जनता का गुस्सा सब से भयंकर होता है
|कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने न्यायपालिका को नसीहत दी थी कि न्यायाधीशों को सरकार पर अनावश्यक टिप्पणियाँ नहीं करनी चाहिए। यह अवसर राष्ट्रमंडल विधि सम्मेलन का था, और ऐसे मौके पर किसी देश क प्रधानमंत्री को अपने ही देश के मुख्य न्यायाधीश की उपस्थिति में ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिए थी। लेकिन उन्हों ने फिर भी कहा। इस से लगता है कि हमारी सरकारों और न्यायपालिका के बीच की दूरी बहुत अधिक बढ़ गई है। बढ़े भी क्यों न, जब चीखती हुई न्यायपालिका के आर्तनाद को सरकार, संसद, विधानसभाएँ लगातार वर्षों से अनसुना कर रही हों। हालाँकि उसी अवसर पर मुख्य न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री की ही उपस्थिति में यह भी कहा कि जनता को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि सरकार उन्हें खाने को देगी। इस वक्तव्य को यदि सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश की पृष्ठभूमि में देखा जाए जिस में यह कहा गया था कि यदि अनाज सड़ रहा है, सरकार उसे सड़ने से नहीं रोक सकती तो गरीब जनता को मुफ्तबाँट दे। सरकार ने इस आदेश को मानने से साफ इन्कार कर दिया था।
लेकिन न तो प्रधानमंत्री के वक्तव्य का कोई असर न्यायपालिका पर हुआ और न ही सरकारों के कानों तक न्यायपालिका का आर्तनाद पहुँच रहा है। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय की सब से महत्वपूर्ण टिप्पणी आ गई। इस बार न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी और न्यायमूर्ति ए.के. गांगुली की खंडपीठ ने अमरसिंह के फोन टेपिंग मामले की सुनवाई के दौरान कहा है कि “कोई भी सरकार मज़बूत न्यायपालिका नहीं चाहती है। न्यायपालिका को बजट का एक प्रतिशत से भी कम आबंटित किया जाता है। न्यायपालिका आधारभूत समस्याओं से जूझ रही है और उसके पास काफ़ी कम न्यायाधीश और कर्मचारी हैं। जल्दी से जल्दी मामलों का निपटारा करने के लिए देश में अदालतों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है। मेरी राय में ही नहीं, देश भर के विद्वानों की राय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई यह टिप्पणी अब तक की कठोरतम है।
निश्चित रूप से सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी तब आई है जब पानी सर के ऊपर से गुजर चुका है। देश भर में जरूरत की केवल बीस प्रतिशत अदालतें हैं, और अदालतों में हालत यह है कि आज यदि कोई न्याय के लिए अदालत में गुहार लगाता है तो न्यायालय से अंतिम फैसला आने और उस के निष्पादित होने के बीच एक-दो पीढ़ियाँ अवश्य गुजर जाती हैं। हालात वाकई बद से बदतर हैं। यदि अब भी केन्द्र और राज्य सरकारें नहीं चेतीं और अदालतों की संख्या में तेजी से वृद्धि नहीं की गई तो ये हालात जनता के गुस्से में तेजी से वृद्धि करेंगे। जनता के गुस्से के बारे में महर्षि चाणक्य ने कहा है –
प्रकृतिकोप: सर्वकोपेभ्यो गरीयान्।
अर्थात् प्रजा का कोप सभी कोपों से भयंकर होता है।
जनता ही किसी देश की सबसे बडी शक्ति होती है, अत: सरकार को चाहिए कि वह जनता को सदा सुखी रखे। यदि सरकार उसे दु:खी रखेगी तो वह (जनता) सरकार के खिलाफ बगावत कर देगी। तब सरकार को कोई भी नहीं बचा सकेगा। इसीलिए कहा गया है कि जनता का गुस्सा सबसे भयंकर होता है।
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6 Comments
प्रजा का कोप सभी कोपों से भयंकर होता है..
सही कह रहे हैं.
उड़न तश्तरी, राज भाटिय़ा, ताऊ रामपुरिया और सुशील बाकलीवाल के विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ. अब स्वार्थी जनता को गुस्सा आना ख्याबों की बात है. मेरे विचार से आज समय की मांग है कि-अब जनक्रांति का समय आ चूका है.
वर्षों से सुनते आ रहे हैं-
जिन्दा कौमें 5 साल तक इन्तजार नहीं करतीं ।
अनेकों वर्ष तो गुजर गये. तो फिर क्या हैं हम ?
ये गुस्सा क्या होता है? हमको नही मालूम जी.
रामराम.
लेकिन भारतिया जनता को कभी गुस्सा नही आ सकता,चाहे भुखे ही मरे, चाहे इन की बहुं बेटियो की इज्जत लुटती रहे, क्योकि गुस्सा भी उन्ही लोगो को आता हे जिन मे एकता होती हे, ओर हम बंटे हुये हे, जब तक हमे कोई बांधने वाला नही मिलता तब तक हम सब पीसते रहेगे
जनता को गुस्सा कब आयेगा? अब तो संशय होने लगा है कि गुस्सा आता भी है या सिर्फ पुराणों में लिखा है.