना कि इतना वक्त क्यूँ लगता है फैसले में …आगे क्या हुआ ?
मुझे लगता है यह एक मानसिकता है, जिसे दूसरों की जिंदगी से कोई मतलब नहीं होता।
जो भी फेसला हो… जरूर बताये. ऐसे जजों के कारण ही आम आदमी को न्याय पाने में सालों लग जाते है…
बस, हाथ बांधे इन्तजार कर रहे हैं.
दिनेशजी , वहाँ के वकील उन जज साहिबा को कैसे झेल रहे थे यह सवाल आपके मन में आया लेकिन जज साहिबा की घरेलू जिम्मेदारियों की कल्पना आपने क्यों नहीं कीं ?
उत्सुकता बनी हुई है ।
आगे की कथा का इंतजार है!
यहाँ से कोई राहत न मिली तो अपील अदालत से मिलेगी। वैसे हमारे पक्ष में निर्णय होने पर भी सामने वाले को तो अपील करनी ही है।
वाह, यह अभी सेमी फाइनल है या क्वाटर फ़ाइनल या लीग मैच!
उफ्फ ऐसे भी जज होते हैं….शायद उन्हें दबे कुचलों की मुसीबतो का ईल्म नही होता वरना क्योकर ईतनी वाहियात हरकते करते कि खुद तो लंच तक का सब्र नही और दूसरे के जिंदगी का फैसला करने में सालों लगा देते है….इतने जालिम जज भी होते हैं पता न था। काफी रोचकता से पेश किया है ये पोस्ट। इंतजार है फैसले का।