कृत्रिम अपराध देश की अपराध नियंत्रण प्रणाली को जर्जर कर रहा है
|यह बात आप को अजीब ही लगेगी कि सरकार आर्थिक व्यवहार में काम आने वाले एक प्रकार के विलेख के व्यवहार की संस्कृति को विकसित करने और उसे आम प्रचलन में लाने के लिए एक दांडिक कानून बनाए और उस दांडिक कानून से नए प्रकार के अपराध अस्तित्व में आने के बीस वर्ष पूरे होते होते देश के राजधानी राज्य में काम करने वाली मजिस्ट्रेट अदालतों में लंबित मुकदमों की कुल संख्या के 55% से अधिक इसी अपराध से संबंधित हों।
नवम्बर 2008 में प्राप्त आंकड़े कहते हैं कि दिल्ली की अपराधिक मुकदमों का विचारण करने वाली मजिस्ट्रेट स्तर की अदालतों में कुल जितने अपराधिक मुकदमें हैं उन में 55% केवल चैक अनादरण से संबंधित हैं। इन अदालतों का सारा कार्य इन मुकदमों ने धीमा कर दिया है। चैक अनादरण के मुकदमे पुलिस द्वारा पेश में आरोप पत्र पर आरंभ नहीं होते, अपितु किसी चैक धारक द्वारा प्रस्तुत शिकायत पर आरंभ होते हैं। यह आश्चर्यजनक ही है कि व्यक्तिगत शिकायत के आधार पर आरंभ होने वाले मुकदमों ने प्रारंभिक क्षेत्राधिकार की अपराधिक अदालतों के कामकाज की गति को बाधित कर दिया है।
1988 तक भारतीय कानून की पुस्तकों में इस तरह का कोई कानून नहीं था कि चैक अनादरित हो जाने पर किसी प्रकार की सजा होती हो। 1988 में संसद ने परक्राम्य विलेख अधिनियम, 1881 में एक नया अध्याय जोड़ा। अधिनियम में इस अध्याय को जोड़े जाने के उद्देश्यों और कारणों के बारे में कहा गया था कि चैक जैसे महत्वपूर्ण विलेख के उपयोग की संस्कृति को विकसित करने और आम बनाने के लिए इस अध्याय को जोड़ा जा रहा है।
यह भी अत्यन्त विस्मय की बात है, कि आर्थिक व्यवहार में एक विशेष प्रकार के विलेख के उपयोग की संस्कृति को आम बनाने के लिए किसी दंड विधि का उपयोग किया गया हो। दंड किसी अपराध को रोकने का साधन हो सकता है लेकिन आर्थिक व्यवहार में किसी पद्धति को विकसित करने के लिए दंड का प्रावधान करना किसी शीर्षासन कर रही खोपड़ी का ही काम हो सकता है।
उस उलट खोपड़ी के उत्पादन का नतीजा सामने आ रहा है। इस कानून ने एक नए प्रकार के अपराध को जन्म दिया और वह अपराध इतना बढ़ गया कि उस ने अपराधिक अदालतों के काम काज के आधे से अधिक भाग पर अपना कब्जा जमा लिया है। इस से देश भर में हो रहे वास्तविक अपराधों के मुकदमों के विचारण की प्रक्रिया ही बाधित हो गई है। अपराधियों की पौ-बारह हो गई है। उन्हें पता है कि अदालतों को इतनी फुरसत ही नहीं कि वे उन्हें सजा दे पाएँ।
इस कानून के कारण देश की अपराध नियंत्रण प्रणाली तो प्रभावित हुई ही है। अदालतों से संबद्ध कर्मचारियों में अनुचित धन के लेन देन में भी बहुत वृद्धि हुई है। (जारी)
बाजारीकरण के इस दौर में आर्थिक अपराध भी बढ़ रहे है. चैक बाउंस भी उन्हीं में से एक है.
कानून न मानने वाले इस देश में कोई नया कानून बनाना गलत ही सिद्ध होता है।
घुघूती बासूती
कहीं ऐसा तो नहीं की कुछ चेकों पर जीतनी रकम होती है उससे ज्यादा खर्च उसे वसूलने में लग जाता है? कुछ लोग बता रहे थे कि अगर कम पैसे का चेक हो तो कंपनिया कुछ कार्यवाही नहीं करती.
बहुत ही ज्यादा गडबड है जी , हर तरफ़ हर कोई ना कोई किसी ना किसी रुप मे लूटना चाहता है ? लेकिन क्यो, क्यो लोग इतना गिरते जा रहे है, यह सब काम इमानदारी से करे तो कितना अच्छा हो.
धन्यवाद इस एक अच्छी जानकारी के लिये, मेरे जेसे के लिये तो बहुत जरुरी है.
मुझे लगता है कि इन प्रकरणों लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, दीवानी मुकदमों की तरह ही ये चलते और चलाए जाते होंगे। इसी कारण, ‘तारीख बढाने’ को हथियार की तरह प्रयुक्त कर, मुकदमे लम्बित किए जा रहे होंगे।
चेक बाउन्सिन्ग के मामले कोर्ट कम्प्यूटर प्रासेसिंग के जरीये निपटान या मानीटर क्यों नहीं करता। बहुत कुछ उसस तरह जैसे हम विभागीय तौर पर कोचिंग या माल भाड़ा रिफण्ड के मामले टेकल करते हैं।
अदालत को काम करने का तरीका बदलना चाहिये।
bahut hi sahi kaha hai aapne…
दिनेश राय जी, आपका सहयोग चाहूँगा कि मेरे नये ब्लाग के बारे में आपके मित्र भी जाने,
ब्लागिंग या अंतरजाल तकनीक से सम्बंधित कोई प्रश्न है अवश्य अवगत करायें
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue