चिकित्सकों की अपराधिक लापरवाही
|किसी साधारण परेशानी के लिए किसी रोगी को अस्पताल में भर्ती कराया जाता है और कुछ घंटों या दिनों के उपरांत उस की मृत्यु हो जाती है। यह सब आकस्मिक रूप से होता है। इस तरह की मृत्यु को संबंधी नहीं पचा पाते और चिकित्सकों के विरुद्ध अराधिक कार्यवाही करने के लिए पुलिस में शिकायत करते हैं और पुलिस के द्वारा कोई कार्यवाही नहीं करने पर आंदोलन भी करते हैं। कभी ऐसा भी होता है कि पुलिस दबाव के आगे झुक जाती है और चिकित्सकों के विरुद्ध कार्यवाही करती है और अभियोजन भी प्रस्तुत करती है। ऐसे मामलों में जब तक किसी अन्य सक्षम चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य उपलब्ध न हो कि अभियुक्त चिकित्सक द्वारा गफलत व लापरवाही बरती गई है अभियोजन नहीं किया जा सकता।
ऐसा ही एक मामला जैकब मैथ्यू (डाक्टर) बनाम पंजाब राज्य (2005 AIR 3180 SC) सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट किया कि, यह देखा गया है कि चिकित्सकों (सर्जनों और फिजिशियनों) के विरुद्ध दर्ज होने वाले अपराधिक मुकदमों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। कभी कभी वे व्यक्तियों द्वारा सीधे अदालत में पेश किए जाते हैं और कभी पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर के द्वारा आते हैं। अन्वेषण अधिकारी और शिकायत करने वाले व्यक्ति का ज्ञान चिकित्सकीय ज्ञान सदैव ऐसा नहीं हो सकता कि वह यह तय कर सके कि चिकित्सक का कृत्य चिकित्सा व्यवसाय की दृष्टि से अपराधिक लापरवाही का रहा है। एक बार उन के विरुद्ध अभियोजन आरंभ हो जाने पर उन्हें जमानत के लिए छिपना पड़ता है जो स्वीकार भी हो सकती है और अस्वीकार भी। हो सकता है उन्हें सजा हो लेकिन यह भी कि उन्हें बरी कर दिया जाए। ऐसी अवस्था में कोई भी गलती न होने पर भी उन्हें बहुत अधिक परेशानी और मानसिक, शारीरिक व आर्थिक हानि उठानी पड़ती है जिस की क्षतिपूर्ति किसी भी स्थिति में नहीं की जा सकती।
निर्णय में आगे सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम यह नहीं कहते कि चिकित्सक लापरवाही नहीं करते और उन के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह भी होता है कि अक्सर लोग उन से पैसा वसूल करने के लिए ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं। इस कारण चिकित्सकों को मिथ्या अभियोजनों से बचाने के लिए वैधानिक नियमों या राजकीय निर्देशों की आवश्यकता है। इस मामले में स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि अदालतों को एक निजि शिकायत तब तक स्वीकार नहीं करनी चाहिए जब तक कि किसी अन्य सक्षम चिकित्सक की गवाही इस विषय में उपलब्ध न करा दी जाए कि अभियुक्त चिकित्सक ने गफलत पूर्ण लापरवाही का कृत्य किया है। इसी तरह अन्वेषण अधिकारी भी इस बात का ध्यान रखें कि संबंधित शाखा के किसी सरकारी चिकित्सक की यह राय अवश्य प्राप्त कर लें कि अभियुक्त का कृत्य गफलत पूर्ण लापरवाही का रहा है।
अन्वेषण अधिकारी और शिकायत करने वाले व्यक्ति का ज्ञान चिकित्सकीय ज्ञान सदैव ऐसा नहीं हो सकता कि वह यह तय कर सके कि चिकित्सक का कृत्य चिकित्सा व्यवसाय की दृष्टि से अपराधिक लापरवाही का रहा है। एक बार उन के विरुद्ध अभियोजन आरंभ हो जाने पर उन्हें जमानत के लिए छिपना पड़ता है जो स्वीकार भी हो सकती है और अस्वीकार भी। हो सकता है उन्हें सजा हो लेकिन यह भी कि उन्हें बरी कर दिया जाए। ऐसी अवस्था में कोई भी गलती न होने पर भी उन्हें बहुत अधिक परेशानी और मानसिक, शारीरिक व आर्थिक हानि उठानी पड़ती है जिस की क्षतिपूर्ति किसी भी स्थिति में नहीं की जा सकती।
आपने वाकई चिकित्सकों की पीडा जताही है… लेकिन कई बार वाकई लापरवाही होती है. यहाँ भी वाही परिस्थियाँ लागु हो रही हैं, जो दहेज़ उत्पीडन के मामलों में होती है… ससुराल वालों को परेशां करने के लिए कई मुकदमे झूठे होते हैं…
इसे कहते हैं : समरथ को नहिं दोस गोसाईं.
गोसाईं जी बहुत पहिलहीं कहि गए हैं रमायन में, माननीय न्यायालय जी ने तो बस उसी की पुष्टि भर करी है.
Waise aajkal laaparwahi bhi hone lagi hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
अच्छी जानकारी दी है । यह एक विचार पूर्ण मुद्दा है जिस पर बहुत जल्दी निर्णय करना गलत होगा ।
अच्छी जानकारी भरा आलेख। इलाहाबाद में आजकल यही मुद्दा छाया हुआ है।
समीर भाई से सहमत हूं दादा…
दोनों ही तरफ से संभावनायें हैं-कभी पैसा वसूली उद्देश्य हो सकता है तो कभी वाकई गैर जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार डॉक्टर का.