किसी निरपराध को सजा न हो, लेकिन कोई अपराधी बच के न जाने पाए
|“किसी निरपराध को सजा न हो”, यह मुहावरा कानून के क्षेत्र में बहुत सुनने पढ़ने को मिलता है। बहुत से अपराधी कमजोर साक्ष्य के चलते इस मुहावरे की मदद से छूट जाते हैं। यह मुहावरा एक तरह से अपराधियों की ढाल बन गया है। लेकिन कानून में इस के जवाब में एक मुहावरा और है “कोई अपराधी बच के न जाने पाए”। लेकिन इस मुहावरे का उपयोग बिरले ही होता है। लेकिन एक मुकदमे में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इस मुहावरे का इतना सुंदर उपयोग किया है कि अब देश के सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय और यह मुहावरा अपराधियों के लिए निकट भविष्य में घातक सिद्ध होगा।
वर्ष 2007 की अपराधिक अपील संख्या 1502 नरेन्द्र बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज डाक्टर अरिजित पसायत ने इस निर्णय को लिखा है। इस मामले के तथ्य इस प्रकार हैं कि-
13 व 14 फऱवरी 1994 की रात्रि को श्रीमती मित्रादेवी की मृत्यु उस की ससुराल के शयन कक्ष में हो गई। अन्वेषण के अनुसार पड़ौसियों से समाचार प्राप्त होने पर दूसरे दिन सुबह साढ़े नौ बजे उस के माता-पिता वहाँ आए। उस के पिता ने उस की असामयिक मृत्यु की पुलिस को सूचना दी। उसी दिन धारा 176 दंड प्रक्रिया संहिता की कार्यवाही कार्यपालक मजिस्ट्रेट ने की, तब तक पुलिस ने कुछ नहीं किया। उस के उपरांत मृतका का शव पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया।
15 फरवरी 1994 को शव का परीक्षण किया गया। जिस से पता लगा कि उस की मृत्यु मानव हाथों द्वारा उस की गर्दन में श्वासनली को दबाने से दम घुटने के कारण हुई है। मृतका के माता-पिता, बहनों, और अन्य संबंधियों के बयान लिए गए। माता पिता ने बताया कि मृत्यु के दो दिन पूर्व 12.02.1994 को वे अपनी पुत्री को मिलने आए तब उसे देखा था वे पिछले एक वर्ष में 4-5 बार अपनी पुत्री से मिलने आए थे। वे जब भी आए वह बहुत ही अवसाद में मिली लेकिन वह इस का कारण छुपाती रही। बीच में जब वह अपने मायके गई तो पूछने पर बताया कि उस का अवसाद उस के पति के अनुचित व्यवहार के कारण था। उस का पति उस से बात नहीं करता था, उस की कोई परवाह नहीं करता था और उसे पसंद भी नहीं करता था। वह अक्सर देर से घर आता था और ठीक से बात भी नहीं करता था। 12.02.1994 को उस के माता-पिता उस के विवाह की प्रथम वर्षगांठ अपने यहाँ मनाने के लिए न्यौता देने के लिए आए थे, जिसे उस के पति ने अस्वीकार कर दिया था। उस के बाद 14.2.0994 को सुबह नौ बजे उन्हें उस की मृत्यु की सूचना प्राप्त हुई। उस का पति मृत्यु के उपरांत घर पर नहीं मिला इस कारण से उस की तलाश आरंभ हुई उसे 15.02.1994 को पत्नी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। अन्वेषण के उपरांत उस के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किया गया। अभियुक्त पति ने बताया कि वह दूध लेने के लिए दिनांक 13.02.1994 तो अन्यत्र गया हुआ था और 14.02.1994 को सुबह 10.45 बजे वापस लौटा इस कारण वह निरपराध है। सेशन न्यायालय ने इस मामले में पति को दोषमुक्त कर दिया।
उच्च न्यायालय ने अपील में पाया कि सेशन न्यायालय द्वारा किया गया विश्लेषण गलत था और अभियुक्त धारा 302 और 498(ए) भारतीय दंड संहिता के अपराधों का दोषी है। सेशन कोर्ट ने अभियुक्त और उस के गवाह के बयानों पर विश्वास कर के त्रुटि की है।
सुप्रीम कोर्ट ने
अपने निर्णय में बताया कि इस मामले में बहुत से तथ्यों पर सेशन न्यायालय ने ध्याननहीं दिया। मृतका सुबह ससुराल में मृत पाई गई। पुलिस को उस के माता-पिता ने सूचना दी न कि ससुराल वालों ने। माता-पिता को ससुराल वालों ने उस की मृत्यु की सूचना नहीं दी अपितु पड़ौसियों ने दी। सेशन न्यायालय ने बचाव पक्ष के 70 वर्षीय साक्षी के बयान को सच मान कर भी त्रुटि की जिस का उस उम्र में चौकीदार की नौकरी करना संभव नहीं लगता। सुप्रीम कोर्ट ने त्रिमुख मारोती किर्कन बनाम महाराष्ट्र राज्य के मुकदमें [2006 (10) SCC 681] के निर्णय का उदाहरण दिया जिस में कहा गया था कि जब कोई अपराध घर के अंदर की निजता में घटित अपराधों में अपराधी के पास इस बात का अवसर होता है कि वह योजना बना कर अपने चुनिंदा समय और परिस्थितियों मेंअपराध कारित करे। ऐसे में अभियोजन के लिए यह दुष्कर होता है कि वह परिस्थिति जन्य साक्ष्य के कठोर नियमों की पालना करते हुए अपराध को साबित कर सके जैसा न्यायालय जोर देते हैं। एक न्यायाधीश को एक अपराधिक मुकदमे का विचारण करते समय केवल यही नहीं देखना चाहिए कि किसी निरपराध को सजा न हो, उसे यह भी देखना चाहिए कि कोई अपराधी बच के भाग न निकले। दोनों ही जजों के कर्तव्य हैं। अभियोजन पक्ष से ऐसे सबूत पेश करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है जो कभी पेश ही न किए जा सकें। अभियोजन का कर्तव्य वही सबूत पेश करने का है जो वह पेश करने में समर्थ हो। धारा 106 साक्ष्य अधिनियम को भी ध्यान में रखना चाहिए जो यह कहती है कि जो तथ्य जिस व्यक्ति के ज्ञान में हो उसे साबित करने का भार उसी पर होता है। इस धारा का उदाहरण (ब) यह कहता है कि एक व्यक्ति जो ट्रेन में यात्रा कर रहा है उस पर यह दायित्व है कि वह साबित करे कि उस के पास टिकट है।
इतना कहते हुए सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय हस्तक्षेप करने योग्य नहीं है।
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हमारी भी ओपीनियन बदली!!
वर्ना हम तो बावरे बन यही सोचते थे कि इसी चक्कर में ही असली अपराधी छूटते रहे होंगे!!
अच्छा लगा इस तरह से यह जानकारी प्राप्त करना. ज्ञान जी का भ्रम भी कुछ टूटा. 🙂
दोनों मुहावरे बराबर ही महत्वपूर्ण है !
वाह, हम समझते थे कि इस कानून को चकमा देना अपेक्षतया आसान है। हमारा ओपीनियन बदल गया।
ऐसे कई केस कानून के अनजाने पहलूँओँ को उजागर करते हैँ आपका यह जाल घर इसी कारण से विशिष्ट है
– लावण्या
जानकारी मे और बढोतरी हुई, ये अक्सर जानने लायक बाते हैं जो हम आपके ब्लाग पर आकर अनायास ही अपनी जानकारी मे बढोतरी कर लेते हैं. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
jaankaari mili….
dhanyawaad
बहुत ज्ञानवर्धक ज्ञान .
Dilchsp !