आतंक कायम रखने को कानून की अवहेलना और हिन्दी की उपेक्षा
|मैं ने अनवरत पर उल्लेख किया था कि पिछले दिनों किसी कानूनी काम के सिलसिले में मेरा दो बार जोधपुर जाना हुआ था। हुआ यह था कि एक उद्योग में लगभग ढाई हजार कर्मचारी काम कर रहे हैं। इन में से केवल छह सौ के लगभग उद्योग के सीधे नियोजन में हैं, शेष सभी कर्मचारी ठेकेदार के माध्यम से वहाँ काम कर रहे हैं। उद्योग अकूत मुनाफा कूट रहा है। कारण यह कि उद्योग का सीधा कर्मचारी होने पर उद्योग के मालिक को उद्योग की श्रेणी का वेतन और सुविधाएँ कर्मचारियों को देनी होती हैं। जब कि ठेकेदार के कर्मचारी को केवल राज्य सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन यानी 100 रुपया प्रतिदिन या 2600 रुपया या इस से कुछ अधिक प्रतिमाह देकर काम चला लिया जाता है। इस तरह उद्योग मालिकों द्वारा इन कर्मचारियों को जो मजदूरी दी जा रही है वह उद्योग की श्रेणी के हिसाब से आधी से भी कम है। यही उद्योगों के अकूत मुनाफे का राज है।
कारखाना कर्मचारी को अधिक दिनों तक संगठित होने से रोका जाना संभव नहीं है। वह एक स्थान पर काम करता है, प्रतिदिन एक साथ एकत्र होता है, काम करता है, सुख-दुख की बात आपस में करता है। वह यह भी देखता है कि उस से कहीं कम काम करने वाला उद्योग का स्थाई कर्मचारी उस से दुगना-तिगुना वेतन पाता है। यह सब परिस्थितियाँ उसे संगठन बनाने के लिए प्रेरित करती हैं। मालिक भी इन बातों को जानते हैं और संगठन बनने के आसार दिखाई देते ही अपने खुद के लोगों के माध्यम से संगठन बनवा देते हैं और कानून के तहत उन संगठनों से समझौते भी कर लेते हैं। लेकिन यह शीघ्र ही उजागर हो जाता है कि यह संगठन उन का नहीं अपितु मालिकों का ही हित साधन कर रहा है। कर्मचारी समझते ही अपने संगठन बनाना आरंभ कर देते हैं। अब उन्हें कानून का तो ज्ञान होता नहीं वे कुछ अधिक जानने वाले लोगों के पास जाते हैं और संगठन को कानूनी व्यक्ति का जामा पहनाने के लिए उस का पंजीयन करा लेते हैं। ऐसा ही एक संगठन बना और उस का पंजीयन भी करा लिया गया। लेकिन जैसे ही उस संगठन ने मालिकों के सामने अपनी मांगें रखी मालिकों के कान खड़े हो गए।
मालिकों ने उस संगठन का पंजीयन रद्द कराने का आवेदन ट्रेडयूनियन पंजीयक के पास प्रस्तुत किया। इस आवेदन में तीन चार आपत्तियाँ पेश की गई थीं। लेकिन उन को विस्तार दे कर आवेदन को दस पृष्टों का बना दिया गया था। आवेदन अंग्रेजी भाषा में था और उच्चन्यायालय के किसी वकील का बनाया हुआ था। अंग्रेजी का यह आवेदन देख कर संगठन के कर्ता-धर्ता घबरा गए। संगठन के सदस्यों में से अधिकांश केवल हस्ताक्षर करने भर की हिन्दी सीखे हुए थे तो कुछ हिन्दी पढ़ना जानते थे। अंग्रेजी को समझना उन में से किसी के बूते का नहीं था। जब मेरे सामने मामला लाया गया तो मैं ने सब से पहले यही पूछा कि इस का हिन्दी अनुवाद आप को दिया गया या नहीं? तो उत्तर नहीं में था।
राजस्थान में हिन्दी को सरकार की कामकाज की भाषा के लिए कानून बना है और कोई भी आवेदन या सरकारी आदेश, परिपत्र आदि हिन्दी में होना आवश्यक है। यदि किसी कारण से उसे अंग्रेजी में लिखा गया हो तो उस के साथ हिन्दी अनुवाद देना आवश्यक किया हुआ है। लेकिन इस कानून का पालन करने में सरकारी तंत्र आज तक उपेक्षा करता आ रहा है। उस पंजीयक ने भी उद्योग के प्रबंधकों का आ
वेदन अंग्रेजी में बिना किसी हिन्दी अनुवाद के ग्रहण कर लिया था। जब कि हिन्दी अनुवाद उस के साथ होना जरूरी था। कानून के होते हुए भी हिन्दी के प्रति उपेक्षा इसलिए बरती जाती है जिस से हिन्दी भाषियों पर अंग्रेजी का आतंक कायम रखा जा सके। बड़े उद्योगों द्वारा उन के कर्मचारियों से सेवाशर्तों के बारे में किए जाने वाले समझौते भी लगभग शतप्रतिशत अंग्रेजी में होते हैं और उन के साथ कोई हिन्दी अनुवाद नहीं होता। अनेक ट्रेड यूनियनों के नेताओं के लिए भी यह सुविधाजनक होता है। अच्छी या अधकचरी अंग्रेजी जानने वाले इसी कारण से कर्मचारियों की निर्भरता बनी रहती है।
वेदन अंग्रेजी में बिना किसी हिन्दी अनुवाद के ग्रहण कर लिया था। जब कि हिन्दी अनुवाद उस के साथ होना जरूरी था। कानून के होते हुए भी हिन्दी के प्रति उपेक्षा इसलिए बरती जाती है जिस से हिन्दी भाषियों पर अंग्रेजी का आतंक कायम रखा जा सके। बड़े उद्योगों द्वारा उन के कर्मचारियों से सेवाशर्तों के बारे में किए जाने वाले समझौते भी लगभग शतप्रतिशत अंग्रेजी में होते हैं और उन के साथ कोई हिन्दी अनुवाद नहीं होता। अनेक ट्रेड यूनियनों के नेताओं के लिए भी यह सुविधाजनक होता है। अच्छी या अधकचरी अंग्रेजी जानने वाले इसी कारण से कर्मचारियों की निर्भरता बनी रहती है।
मैं ने पहली सुनवाई पर संयुक्त श्रम आयुक्त के यहाँ यही आपत्ति उठाई कि आप ने इस आवेदन को हिन्दी अनुवाद के बिना कैसे ग्रहण कर लिया? अधिकारी के पास इस का कोई उत्तर नहीं था। वह कहने लगा कि आप को क्या आपत्ति है आप तो अंग्रेजी जानते हैं। मेरा उत्तर था कि मैं जानता हूँ वह सही है लेकिन यह आवेदन ऐसे संगठन के विरुद्ध है जिस के सदस्यों में कोई पाँच-दस ही कामचलाऊ अंग्रेजी जानते होंगे। संगठन में जनतांत्रिक पद्यति है और हर कार्यवाही की जानकारी सदस्यों को होना आवश्यक है। यह आप के लिए महत्वपूर्ण हो न हो लेकिन कानून की पालना तो आप के लिए आवश्यक है। अधिकारी को कार्यवाही रोकनी पड़ी और आदेश लिखा गया कि जब हिन्दी में आवेदन प्रस्तुत हो जाएगा तब पुनः उस की सूचना जारी होगी।
यहाँ राजभाषा हिन्दी दिवस पर इस घटना का उल्लेख करने का उद्देश्य यही है कि कानून होते हुए भी जानबूझ कर हिन्दी का प्रयोग करने से बचा जाता है जिस से सशक्त धनिक और प्रभावशाली लोग हिन्दी भाषियों पर आतंक बनाए रखें और जनता की उन पर निर्भरता बनी रहे। इस के लिए यह आवश्यक है कि जब भी कोई कार्यवाही सरकारी कार्यालय में हो या कोई भी सरकारी परिपत्र, आदेश या अन्य सामग्री अंग्रेजी में जारी की जाए तब उस का हिन्दी अनुवाद अवश्य मांगा जाए। जिस से सरकारी कामकाज में हिन्दी का प्रयोग शतप्रतिशत स्थिति में लाया जा सके।
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14 Comments
बहुत पुरानी पोस्ट परंतु ब्लॉग्स इन मीडिया के माध्यम से आज ही मिली। पोस्ट एकदम सही और अच्छी भावना से लिखी गई लगी इसलिए टिप्पणी करना उचित लगा। आपने बिलकुल सही लिखा कि कानून के होते हुए भी हिंदी के प्रति उपेक्षा इसलिए बरती जाती है जिससे हिंदी भाषियों पर अंग्रेजी का आतंक कायम रखा जा सके।
इससे केवल हिंदी भाषी ही नहीं बल्कि अन्य भाषा भाषी भी बराबर के शिकार हैं। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय भी तो यही चाहते हैं कि अंग्रेज़ी के कारण न्यायाधीशों और कानून की प्रैक्टिस करने वालों का वर्चस्व बना रहे। उसी प्रकार कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारी और कार्यालय प्रमुखों की नीयत भी साफ नहीं है। उनके मन में हिंदी के प्रति प्रच्छन्न विद्वेष की भावना है जिसे ज़ाहिर नहीं करते हैं और मौका पाते ही हिंदी की जड़ पर कुठाराघात कर देते हैं।
हिंदी को सच में ही बढ़ाना है तो उत्तर प्रदेश से सीख लेनी चाहिए. वहां राजकाज की भाषा हिंदी है. अगर किसी सरकारी आदमी में हिंदी में काम नहीं किया तो कोई सवाल जवाब नहीं. बस, उसकी वार्षिक गोपनीय रिपार्ट में 'प्रतिकूल' लिख दिया जाता है. अहिंदी भाषी होने का बहाना दो-चार दिन ही चलता है.
यह टिप्पणी किसी भी बाबू का भविष्य चौपट करने के लिए काफी है.
वहां सारा काम बिना हील-हुज्जत के हिंदी में ही हो रहा है.
बहुत अच्छी जानकारी है और नेक सलाह की तो आप से आपेक्षा रहती ही है धन्यवाद्
इतनी ही सशक्त वकालत की ज़रूरत है हिन्दी को उसका न्यायपुर्ण स्थान दिलाने एवम आम आदमी के हितो की रक्षा करने के लिये।
सही समय, उम्दा मिसाल, बधाई, धन्यवाद्।
बहोत खूब — अच्छी जानकारी रही –
– आप हमेशा सटीक सलाह देते हैं
हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें
दिनेश जी यह प्रयोग ( ठेके दारी पर मजदुर ) हमारे यहां भी चला, लेकिन जल्द ही फ़ेल हो गया आप की सब बाते सही है,भारत मै लोग भोले है, ओर वो फ़ंस जाते है इन के चक्करो मै.
आप का धन्यवाद इस सुंदर जानकारी के लिये
ये बात तो सच है. कई कार्यालयों में लिखा होता है हिंदी का प्रयोग करें लेकिन शायद ही कोई करता है !
आपने हमारे अलग-अलग श्रेणी वाले राज्यों वाली शंका का समाधान नहीं किया !
हैलो, लेडीज़ एंड जैंटलमैन, टूडे हमको हिंडी डे मनाना मांगटा…
अंग्रेज़ चले गए लेकिन अपनी….छोड़ गए…
बहुत सटीक बात कही आपने. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
रामराम.
सही कहना है आपका .. बडे लोगों के द्वारा छोटे लोगों के अत्याचार में बहुत सहायक है यह अंग्रेजी .. ब्लाग जगत में आज हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
हिन्दी की उपेक्षा असहनीय है, हम हिंदुस्तानियों को हिन्दी के विकास में खुल कर आगे आना होगा..
बढ़िया आलेख…
बहुत बढ़िया
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामना . हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार का संकल्प लें .
निश्चित तौर पर, हिन्दी अनुवाद मांगे जाने पर सरकारी कामकाज में हिन्दी का प्रयोग शतप्रतिशत होने की संभावना बढ़ेगी।
बी एस पाबला
सही समय पर प्रस्तुति ।आभार ।