मुश्किल काम है नकल निकालना, अदालत से
|देश में अदालतों की किस कदर कमी है और उस की वजह से केवल सही काम को जल्दी कराने के लिए लोगों को अदालतों के कर्मचारियों को पटाना पड़ता है यह आप तीसरा खंबा की 30 सितम्बर की पोस्ट भ्रष्टाचार या शिष्टाचार ? में पढ़ चुके हैं। आज मैं आप को एक और नजारा अदालतों के एक और विभाग का कराना चाहता हूँ। यह अदालतों का नकल विभाग है।
अदालतों में एक बड़ा काम दस्तावेजों, आदेशों और निर्णयों की नकलें देने का होता है। अदालत में बतौर सबूत रोज बहुत से असल दस्तावेज पेश होते हैं, हर केस में जो जिस रोज पेशी होती है एक आदेश पारित किया जाता है, रोज हर अदालत कम से कम तीन-चार निर्णय पारित करती है, रोज कम से कम आठ-दस गवाहों के बयान लेकर रिकॉर्ड करती है। इन सब की पक्षकारों को मुकदमे की कार्यवाही के लिए जरूरत होती है। इन सब की प्रमाणित प्रतियाँ (नकलें) प्राप्त करने के लिए रोज सैंकड़ों अर्जियाँ अदालतों में पेश होती है। इन में से अनेक की तुरंत जरूरत होती है। वहाँ पहले यह कायदा था कि यदि नकल तुरंत प्राप्त करनी हो तो अर्जी में लिखना पड़ता था। तुरंत आवश्यक लिख देने पर दरख्वास्त चलने के बजाय दौड़ने लगती थी, फर्क बस इतना था कि फीस दुगनी देनी पड़ती थी।
पच्चीस साल पहले तक हर अदालत में एक नकल-बाबू (कोपिंग क्लर्क) होता था। जिस का काम होता था कि वह नकल की अर्जियों पर नकलें बना कर दे। खाली वक्त में अदालत के दूसरे कामों में उसे सहयोग करना पड़ता था। तब जिस अदालत के दस्तावेज की नकल प्राप्त करनी होती थी उस अदालत में अर्जी पेश करनी पड़ती थी। अर्जी एक छपे फार्म पर होती है जिस में अदालत का नाम, मुकदमे का शीर्षक व नम्बर, मुकदमें की किस्म और उन कागजात का विवरण लिखना होता है जिन की नकल प्राप्त करनी होती है। एक रुपए का कोर्ट फीस का टिकट चिपका कर अर्जी पेश करनी होती है। नकल बाबू इस अर्जी पर अदालत के रीडर के दस्तखत करवा कर इसे एक रजिस्टर में अंकित करता। फिर वह उस केस की फाइल निकालता है।फिर उन दस्तावेजों आदि की नकल हाथ से बनाता था। उस पर कि असल से मिलान किया लिख कर हस्ताक्षर करता था। फिर रीडर के हर पृष्ठ पर ह्स्ताक्षर कराता फिर अदालत के जज के दस्तखत होते। रजिस्टर में अंकित होता कि नकल कब तैयार हो गई। रोज एक नोटिस निकालता कि इन अर्जियों की नकलें तैयार हो गई हैं। अर्जीदार नोटिस देखते और नकल पर नकल की फीस के बराबर नकल फीस के टिकट चिपकाते और फिर रजिस्टर में दर्ज कर लेने वाले के हस्ताक्षर करवा कर नकलें दी जातीं।
फिर जमाना बदला तो जेरोक्स मशीनें आ गईं और नकलें जेरोक्स होने लगीं। नकलों को हाथ से बनाने का काम बंद हुआ। सरकार को लगा कि एक अदालत में एक बाबू अधिक है। आधे बाबू से काम चल सकता है। पर बाबू को आधा करने की तरकीब भिड़ाई गई। आला दिमागों ने रास्ता निकाल लिया। जिन शहरों, कस्बों में तीन से अधिक अदालतें थीं वहाँ की सब से बड़ी अदालत की देखरेख में एक नकल विभाग कायम कर दिया। अब नकल की अर्जी इस विभाग को पेश होती है और नकलें यहीं मिला करती हैं। कायदा बदल गया।
मैं एक जिला मुख्यालय पर वकालत करता हूँ। यहाँ हाईकोर्ट के अधीन काम करने वाली 35 अदालतें हैं। इन का एक क़ॉमन नकल विभाग है। वहाँ सात आठ बाबू और एक हेड बाबू काम करते हैं। कुछ चपरासी हैं। नकल अब वहाँ पेश होती है। नकल अर्जी पेश होने का वक्त है सुबह 11 से 12 बजे तक दोपहर 2 से 3 बजे तक। इस के अलावा नकलों की अर्जी पेश नहीं की जाती। लगभग तीन सौ अर्जियाँ सुबह और इतनी ही शाम को यहाँ रोज पेश हो जाती हैं। और हर अर्जी पर औसतन 10 पेज नकलें तो मांगी ही जाती हैं। नकल अर्जी पेश हो जाने पर अर्जियों पर हैड बाबू के द्स्तखत होते हैं, फिर उन्हें एक बाबू रजिस्टर में चढ़ाता है। फिर वे अर्जिय़ाँ एक डाक रजिस्टर में चढ़ा कर सबंधित अदालत को भेजी जाती हैं जहाँ। दो चपरासी यही काम करते हैं। वे संबंधित अदालत के बाबू के दस्तखत डाक रजिस्टर में करवा कर दे कर आता है। बाबू सम्बन्धित केस की फाइल निकाल कर अपने डाक रजिस्टर में चढ़ाता है। उसी दिन दूसरी पारी में जब नकल चपरासी अर्जियाँ देने आता है तब दस्तखत कर के केस फाइलें ले जाता है। केस फाइल नकल विभाग में पहुँचने पर फिर रजिस्टर में चढ़ाई जाती हैं। तब अर्जीदार या उसका वकील या उस का मुंशी केस फाइल देखता है कि कितने पृष्ठ फोटो कॉपी होंगे? उन के हिसाब से फोटो कॉपी के पैसे जमा करवाता है। फिर फोटो कापी होती है। फोटो कापी होने पर उन पर अदालत की मोहरें लगाई जाती हैं। फिर हर पृष्ठ पर हेड बाबू के दस्तखत होते हैं। फिर सारी नकलें नकल विभाग के जज के पास लेजाई जाती हैं। जज साहब हर दस्तावेज के मुखपृष्ठ पर हस्ताक्षर करते हैं।
जज के हस्ताक्षर होने के बाद नकलें वापस नकल विभाग में लाई जाती हैं। उन के तैयार होने की सूची बनाई जाती है। अर्जीदार सूची देख कर नकल देखता है उस पर यथायोग्य नकल के टिकट चिपकाता है। फिर नकल पर सबसे अंत में लगी मोहर पर तमाम तफसील अंकित होती है। जैसे नकल की अर्जी पेश होने की तारीख, नकल तैयार होने की संभावित तारीख नकल तैयार होने की वास्तविक तारीख, नकल तैयार होने की सूचना जारी करने की तारीख, कितनी कोर्ट फीस ली गई उस की कीमत और नकल वास्तव में अर्जीदार को देने की तारीख।
इतना होने पर अर्जीदार या उसके वकील या उस के वकील के मुंशी के हस्ताक्षर करवा कर नकल दी जाती है।
इस बीच पिछले बीस सालों में हालत यह हो गई है कि एक अदालत में लम्बित मुकदमों की संख्या बढ.कर चौगुनी हो गई है। चौगुनी ही नकलें मांगी जाती हैं।
अब होता यह है कि एक रजिस्टर पर दिन भर नकलों की तफसील ही चढ़ती रहती है। रजिस्टर की साईज भी अढ़ाई गुना तीन फुट है। पेज कम से कम दो सौ तो होते ही हैं। रजिस्टर एक सप्ताह भी नहीं चलता है। नकल मिलने में कम से कम तीन दिन तो लगते ही हैं। एक दिन केस फाइल आने का एक दिन नकल बनने का तीसरे दिन देने का। कभी कभी तो पन्द्रह दिन भी लग जाते हैं। ऐसे में किसी को उसी दिन नकल लेनी हो तो वह क्या करेगा। उसे हेड बाबू, फाइलें लाने वाला चपरासी, फोटो कॉपियर, नकल देने वाला बाबू और अदालत का बाबू जो फाइल निकाल कर देगा सभी को पटाना पड़ेगा। और ये सब बाबू लोग लाइन क्यों तोड़ेंगे? समय बरबाद जो होता है। लाइन तोड़ने की शिकायत होने का रिस्क भी बना रहता है। वकील का मुंशी जो एक नकल के लिए दस चक्कर नकल विभाग में लगाता है। वह अगर नकल निकलवाने के लिए कम से कम पचास रुपए और अर्जेंट के लिए सौ रुपए मांगता है तो क्लाइंट को बुरा लगता है।
अगर वकीलों के मुंशी यह काम नहीं करते हों, और आप को खुद नकल लेनी हो तो आप क्या क्या करेंगे। जरा सोच कर बताएँ।
महाशय मेरे जमीन मेरे पड़ोसी कब्जा करना चाहते है।मैं उस जमीन पर फसल लगाया था।वे फसल काटना चाहते थे।मैं कोर्ट में आवेदन दिया।कोर्ट ने यथास्थिति रखने का निर्देश पुलिस को दिया था।फिर भी वे लोग जबरन फसल काट लिए।मैं पुलिस को सुचना दिया था।लेकिन कोई करवाई नही की।क्या पुलिस पर अपराध बनता है।अगर हा तो कहा शिकायत करे।
काफी मसक्कत भरा काम हैं ..ख़ुद तो करने से रहे
अरे हम तो वक़ालत से ही तौबा कर बैठेंगे साहब हा हा. बहुत सही मुद्दा उठाया सर. क्या कहना.
हम इंजिनीयरों ने और बैंक वालों ने कंप्यूटरों का प्रयोग करके अपना काम आसान कर लिया।
कानूनी व्यवस्था में ऐसा क्यों नहीं होता?
कानूनी कामों में भी कम्प्यूटरों का प्रयोग जोरों से होना चाहिए।
बस कंप्यूटर के दस्तावेजों की असलीयत पर कैसे विश्वास किय जाए? कैसे इन पर एक विश्वसनीय “मोहर” लगा सकते हैं। इस पर हमें सोचना होगा।
व्यावहारिक समस्याये बताई हैं आपने.
ना जाने क्यूँ सारी व्यव्स्था को पेचीदा बनाना यही सरकारी एजेन्डा रहता है
अगर कोई आसान रास्ता सुझा भी दे तो वह मान्य नहीँ होगा
और सब ऐसे ही
चलता रहेगा 🙁
आप का क्या सुझाव है ?
– लावण्या
nakal sawal daalney sey lekar nakal haasil karney tak kai baar logon ko majbooran bhrashtaachaar ka shikar hona padta hai.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
‘हरी अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ भी इस ‘नकल कथा’ से शर्मा जाए ।
आप ‘महाभारत’ के नहीं, भारतीय न्यायालयों के ‘संजय’ हैं, हम जैसों के ए ।
बाप रे इस नकल के चक्कर मे तो अकल ही काम से गई, इतनी भाग दोड, भगवान बचाये इन चकरो से,
धन्यवाद
‘राग दरबारी’ में ही तो शुक्ल जी ने लिखा है कि अदालतें, पुनर्जनम के सिद्धांत को साबित करने के लिये बनी हैं।
वाकई में लंगड़ की याद हो आयी।
sir me ne kahi pada hai
beta ye adlate bade logoan ka shugal hey
ek ek vakil pur sau sau randiya palne ke barbar kharch hota
achhi jankari
charan sparsh
makrand-bhagwat.blogspot.com
🙂 अदालत में नकल।
बहुत मूस्कील पडता है। हर बार कहते हैं अगले हफ्ते आना। और कई बार एक ही बार जाने पर वो काम हो जाता है।
मेरे गाव में भी जमीन को ले कर 25-30 साल से उप्पर हो गए हैं और अभी तक कोई फैसला नही आया है।
और जीतने की जमीन है उससे ज्यादा पैसा तो लडने में लग गया 🙂
रागदरबारी के लंगड़ की याद हो आई। मिसिल की नकल निकलवाना जिन्दगी भर का मिशन जैसा लगता है! 🙂
तिसरे खंबे की चमचमाती इमारतो मे लगी दीमक को दुनिया के सामने लाने की हिम्मत की दाद देता हूं।इस मामले में लिखने से पहले ही चौथा खंबा खड्खडाने लगता है। आपकी बेबाकी पर तिसरे खंबे को चौथे खंबे का सलाम्।
आपने इतनी सटीक और जीवंत जानकारी दी है की एक किरायेदार से मेरे द्वारा लड़े गए मुकदमे की याद ताजा करवा दी ! खैर आपका लेखन तो इतना सशक्त है की कहीं कुछ कहने की गुंजाइश ही नही छोड़ते आप ! अब आपने जो सवाल पूछ है उसका बिल्कुल मेरे द्वारा प्रयोगित उत्तर देता हूँ — मेरा मुकदमा, जैसा की आप जानते हैं फैसले पर पहुँचना मुश्किल था ! रणनीती हमारे वकील साहब की ये थी की जल्दी २ तारीखें लगवाओ, और सामने वाले पर प्रेशर बनाओ जिससे वो समझौते के लिए बाध्य हो जाए ! इसी तारतम्य में सामने वाले के गवाह की नक़ल चाहिए थी अर्जेंट में ! मैंने वकील साहब के मुंशी को कहा की – मुंशीजी ज़रा आज ही यह काम करदो ! स्वाभाविक है की उन्होंने हाथ उठा दिए ! मुझे समझ नही आया !
मुझे ख़ुद नक़ल लेने की कारवाई की भागदौड़ करनी पडी ! और आप ताज्जुब करेंगे की जो नक़ल उन दिनों में २० रु. में मिलती थी और शायद मुंशीजी ३० रु.चार्ज करते थे ! उसके मुझे ३ स्तरों पर करीब ७० रु. चुकाने पड़े थे ! और समय अलग ख़राब !
असल में इस व्यवस्था में परिपाटी ही ऎसी बन चुकी है ! अगर आज मुझे नक़ल लेनी हो तो मुंशीजी जिंदाबाद ! क्योंकि मुंशीजी से वो ५०रु. या अर्जेंट के १०० रु. ही लेगा ! हमको तो ५०० रु. तक देने पड़ सकते हैं ! वैसे मैंने कान पकड़ लिए हैं उसके बाद की मुकदमों से जितना बचा जाए उतना ही अच्छा ! पर भगवान् की कृपा से अब भी कमी नही है ! 🙂 मेरे द्वारा लगाए गए १३८ के मुकदमो को वकील साहब के भरोसे छोड़ कर अब मैंने कोर्ट जाना बंद कर दिया है !
बडी दिमागी कसरत करवा डाली आपने तो, खैर, नकल प्राप्त करने की प्रक्रिया को तो जान सका। कभी जरूरत पडी तो काम आपको याद करेगें।
सही कह रहे हैं..बहुत बढ़िया मुद्दा उठाया है. बढ़िया आलेख.