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इस रात की कोई सुबह भी है ?

देश में कुल आठ लाख वकील।

और अदालतें? चौदह हजार मात्र।

याने एक अदालत में काम करने को औसतन 57 वकील।

जज केवल बारह हजार।

याने 66 वकीलों के लिए एक जज।

और एक जज के पास निर्णय करने को 3170 मुकदमे।

साल में दिन 365/366.

काम के दिन मात्र 200.

एक दिन में 60 मुकदमों में सुनवाई हो, तो हर मुकदमे में अगली सुनवाई के लिए दिन तय होगा (अगली पेशी) तीन माह बाद।

याने साल में चार सुनवाई से अधिक नहीं।

एक जज एक मुकदमें में रोज निर्णय करे, तो साल में निर्णय होंगे केवल 200.

पूरे देश में निपटेंगे केवल 2400000 मुकदमे।

आज से देश की किसी अदालत में कोई नया मुकदमा दाखिल न हो, कोई किसी भी मुकदमे के निर्णय और आदेश की कोई अपील न करे तब मौजूदा मुकदमों को निपटने में समय लगेगा 12 वर्ष।
ऊपर की पंक्तियों से जो दृश्य बन रहा है वह सुबह का है या दोपहर, सांझ, रात्रि या अर्धरात्रि का ? आप खुद देख लें।

कोई इसे दिन कहे तो उस की दृष्टि शक्ति पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगेगा।

इस रात की कोई सुबह भी है ?

हर रात की होती है, इस रात की भी होगी।

प्राकृतिक सुबह ऋत के नियमों से होती है। मनुष्यों के बनाई व्यवस्था में सुबह के लिए प्रयत्न करना होता है। यह प्रयत्न प्राथमिक रूप से वही करता है जिसे सब से अधिक कष्ट होता है। दूसरे लोग साथ देते हैं।

इस न्याय प्रणाली से किसे सब से अधिक कष्ट है ?

जानने के लिए पढ़ें तीसरा खंबा की अगली कड़ी

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