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एफआईआर में नाम होने मात्र के आधार पर पति-संबन्धियों के विरुद्ध धारा-498ए का मुकदमा नहीं होना चाहिये -उच्चतम न्यायालय

  • डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत की सबसे बड़ी अदालत, अर्थात् सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनेक बार इस बात पर चिन्ता प्रकट की जा चुकी है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। जिसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि इस धारा के तहत तर्ज किये जाने वाले मुकदमों में सजा पाने वालों की संख्या मात्र दो फीसदी है! यही नहीं, इस धारा के तहत मुकदमा दर्ज करवाने के बाद समझौता करने का भी कोई प्रावधान नहीं है!  ऐसे में मौजूदा कानूनी व्यवस्था के तहत एक बार मुकदमा अर्थात् एफआईआर दर्ज करवाने के बाद वर पक्ष को मुकदमे का सामना करने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं बचता है।  जिसकी शुरुआत होती है, वर पक्ष के लोगों के पुलिस के हत्थे चढने से और वर पक्ष के जिस किसी भी सदस्य का भी, वधु पक्ष की ओर से धारा 498ए के तहत एफआईआर में नाम लिखवा दिया जाता है, उन सबको बिना ये देखे कि उन्होंने कोई अपराध किया भी है या नहीं उनकी गिरफ्तारी करना पुलिस अपना परम कर्त्तव्य समझती है!

से मामलों में आमतौर पर पुलिस पूरी मुस्तेदी दिखाती देखी जाती है।  जिसकी मूल में मेरी राय में दो बड़े कारण हैं।  पहला तो यह कि यह कानून न्यायशास्त्र के इस मौलिक सिद्धान्त का सरेआम उल्लंघन करता है कि आरोप लगाने के बाद आरोपों को सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन या परिवादी पर नहीं डालकर आरोपी को कहता है कि “वह अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे।” जिसके चलते पुलिस को इस बात से कोई लेना-देना नहीं रहता कि बाद में चलकर यदि कोई आरोपी छूट भी जाता है तो इसके बारे में उससे कोई सवाल-जवाब किये जाने की समस्या नहीं होगी।  वैसे भी पुलिस से कोई सवाल-जवाब किये भी कहाँ जाते हैं?
दूसरा बड़ा कारण यह है कि ऐसे मामलों में पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाने का पूरा अवसर मिलता है और सारी दुनिया जानती है कि रौद्र रूप दिखाते ही सामने वाला निरीह प्राणी थर-थर कांपने लगता है!  पुलिस व्यवस्था तो वैसे ही अंग्रेजी राज्य के जमाने की अमानवीय परम्पराओं और कानूनों पर आधारित है!  जहॉं पर पुलिस को लोगों की रक्षक बनाने के बजाय, लोगों को डंडा मारने वाली ताकत के रूप में जाना और पहचाना जाता है!  ऐसे में यदि कानून ये कहता हो कि 498ए में किसी को भी बन्द कर दो, यह चिन्ता कतई मत करो कि वह निर्दोष है या नहीं!  क्योंकि पकड़े गये व्यक्ति को खुद को ही सिद्ध करना होगा कि वह दोषी नहीं है।  अर्थात् अरोपी को अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिये स्वयं ही साक्ष्य जुटाने होंगे।  ऐसे में पुलिस को पति-पक्ष के लोगों का तेल निकालने का पूरा-पूरा मौका मिल जाता है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र “प्रेसपालिका” के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 31 अक्टूबर, 2010 तक, 4531 पंजीकृत आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं।  मो. : 098285-02666

नेक बार तो खुद पुलिस एफआईआर को फड़वाकर, अपनी सलाह पर पत्नीपक्ष के लोगों से ऐसी एफआईआर लिखवाती है, जिसमें पति-पक्ष के सभी छोटे बड़े लोगों के नाम लिखे जाते हैं। जिनमें-पति, सास, सास की सास, ननद-ननदोई, श्‍वसुर, श्‍वसुर के पिता, जेठ-जेठानियाँ, देवर-देवरानियाँ, जेठ-जेठानियों और देवर-देवरानियों के पुत्र-पुत्रियों तक के नाम लिखवाये जाते हैं।  अनेक मामलों में तो भानजे-भानजियों तक के नाम घसीटे जाते हैं।  पुलिस ऐसा इसलिये करती है, क्योंकि जब इतने सारे लोगों के नाम आरोपी के रूप में एफआईआर में लिखवाये जाते हैं तो उनको गिरफ्तार करके या गिरफ्तारी का भय दिखाकर अच्छी-खासी रिश्‍वत वसूलना आसान हो जाता है और अपनी तथाकथित अन्वेषण के दौरान ऐसे आलतू-फालतू-झूठे नामों को रिश्‍वत लेकर मुकदमे से हटा दिया जाता है।  जिससे अदालत को भी अहसास कराने का नाटक किया जाता है कि पुलिस कितनी सही जाँच करती है कि पहली ही नजर में निर्दोष दिखने वालों के नाम हटा दिये गये हैं।

से में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वय टीएस ठाकुर और ज्ञानसुधा मिश्रा की बैंच का हाल ही में सुनाया गया यह निर्णय कि “केवल एफआईआर में नाम लिखवा देने मात्र के आधार पर ही पति-पक्ष के लोगों के विरुद्ध धारा-498ए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये”, स्वागत योग्य है| यद्यपि यह इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है।  जब तक इस कानून में से आरोपी के ऊपर स्वयं अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का भार है, तब तक पति-पक्ष के लोगों के ऊपर होने वाले अन्याय को रोक पाना असम्भव है, क्योंकि यह व्यवस्था न्याय का गला घोंटने वाली, अप्राकृतिक और अन्यायपूर्ण कुव्यवस्था है!

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