आओ परिवार न्यायालय घूम आऐं
|चलिए आज आप को परिवार न्यायालय बोले तो “फैमली कोरट” घुमा लाते हैं। वैसे तो यह कोई घूमने की जगह नहीं, मगर जिस ने इस का पल्ला पकड़ा वह सालों साल यहीं घूमता रह जाता है। ये वो आदर्श अदालत है, जिस में न्याय मंदिर के विनायकों याने वकीलों का प्रवेश वर्जित है। हालाँकि कानून में लिखा है कि उचित हालात और मामलों में वकीलों के जरिए पक्षकारों को पैरवी करने इजाजत दी जा सकती है। लेकिन मैं ने तो कभी भी वैध तरीके से इस आदर्श अदालत में किसी पक्षकार को वकील के जरिए पैरवी की इजाजत मिलते नहीं देखा।
इस वर्जना के बावजूद भी ऐसा नहीं कि इस अदालत की चौखट तक वकीलों की पहुँच नहीं हो। ऐसा हो नहीं सकता कि कोई अदालत हो और वकील की पहुँच वहाँ तक न हो। वर्जना के बावजूद वकील वहाँ पहुँचते हैं, बल्कि यूँ कहिए कि वकीलों के बिना वहाँ तक पहुँच पाना वैसे ही असम्भव है जैसे बिना पासपोर्ट विदेश जाना। किसी को भरण पोषण भत्ते के लिए वहाँ जाना हो, या वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए, या न्यायिक अलगाव के लिए, या तलाक बोले तो डाय़वोर्स के लिए, या बच्चों की कस्टडी या संरक्षक नियुक्त कराने के लिए, या किसी और मकसद से। वहाँ पहुँचने का रास्ता केवल वकीलों को पता है। उस के बिना चले भी गए तो अदालत का मुंसरिम ही आप को वहाँ से वापस लौटा देगा। आप चाहे लाख कहें कि फैमली कोर्ट के कानून में लिखा है कि वकीलों से पैरवी नहीं कराई जा सकती। मुंसरिम पहले कहेगा। आप की अरजी सही साइज और रंग के कागज में नहीं है। उसे ठीक करा कर ले गए तो कहेगा। इस में टिकट पूरा नहीं लगा है। आप टिकट लगा कर ले जाएंगे तो बताएगा कि सम्मन और तलबाना ठीक से नहीं भरा है, दुबारा नया लगा कर लाओ। एक तो तीन चक्कर आप लगा चुके हैं, ऊपर से फैमली कोरट मेन अदालत से डेढ़ किलोमीटर दूर एक किराए के बंगले में चलती है, जिस के आस-पास चाय की गुमटी तो क्या पानी पीने का साधन तक नहीं। साढ़े चार किलोमीटर का सफर पहले ही आप कर चुके हैं। सफर भी ऐसा कि सीधा सलंग जाना हो तो कोई बात नहीं, आप को तो फिर फिर अदालत से फैमली कोरट ही आना-जाना है।
अब आपने पूछ कि क्या क्या कर के लाना है एक बार में ही बता दो, तो कहेगा उस पर इतनी फुरसत नहीं कि वह यह सब बताए। अगर सब कुछ जानना हो तो वकील क्यों नहीं कर लेते, और कि वकील तो आप को कर ही लेना चाहिए, वकील के बगैर तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। आखिर थक हार कर आप आ ही जाएंगे वकील के पास।
अब इस अदालत के लिए वकील तलाशना कोई आसान काम नहीं है। आप ने मेन अदालत के मेले में जा कर किसी से पूछने की जुर्रत कर ली, तो आप की खैर नहीं। इधर-उधर से दलाल आप को आ घेरेंगे। एक आप से बात करेगा तो दूसरा और तीसरा आप की उस से बात कर चुकने के बाद आप के सोचने की घड़ी का इन्तजार में आप को ताक रहा होगा। कब आप सोचना शुरू करें? और कब उस का आप की सोच में स्पीड ब्रेकर बनने का मौका लगे?
अब आप या तो इन दलालों के चक्कर में फँस-फँसा कर किसी वकील के यहाँ पहुँच ही जाएँगे या फिर उस दिन वापस घर की ओर वापस मुड़ लेंगे और वहाँ जा कर तसल्ली से सोचेंगे और अपने किसी परिचित वकील से मिलना तय करेंगे। कोई वकील परिचित नहीं हुआ तो किसी परिचित के परिचित के साथ वकील के दफ्तर पहुँचेंगे। लेकिन इस रास्ते पर चलने के पहले एक बात और विचार कर लेना कि जो परिचित आप ने उस के परिचित वकील के द्फ्तर ले जाने के लिए चुना है, वह कहीं वकील का इतना परिचित तो नहीं कि, पार्ट टाइम वकील साहब की मार्केटिंग टीम का कोई स्ट्रिंगर हो चुका हो। क्यों कि आजकल अनेक परिचित ये काम भी करने लगे हैं।
…………(जारी)
ऐसा लगा कि कोई अपनी आप बीती सुना रहा है. एक दम यथार्थ चित्रण है. आभार जानकारी के लिए. जारी रखिये.
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
शुक्रिया इस पोस्ट के लिए.
आजकल ये मार्केटिंग(दलाली) वाला जो फण्डा है वो अधिकांशतया लोग आजमा रहे हैं और साथ ही साथ इसे गाली भी दे रहे हैं क्योंकि सामने वाला भी यही कर रहा है.
न्याय की सुलभता केवल ढकोसला है. पंजाब में मोबाइल कोर्ट्स का हाल तक बेहाल है.
द्विवेदी जी, अब मेरी समस्या यह है कि मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे जिन्हें इस्तेमाल कर के मैं आप का शुक्रिया अदा करूं कि आप इतनी बढ़िया पोस्ट लिख रहे हैं जिस में आपने सिस्टम का इतना यथार्थ चित्रण कर दिया है कि हम लोग भी कुछ कुछ समझने लगे हैं। रही सही कसर ज्ञान जी की टिप्पणी ने पूरी कर दी…यही लगने लगा है कि अगर ज्ञान जी जैसे प्रबुद्ध व्यक्तियों की यह हालत इन जगहों पर हो सकती है तो हम किस खेत की गाजर-मूली हैं भई। अब इस पोस्ट के दूसरे हिस्से का इंतज़ार रहेगा।
सटीक शब्द चित्रण है आपका।
अदालत के चक्कर जितने कम लगाने पड़ें उतने ही अच्छा। इतनी जानकारी देने के लिए शुक्रिया।
कोर्ट और वकीलों के चक्कर न लगाना पड़े भगवान बचाए इनसे . कोर्ट के सम्बन्ध मे बढ़िया सटीक खोजपरक जानकारी देने के लिए धन्यवाद
ओह, रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल में मैं अपने लड़के के एक्सीडेण्ट के केस में खुद केस बना और प्रेजेण्ट कर रहा था – मैं काफी पैसे की तंगी में था और वकील का खर्च बचाना चाहता था।
मैं सफल तो हो पाया, पर जज साहब नें मेरे वकालत के अज्ञान के कारण मेरी जो जलालत की, और उस समय जिस मानसिक कष्ट से गुजर रहा था, उसे याद कर यह लग रहा है कि मुझे एक वकील कर लेना चाहिये था।
जज साहब के सवाल मुझे अब भी व्यथित करते हैं। मेरे विचार से अगर आप मामले में इमोशनली चार्ज्ड हों तो बेहतर है कि मामला वकील को दे दें।
दिनेश जी,भाई आप की इस आदलात मे घुमने से तो बेहतर हे, घर के झगडे घर मे ही निपट लिये जाये यानि एक बार इस परिवारिक आदालत मे फ़स गये तो..नानी याद आ जाये गी.
यानि बकरे की मां कब तक खेर मनाये ..
धन्यवाद,