कानून और व्यवस्था केवल पुलिस का मसला नहीं
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“कानून और व्यवस्था”, ये दो शब्द बहुत सुनने को मिलेंगे, हिन्दी में कम और अंग्रेजी में अधिक “लॉ एण्ड ऑर्डर”। आखिर क्या अर्थ है इन का?
जब भी कहीं जनता का कोई समूह, छोटा या बड़ा उद्वेलित हो कर प्रत्यक्ष रूप से किसी अपराधिक गतिविधि में संलग्न हो जाता है तब कहा जाता है कि कानून और व्यवस्था बिगड़ रही है। मसलन किसी बाजार में सरे आम कोई किसी व्यापारी की हत्या कर दें तो कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं खड़ा होता उसे केवल एक सामान्य अपराध मान लिया जाएगा। इस अपराध पर पुलिस अपराधियों को पकड़ न पाए और व्यापारी इस हत्या से उद्वेलित हो कर हड़ताल कर दें, थाने पर थाने पर प्रदर्शन के दौरान भाषण हो कि पुलिस को चौथ वसूली तो आती है लेकिन वह सुरक्षा नहीं करती, पुलिस गुण्डों के हाथ बिकी है तो कानून और व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो लेगा। पुलिस फोर्स आएगी और ‘फोर्सफुल्ली’ प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए डंडों, पानी, धुएँ आदि का उपयोग हो जाएगा। कभी-कभी बन्दूक की गोलियाँ भी।
आज कल उद्योगों के नजदीक ये दृश्य कम देखने को मिलते हैं। वरना कोई दस वर्ष पहले इन की भरमार हुआ करती थी। जब कहीं प्रदर्शन हो रहा है, हड़तालें और तालाबंदियाँ हो रही हैं। खबर मिलते ही पुलिस के लिए कानून और व्यवस्था का प्रश्न हो जाता और पुलिस कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार ठहराई जाती।
अभी नोएडा में एक इटैलियन बहुराष्ट्रीय कंपनी के कारखाने में एक सीईओ की हत्या हो गई। कानून और व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो गया। श्रम मंत्री ने बयान दिया कि उद्योगपति भी मजदूरों को कानूनी सुवि्धाओं से वंचित न रखें, और लेने के देने पड़ गए। कैसे कह दिया यह कानून मंत्री ने? सारे कारपोरेट जगत ने ऐसा हल्ला मचाया कि श्रम मंत्री को बयान वापस लेना पड़ गया और उस के लिए अफसोस जाहिर करना पड़ा। एक सीईओ की हत्या हो जाना इतनी गंभीर बात नहीं थी कि उस से किसी को अधिक परेशानी होती। मगर कानून मंत्री का बयान कि मजदूरों-कर्मचारियों की कानूनी सुविधाएँ दी जाएँ। भारी पड़ गया।
हो सकता है कि नोएडा में सीईओ की हत्या में मजदूरों-कर्मचारियों को कानूनी सुविधाएँ न दिये जाने का कोई संदर्भ न हो। लेकिन फिर भी श्रम मंत्री का बयान गलत तो नहीं था। आखिर हो क्या रहा है इन उद्योगों में? यदि आंकड़े एकत्र किए जाएँ तो पता लगेगा कि उद्योगों में नियोजित कुल श्रमबल में उद्योग के कर्मचारियों की संख्या एक चौथाई भी नहीं है। शेष तीन चौथाई से अधिक या तो ठेकेदारों के कर्मचारी हैं या ट्रेनिंग के नाम पर भर्ती किये गए लोग जिन्हें हर छह माह और साल भर में बदल दिया जाता है। और यह केवल इस लिए किया जाता है कि उन्हें एक स्थाई कर्मचारी के मुकाबले तिहाई वेतन पर रखा जा सकता है। स्थाई सुविधाएँ दिए बगैर। स्थाई कर्मचारियों का और इन के कामों में कोई अंतर नहीं। कई स्थानों पर तो एक ही तरह का काम दोनों तरह के कर्मचारी कर रहे हैं। देश में बेरोजगारी का स्तर यह है कि यह सब बर्दाश्त किया जा रहा है।
सीईओ की हत्या के मामले में सवा सौ से अधिक मजदूरों को गिरफ्तार किया गया। रिपोर्ट बताती हैं कि सीईओ को मजदूरों ने इतना मारा कि उस की मौत हो गई। यह अपराध का साधारण मामला नहीं है। यदि यह मान भी लिया जाए कि यह सब बाहरी उकसावे की कार्यवाही थी। तब भी आखिर एक उद्योग के श्रमिकों और सीईओ के बीच ऐसा संबंध क्यों बना? इतनी घृणा क्यों उत्पन्न हो गई कि वे अपने ही अन्न दाता की हत्या जैसा जघन्य अपराध कर गए?
इन प्रश्नों का उत्तर पुलिस नहीं दे सकती। इनका उत्तर तो सरकार को ही देना होगा। वास्तविकता है कि मजदूरों और कर्मचारियों के वेतन, सेवा शर्तों, सेवा समाप्ति, आदि मामलों को सरकार, कानून और अदालत के माध्यम से हल किये जाने पर से मजदूरों का विश्वास उठ रहा है। एक ही अदालत में नौकरी का मामला 25 वर्ष तक निर्णीत न हो, 35 वर्ष के मजदूर 60 के हो जाएँ और अदालतें और सरकारों के श्रम विभाग उन के मामलों के निर्णय करने में अक्षम रहें तो। लोग यह सब देखते हैं। वे अपने फैसले अपने जोर पर करने की कोशिश करते हैं। सरकारों को सोचना ही होगा कि कैसे कानून का पालन कारपोरेट सेक्टर भी कड़ाई से करे। कानून और व्यवस्था केवल पुलिस के भरोसे नहीं स्थापित की जा सकती। त्वरित न्याय और कानून का पालन सरकारों को सुनिश्चित करना ही होगा। अन्यथा आने वाले दिन ठीक नहीं होंगे। उद्योगों में यह होने लगा तो आर्थिक विकास की गति उलटा होना निश्चित है।
“शेष तीन चौथाई से अधिक या तो ठेकेदारों के कर्मचारी हैं या ट्रेनिंग के नाम पर भर्ती किये गए लोग जिन्हें हर छह माह और साल भर में बदल दिया जाता है। और यह केवल इस लिए किया जाता है कि उन्हें एक स्थाई कर्मचारी के मुकाबले तिहाई वेतन पर रखा जा सकता है। स्थाई सुविधाएँ दिए बगैर।”
यह सब मेरे लिये एकदम नई जानकारी है. ताज्जुब है कि आजाद भारत में ऐसा कुछ हो रहा है!!
sir
aap ke blogs pade.bahut achhe lage.
kayi baatein janne ko mili.
thanks
दिनेश जी !
कल अपने एक दोस्त के घर “ब्लाग कोना” अमर उजाला में आपके ब्लाग की चर्चा देखी, बहुत अच्छा लगा ! शुभकामनायें !
तीर स्नेह-विश्वास का चलायें,
नफरत-हिंसा को मार गिराएँ।
हर्ष-उमंग के फूटें पटाखे,
विजयादशमी कुछ इस तरह मनाएँ।
बुराई पर अच्छाई की विजय के पावन-पर्व पर हम सब मिल कर अपने भीतर के रावण को मार गिरायें और विजयादशमी को सार्थक बनाएं।
भय और दवाब दो सबसे बड़े तत्व हैं जो समाज को चलाते हैं .गरीब, मजदूर और किसान जैसे लोगों के पास शायद ये तत्व नहीं हैं . इसलिए उनकी आवाज निष्प्रभावी हो जाती है.आपका ब्लॉग हमेशा सार्थक होता है .
अच्छा विश्लेषण है सर. सही कहा आपने.
कानून व्यवस्था निश्चित रूप से सरकारी मामला है , पर जब वह समाज से जुदा है तो सरकार के साथ हमारे दायित्व स्वयम बन जाते हैं की हम सहयोग करें .
बहुत ठीक कहा आपने !
मेरा भी यही कहना है कि कानून का राज ही सब ठीक कर सकता है। कथित ‘कठोर’ कानूनों की ज़रूरत ही नहीं है।
एक सीइओ की हत्या भी हत्या ही है. जैसे इंदिरा गाँधी की हत्या भी एक हत्या ही तो थी. ये समझ लें की हर हत्या के मामले में पुलिस का एक तरह का रेस्पोंसे मिलेगा बचकानापन है. ठीक उसी तरह जिस तरह एक BMW गाड़ी से किसी धनी व्यक्ति का लड़का एक्सीडेंट कर मीडिया में ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है जब के अनगिनत ट्रक ड्राईवर नशे में कितनो की जान लेकर साफ़ बच जाते हैं.
मानवीय धरातल पर लिखी आपकी यह पोस्ट कानून की आंखें खोल देने वाली है । कोई अविवेकी भी आपसे असहमत नहीं हो सकेगा ।
आप से सहमत हू.
धन्यवाद
जिस दिन देश ओर देश के नागरिक इसे समझने लगेगे कानून का काम ओर आसान हो जायेगा
बहुत सही लिखा आपने । सहमत हूं।
vyavastha ke liye kanoon avashyak hai.aur kanoon ke liye ek vyavastha.dono hi chahiye ek sabhya samaj ko.kintu sabhyata —
आपकी तहरीर से काफ़ी जानकारी मिली…शुक्रिया…
बहुत सही और बेबाक विष्लेशण किया है आपने,हम भी बस सरकारी बयान ही जारी कर सकते हैं ,कि स्थिती तनावपूर्ण, किंतु नियंत्रण मे है।
क़ानून और व्यवस्था पर आपने हमेशा की तरह सटीक लिखा है ! और आप सौ प्रतिशत
सच कह रहे हैं ! धन्यवाद !
कानून और व्यवस्था तो सभी का मसला है सभ्य समाज में। सभी के अधिकार भी हैं और कर्तव्य भी।
किसी को सामुहिक या व्यक्तिगत रूप से किसी की हत्या का अधिकार नहीं है।
बहुत आभार यह सारा कुछ पढ़वाने का.
” लो एंड आर्डर ” एक टीवी शो है जो हम नियमित देखते हैं –
आम जनता के लिए और व्यापार के लिए ये एक महत्वपूर्ण अंग है सुव्यवस्थित जीवन शैली के लिए —
-लावण्या