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अपराधों के प्रसंज्ञान के लिए क्या कोई परिसीमा काल है? और है तो कितना?

तनु गौड़ पूछती हैं —
दि किसी के साथ कोई अपराध घटित हो जाता है और वो किसी भय के कारण उसके विरूद्ध पुलिस में शिकायत नही करता है। परंतु कुछ वर्षों या महीनों के बाद शिकायत करवाना चाहे तो क्या उसका मामला दर्ज होगा? अर्थात क्या अपराध की शिकायत दर्ज करवाने के लिए कोई समय सीमा भी होती है?
 उत्तर —
तनु जी,
प का प्रश्न अत्यंत साधारण और छोटा सा प्रतीत होता है, लेकिन यह एक गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न है। मैं चाहूँगा कि इस प्रश्न का उत्तर विस्तार से दिया जाए। 
भारत में अपराधों के अन्वेषण, विचारण और अपराधियों को दंड दिए जाने का कार्य दंड प्रक्रिया संहिता में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार होता है। इस संहिता के साथ एक प्रथम अनुसूची संलग्न है जो बहुत महत्वपूर्ण है औऱ भारतीय दंड संहिता में वर्णित अपराधों का वर्गीकरण करती है। इस के पहले कॉलम में धारा का क्रमांक, दूसरे में अपराध का विवरण, तीसरे में दंड, चौथे कॉलम में संज्ञेयता, पाँचवें में अपराध के जमानतीय या अजमानतीय होना और छटे कॉलम में यह दर्ज है कि वह अपराध किस न्यायालय द्वारा विचारणीय है? इस तरह इस अनुसूची से आप किसी भी अपराध के बारे में उक्त बातों का पता लगा सकते हैं। 
इस अनुसूची के कॉलम सं. 2 में वर्णित अपराध की धारा कॉलम सं. 1 से पता लगती है तथा कॉलम सं. 3 से पता लगता है कि उस अपराध के लिए दंड क्या है। 
स संहिता के अध्याय 36 की धारा 467 से 473 तक अपराधों की परिसीमा के बारे में हैं। धारा 468 में कहा गया है कि कोई भी न्यायालय किसी भी अपराध के लिए विनिर्दिष्ट परिसीमा काल के उपरांत उस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं करेगा। 
इसी धारा में आगे परिसीमा काल निर्धारित किया गया है-
क- जो अपराध केवल जुर्माने से दंडनीय हैं उन में परिसीमा काल छह माह निर्धारित किया गया है। 
ख- जो अपराध एक वर्ष तक के कारावास से दंडनीय हैं उन में परिसीमा काल एक वर्ष निर्धारित किया गया है।
ग- जो अपराध एक वर्ष से अधिक और तीन वर्ष तक के कारावास से दंडनीय हैं उन में परिसीमा काल तीन वर्ष निर्धारित किया गया है। 
गे यह उपबंध किया गया है कि यदि एक से अधिक अपराध एक साथ या एक श्रंखला में किए गए हैं  और उन का विचारण एक साथ होना है तो परिसीमा काल कठोरतम दंड से दंडनीय अपराध के अनुसार निश्चित होगा। 
तीन वर्ष  के कारावास से अधिक दंड से दंडनीय अपराध के लिए कोई परिसीमा तय नहीं की गई है। ऐसे अपराधों के लिए न्यायालय कभी भी कितने ही वर्ष के उपरांत प्रसंज्ञान ले सकता है। 
किसी अपराधी के संबंध में परिसीमा काल अपराध के घटित होने की तारीख से आरंभ होगा। जहाँ अपराध किए जाने की जानकारी व्यथित व्यक्ति को या पुलिस को नहीं है वहाँ वह व्यथित व्यक्ति को अथवा पुलिस को अपराध की जानकारी होने पर आरंभ होगा। जहाँ यह ज्ञात नहीं है कि अपराध किस ने किया है वहाँ व्यथित व्यक्ति अथवा पुलिस को अपराधी की जानकारी होने की तिथि से परिसीमा काल आरंभ होगा। जिस दिन ऐसी अवधि की गणना की जाती ह
ै उस दिन को परिसीमा काल से छोड़ दिया जाएगा।  
दि कोई अपराध लगातार चालू रहने वाला है तो नया परिसीमा काल हर उस क्षण से आरंभ होगा जब तक वह अपराध होना जारी रहता है।
कुछ कारणों से परिसीमा काल आरंभ होने और प्रसंज्ञान लेने के मध्य के कुछ समय को अपवर्जित किया जा सकता है। इन में सद्भावना पूर्वक किसी न्यायालय में उसी अपराधी के विरुद्ध चल रहे अभियोजन का काल सम्मिलित है यदि वह त्रुटिवश चल रहा है और बाद में उस त्रुटि को दूर किया जाता है। किसी व्यादेश या आदेश के द्वारा अभियोजन रोक दिया गया हो तो उस आदेश या व्यादेश के बने रहने की अवधि, यदि कानून में अभियोजन के लिए किसी अनुमति की आवश्यकता है तो अनुमति प्राप्त करने में व्यतीत समय, अपराधी के भारत या भारत के बाहर के किसी राज्य क्षेत्र जो केन्द्र सरकार के प्रशासन के अधीन है से अनुपस्थित रहने की अवधि और अपराधी के फरार रहने और अपने आप को छिपा कर रखने की अवधि को भी परिसीमा काल से अपवर्जित कर दिया जाएगा। 
स तरह हम देखते हैं कि परिसीमा काल का प्रभाव केवल उन अपराधों के मामले में है जो तीन वर्ष तक की अवधि के कारावास से या केवल जुर्माने के दंड से दंडनीय हैं। तीन वर्ष से अधिक के कारावास से दंडनीय अपराधों पर कोई परिसीमा काल नहीं है।  अदालत कभी भी उन का प्रसंज्ञान ले सकती है। फिर भी जैसे ही संभव हो अपराध की सूचना पुलिस शीघ्र से शीघ्र दे देनी चाहिए और अपराध के घटित होने की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाना चाहिए। क्यों कि प्रथम सूचना रिपोर्ट देरी से दर्ज होना अपराधी को दंड से बचाने में सहायक हो सकता है। यदि व्यथित व्यक्ति किसी अपराध की सूचना किसी भय के कारण देरी से दे रहा है तो उस भय का उल्लेख भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में अवश्य करना चाहिए।

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