दहेज और काम करने की जगह पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ – महिला सशक्तिकरण
|गतांक से आगे …
दहेज (Dowry) संबन्धित कानून
दहेज बुरी प्रथा है। इसको रोकने के लिये दहेज प्रतिषेध अधिनियम १९६१ बनाया गया है पर यह कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। इसकी कमियों को दूर करने के लिये फौजदारी (दूसरा संशोधन) अधिनियम १९८६ के द्वारा, मुख्य तौर से निम्नलिखित संशोधन किये गये हैं:
- भारतीय दण्ड संहिता में धारा ४९८-क,
- साक्ष्य अधिनियम में धारा ११३-क, यह धारा कुछ परिस्थितियां दहेज मृत्यु के बारे में संभावनायें पैदा करती हैं;
- दहेज प्रतिषेध अधिनियम को भी संशोधित कर मजबूत किया गया है।
पर क्या केवल कानून बदलने से दहेज की बुराई समाप्त हो सकती है। – शायद नहीं। यह तो तभी समाप्त होगी जब हम दहेज मांगने, या देने या लेने से मना करें। उच्चतम न्यायालय ने भी १९९३ में, कुण्डला बाला सुब्रमण्यम प्रति आंध्र प्रदेश राज्य में कुछ सुझाव दिये हैं। न्यायालय ने कहा,
Laws are not enough to combat the evil. A wider social movement of educating women of their rights, to conquer the menace, is….needed more particularly in rural areas where women are still largely uneducated and less aware of their rights and fall an easy prey to their exploitation…..
It is expected that the courts would deal with such cases in a more realistic manner and not allow the criminals to escape on account of procedural technicalities or insignificant lacunae in the evidence as otherwise the criminals would receive encouragement and the victims of crime would be totally discouraged by the crime going unpunished. The courts are expected to be sensitive in cases involving crime against women. The verdict of acquittal made by the trail court in this case is an apt illustration of the lack of sensitivity on the part of the trial court.’
दहेज की बुराई केवल कानून से दूर नहीं की जा सकती है। इस बुराई पर जीत पाने के लिये सामाजिक आंदोलन की जरूरत है। खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में, जहां महिलायें अनपढ़ हैं और अपने अधिकारों को नहीं जानती हैं। वे आसानी से इसके शोषण की शिकार बन जाती हैं।. . . .
न्यायालयों को इस तरह के मुकदमे तय करते समय व्यावहारिक तरीका अपनाना चाहिये ताकि अपराधी, प्रक्रिया संबन्धी कानूनी बारीकियों के कारण या फिर गवाही में छोटी -मोटी, कमी के कारण न छूट पाये। जब अपराधी छूट जाते हैं तो वे प्रोत्साहित होते हैं और आहत महिलायें हतोत्साहित। महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे तय करते समय न्यायालयों को संवेदनशील होना चाहिये।
इस मुकदमे में परीक्षण न्यायालय ने दोषी को छोड़ दिया था। यह दर्शाता है कि न्यायालय संवेदनशील नहीं हैं।
उच्चतम न्यायालय का कथन अपनी जगह सही है पर मेरे विचार से दहेज की बुराई तभी दूर हो सकती है जब,
- महिलायें शिक्षित हों;
- और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों।
इसके लिये, समाज में एक मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है जिसमें महिलाओं को केवल यौन या मनोरंजन की वस्तु न समझा जाय- न ही बच्चा पैदा करने की वस्तु।
काम करने की जगह पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़: Sexual harassment at working place
काम करने की जगह पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ उससे कहीं अधिक है जितना कि हम और आप समझते हैं। यह बात, शायद काम करने वाली महिलायें या वे परिवार जहां कि महिलायें घर के बाहर काम करती हैं ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। इस बारे में संसद के द्वारा बनाया गया कोई कानून नहीं है पर १९९७ में Vishakha Vs. State of Rajasthan (विशाखा केस) में प्रतिपादित या फिर कहें कि बनाया गया है।
यह निर्णय, न केवल महत्वपूर्ण है, पर अनूठा भी है।
उन्मुक्त जी का यह लेख महिलाओं की अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई के बारे में है। इसमें महिला अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा है। प्रस्तुत है इस की सातवीं कड़ी … |
संसद का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका का काम उस पर अमल करना है; और न्यायालय का काम कानून की व्याख्या करना है। प्रसिद्घ न्यायविद फ्रांसिस बेकन ने कहा कि, न्यायाधीश का काम,
‘To interpret law and not to make law’ न्याय की व्याख्या करना है न कि कानून बनाना।
न्यायविद हमेशा से इसी पर जोर देते चले आ रहे हैं। हालांकि २०वीं शताब्दी में ब्रिटेन के न्यायाधीश जॉन रीड ने कहा,
‘We do not believe in fairy tales any more.’ हम अब इस तरह की परी कथाओं में विश्वास नहीं करते हैं।
विशाखा केस में न्यायायलय ने यौन उत्पीड़न (Sexual harassment) को परिभाषित किया और वे सिद्धान्त बनाये जो काम किये जाने की जगह पर अपनाये जाने चाहिये। यह काम संसद का है न कि न्यायपालिका का नहीं फिर भी न्यायालय ने ऐसा किया। यह अपने देश का पहला केस है जिसमें न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कानून बनाया। न्यायालय के शब्दों में,
‘The guidelines and norms [regarding sexual harassment at working place] would be strictly observed in all workplaces for the preservation and enforcement of the right to gender equality of the working women. These directions would be binding and enforceable in law until suitable legislation is enacted to occupy the field.’ यह सिद्धान्त तब तक लागू रहेंगे जब तक न्यायालय इस बारे में कोई कानून न बनाये।
विशाखा केस के सिद्धान्तों को १९९९ में Apparel Export promotion Council Vs. A.K.Chopra (चोपड़ा केस) में लागू किया गया। इस केस में चोपड़ा की सेवायें, विभागीय कार्यवाही में, इसलिये समाप्त कर दी गयी क्योंकि उसने काम की जगह पर, एक कनिष्क महिला कर्मचारी के साथ छेड़छाड़ की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चोपड़ा की याचिका स्वीकार करते हुये उसे वापस सेवा में ले लिया परन्तु जितने समय तक उसने काम नहीं किया था, उसका वेतन नहीं दिलवाया।
उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय के विरूद्ध अपील को स्वीकार कर, चोपड़ा की सेवायें समाप्त करने के विभागीय आदेश को बहाल कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि,
‘That sexual harassment at the place of work, results in violation of the fundamental right to gender equality and the right to life and liberty.. the two most precious fundamental rights guaranteed by the Constitution of India.’…
काम करने की जगह, यौन उत्पीड़न का होना लैंगिक समानता, स्वतंत्रता एवं जीने के मौलिक अधिकारों का हनन है। यह अधिकार, हमारे संविधान के दो बहुमूल्य अधिकार हैं।
उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय को फटकार लगाते हुये कहा,
‘The observations made by the High Court to the effect that since the respondent did not “actually molest” Miss X but only “tried to molest” her and, therefore, his removal from service was not warranted, rebel against realism and lose their sanctity and credibility….The High Court overlooked the ground realities and ignored the fact that the conduct of the respondent against hhis junior female employee, Miss X, was wholly against moral sanctions, decency and was offensive to her modesty. Reduction of punishment in a case like this….is a retrograde step.’
उच्च न्यायालय ने कहा है कि विपक्ष पक्ष [चोपड़ा] ने सुश्री ‘क’ के साथ छेड़छाड़ नहीं की थी पर केवल इसका प्रयत्न किया था इसलिये उसे सेवा से हटाया जाना ठीक नहीं था। उनकी यह टिप्पणी वास्तविकता के खिलाफ है। विपक्ष पक्ष का अपनी कनिष्ठ महिला कर्मचारी के साथ का बर्ताव किसी तरह से क्षम्य नहीं था इस तरह के मामले में सजा कम करना पीछे जाने का कदम है। उच्च न्यायालय ने मामले को गलत तरीके से देखा है।
-उन्मुक्त
(क्रमशः)