अगले दस वर्षों में एक लाख जज नियुक्त करने होंगे
|सरकारी आँकड़ों के अनुसार भारत में 4,30,000 लोग जेलों में बंद हैं, जिन में से तीन लाख बंदी केवल इसलिए बंद हैं कि उन के मुकदमे का निर्णय होना है। 2007 में यह संख्या केवल 2,50,727 थी। केवल तीन वर्षों में विचाराधीन बंदियों की संख्या में 50,000 का इजाफा हो गया। इन विचाराधीन बंदियों में से एक तिहाई से अधिक 88,312 अनपढ़ हैं, इन में माध्य़मिक स्तर से कम शिक्षित बंदियों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह संख्या विचाराधीन बंदियों की कुल संख्या का 80% (1,96,954) हो जाएगी। 2007 में विचाराधीन बंदियों की कुल संख्या 2,50,727 थी जिस में से 1891 पाँच वर्ष से भी अधिक समय से बंद थे।
अगस्त 2010 में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि सभी विचारण न्यायाधीशों ने मुकदमों के निस्तारण की गति में उच्चस्तर बनाये रखा है। ऐसे में हमारे अपराधिक न्याय तंत्र के लिए यह एक भयावह स्थिति है। इन में ऐसे बंदी भी सम्मिलित हैं कि जिन पर चल रहे मुकदमे में जितनी सजा दी जा सकती है, उस से कहीं अधिक वे फैसले के इन्तजार में जेल में रह चुके हैं। 52 हजार से अधिक बंदी ऐसे हैं जिन पर हत्या करने का आरोप है। हो सकता है कि पाँच वर्ष से अधिक समय से बंद 1891 विचाराधीन बंदी हत्या के ही अपराध में बंद हों. लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि इन में से कितने ऐसे हैं जिन पर हत्या का आरोप संदेह के परे साबित किया जा सकेगा।
वास्तविकता यह है कि जब भारत का संविधान निर्मित हो रहा था, और अनुच्छेद 21 पर चर्चा हुई तो अपराधिक मुकदमों की प्रक्रिया, निष्पक्ष विचारण, जीवन के मूल अधिकार तथा अन्य बिंदुओं पर विचार किया गया। लेकिन तेज गति से विचारण का बिंदु चर्चा में सम्मिलित ही नहीं था। यह बात पहली बार तब सामने आई जब 1979 में हुसैन आरा खातून के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि तेजगति से विचारण अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अभियुक्त का मूल अधिकार है। इस के उपरांत इस बात को न्यायालयों ने अनेक बार दोहराया है, लेकिन अभी तक विचाराधीन बंदियों के लिए यह अधिकार एक सपना ही बना हुआ है। 1970 के बाद विचारधीन बंदियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। लेकिन उन में सजा काटने वाले कम हैं और अदालत में अपने दिन की प्रतीक्षा करने वाले अधिक।
आखिर इस स्थिति का हल क्या है? विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने मामूली आरोपों के बंदियों को 2010 के अंत तक रिहा किए जाने की एक योजना घोषित की थी, जिस से विचाराधीन तीन लाख बंदियों में से दो तिहाई को रिहा किया जा सके और जेलों की भीड़ को कम किया जा सके। लेकिन इस योजना पर कितना अमल हुआ है? इस की जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस के अलावा विभिन्न कमेटियों और सरकारी दस्तावेजों के आधार पर जो हल सुझाए गए हैं वे इस प्रकार हैं-
1. अपराधिक न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जाए जिस से मुकदमों का शीघ्र निस्तारण किया जा सके।
2. अदालतों की तकनीकी और आधारभूत सुविधाओं को बढ़ाया जा सके जिस से मुकदमा निस्तारण की गति बढ़ सके।
3. पुलिस व्यवस्था में सुधार लाया जाए जिस से
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11 Comments
न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि न हो पाने का कारण यह भी है कि जहाँ एक ओर पद की नियुक्ति के लिए परीक्षा आयोजित की जाती है वहीं अपने कठिन रवैये एवं पेचिदा नियमों की वजह से पूरी की पूरी सीट खाली रह जाती है इसलिए ऐसे मानकों को स्थापित करने की अवश्यकता है जिससे उचित समाधान निकाला जा सके ा
दिनेश जी नमस्कार, नव वर्ष की शुभकामना। बढिया जानकारी भरी पोस्ट माननीय उच्चन्यायलयों मे भाषा की समस्या भी आम भारतीय को होती है कब तक अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहेगा ।
अंग्रेजी का वर्चस्व अधीनस्थ न्यायालयों में जहाँ जहाँ हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में व्यवहार करने का अधिकार मिला है वहाँ तो टूटा है। राजस्थान, मध्यप्रदेश में तो अधीनस्थ न्यायालयों से अंग्रेजी गायब हो गई है। उच्च न्यायालय में भी हिन्दी में याचिकाएँ दाखिल हो रही हैं। अंग्रेजी में प्रस्तुत की गई याचिकाओं में वकील हिन्दी में बहस कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह गति आगे ही बढ़ेगी, पीछे नहीं।
भारत मे इतने पढए लिखे लोग बेरोजगार हे, सब के लिये स्थान भी हे खाली पढे, लेकिन राज नीति आडे आती हे, कितने ही पढे लिखे लोग जज बनाने की काबलियत लिये भी हे फ़िर दस साल क्यो इंतजार? आप ने बहुत सुंदर जानकारी दी, धन्यवाद
@अजय कुमार झा
अजय जी,अब तो यह बात इकॉनॉमिक टाइम्स को लिखना पड़ रहा है।
सफाई तो तब होगी ना जब घर में जगह होगी। यदि दो कमरों के घर में दस दो-दो बच्चों वाले जोड़ों को ठहरा दें तो क्या सफाई रह सकेगी?
आप का नया ठिकाना पहले ही बुकमार्क हो चुका है।
अगर सरकार चाहे तो सब कुछ रास्ते पर आ सकता है। बस इच्छा शक्ति ही नही है। आपको सपरिवार नये साल की हार्दिक शुभकामनायें।
आज एक विधिवेत्ता ही इस बात की गंभीरता को भलीभांति समझ और समजा सकता है सर । अफ़सोस कि इसका बहुत कम प्रतिशत भी …सरकार के एजेंडे में नहीं है । वैसे सर इसके साथ न्यायपालिका की खुद की सफ़ाई भी अब जरूरी हो गई है ।
मेरा नया ठिकाना
थाने में जमानत दे देने का संशोधन इस दिशा में अच्छा व महत्वपूर्ण निर्णय है क्योंकि यह ज़रूरी नहीं हर आरोपी भाग जाएगा या उसके बाहर रहने से केस को कोई बहुत बड़ा नुक्सान होने वाला ही होता है.
आप सौ फीसदी सही हैं लेकिन इसके लिए नियंताओं में इच्छा शक्ति का अभाव है.
मुश्किल यह है कि हमारे न्यायालय भी अब संदेह से परे नहीं रह गये हैं। मुकदमों के लंबित रहने में जिनका निहित स्वार्थ पूरा होता है उनका प्रयास सुधारवादियों पर भारी पड़ता है।
जितनी सजा मिलनी है उससे कहीं ज्यादा काट चुके है. ऐसा जान कर बहुत अफ़सोस हुआ. बहुत जानकारी के साथ ही बहुत अच्छी पोस्ट के लिए आभार!