चिकित्सकों को अपराध कर बच जाने से सुरक्षा नहीं मिल गई है।
|पिछले आलेख में कहा गया था ……
……अब यह कहा जा रहा है कि किसी चिकित्सक के विरुद्ध चिकित्सकीय साक्ष्य जुटाया ही नहीं जा सकता। क्यों कि कोई चिकित्सक किसी चिकित्सक के विरुद्ध गवाही देने को तैयार नहीं होता। इस तरह तो अपराधी चिकित्सकों के विरुद्ध कार्यवाही किया जाना असंभव है और इस निर्णय ने लापरवाही करने वाले अपराधी चिकित्सकों को अभयदान दे दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है। इस पर हम आगे बात करेंगे। ……
सुप्रीम कोर्ट ने जैकब मैथ्यू (डाक्टर) बनाम पंजाब राज्य (2005 AIR 3180 SC) के प्रकरण में कहा था कि “एक निजि शिकायत तब तक अदालत द्वारा स्वीकार नहीं की जानी चाहिए जब तक कि शिकायत के समर्थन में किसी चिकित्सक के विरुद्ध जब तक उस के जल्दबाजी और लापरवाही के कृत्य की किसी अन्य सक्षम चिकित्सक की प्रथम दृष्टया विश्वास योग्य साक्ष्य नहीं प्राप्त हो जाती है। एक अन्वेषण अधिकारी को पहले ऐसी ही कोई साक्ष्य प्राप्त न करना चाहिए। किसी चिकित्सक को मात्र इस आधार पर गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए कि उस के विरुद्ध आरोप लगाया गया है जब तक कि यह पक्का न हो जाए कि चिकित्सक की गिरफ्तारी साक्ष्य जुटाने के लिए अतिआवश्यक हो गई है या कि अन्वेषण अधिकारी यह महसूस करे कि अभियोजन का सामना करने के लिए चिकित्सक उपलब्ध ही नहीं होगा।
हम इस उद्धरण से समझ सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से पूरी तरह से चिकित्सकों को सुरक्षा प्राप्त नहीं हो गई है। यह सुरक्षा तब तक के लिए ही उन्हें मिली है जब तक कि उन के विरुद्ध प्रथम दृष्टया चिकित्सकीय साक्ष्य नहीं जुटा ली गई है।
चिकित्सकों द्वारा जब भी कोई अपराधिक जल्दबाजी और लापरवाही का कृत्य किया जाता है तो इस कृत्य का शिकार होने वाले रोगी को अक्सर ही दूसरे चिकित्सकों को तुरंत दिखाया जाता है और उन से चिकित्सा कराई जाती है। रोगी की मृत्यु हो जाने की स्थिति में पोस्टमार्टम किया जाता है जो दूसरे चिकित्सक करते हैं। दूसरे चिकित्सकों द्वारा की गई चिकित्सा के प्रलेख, उन की सलाह पर कराई गई जाँचों के रेकॉर्ड व पोस्ट मार्टम रिपोर्ट ऐसे दस्तावेज हैं जिन्हें बदलना संभव नहीं है। ये दस्तावेज न्यायालय के सामने लाए जाने और संबंधित चिकित्सक का बयान कराने पर चिकित्सकों की जल्दबाजी और लापरवाही के प्रथम दृष्टया साक्ष्य प्रस्तुत की जा सकती है। यदि चिकित्सक बयान देने के लिए अदालत आने से इन्कार करे तो उस के लिए अदालत की सहायता प्राप्त की जा सकती है। कोई भी चिकित्सक स्वयं अपने द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों के विरुद्ध मिथ्या साक्ष्य नहीं दे सकता। इस के लिए यह भी आवश्यक है कि किसी अच्छे और परिश्रमी वकील की मदद प्राप्त की जाए। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से चिकित्सकों को पूर्ण सुरक्षा मिल गई हो और वे अपराध कर के भी बचने की स्थिति में आ चुके हों।
आगे हम बात करेंगे चिकित्सकीय जल्दबाजी ओर लापरवाही से उत्पन्न होने वाले दीवानी, दुष्कृत्य विधि और उपभोक्ता दायित्वों के बारे में बात करेंगे ।
ज्ञान दत जी से पूरी तरह सहमत !
भारत के महान संविधान और कानून की मोटी मोटी पुस्तकों के सहारे ही हमारा देश चलता आ रहा है . वे सशक्त हैं इन विषयों से निपटने में, गलती बोलकर क्षमा तो किसी को नहीं करना चाहिए, क्योंकि कोई ये दलील तो नहीं दे सकता के मुझे कानून नहीं मालूम था इसलिए ऐसा हो गया .
इस में एक बात और मुझे लगती है के भारत का कानून सदइक्षा पर आधारित है , जहाँ फरियादी पक्ष जब तक सद इक्षा रखता है तब तक ही कानून उस की मदद कर सकता है .
इस पर एक बेन किंग्सले अभिनीत फिल्म the confession(1999) अच्छी सन्दर्भ है
लम्बी कमेन्ट के लिए क्षमा करें .
सधन्यवाद
मयूर
जल्द ही कहीं न कहीं जिम्मेदारी कबूलनी ही होगी!!हमेशा बच के निकल जाना संभव नहीं..एक लापरवाही तो खैर भूल की श्रेणी में क्षम्य है.
किसी को अपराध कर बच जाने की सुरक्षा संविधान और न्याय व्यवस्था नहीं देती। पर देश में मास बिहेवियर और सामुहिक ताण्डव बच कर निकलता रहा है – चाहे वह वकीलों का हो, मजदूर यूनियनों का या चिकित्सा कर्मियों का।
इतनी शुभ न्यायव्यवस्था के चलते माफिया पनपना भी न्याय व्यवस्था के प्रति आम जन की श्रद्धा नहीं ले पाता। यह मात्र न्यायधीशों की कमी और न्याय व्यवस्था के अपर्याप्त अमले मात्र का मामला नहीं है। सिस्टम में स्टिंक का लॉजिकल शेयर न्यायव्यवस्था के पाले में जाता है!