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न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट और लोक सेवकों द्वारा पदीय कर्तव्यों के दौरान किए जाने वाले अपराधिक कर्तव्य क्यों बढ़ रहे हैं?

तीसरा खंबा की पोस्ट न्यायाधीशों और लोक सेवकों का किसी अपराध के लिए अभियोजन में मैं ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 का उल्लेख किया था। इस धारा में यह उपबंध किया गया है कि किसी भी न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक जिसे सरकार द्वारा या उस की मंजूरी से ही उस के पद से हटाया जा सकता है, उस के लिए यह कहा गया हो कि वह यह अपराध कृत्य अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य करते हुए किया है तब उस अपराधिक कृत्य के लिए दंड न्यायालय द्वारा तभी प्रसंज्ञान लिया जा सकता है जब कि केन्द्र या राज्य सरकार से जिस से भी उस का संबंध हो अभियोजन की पूर्व स्वीकृति उस के समक्ष प्रस्तुत कर दी गई हो। 
स तरह हम देखते हैं कि राज्य या केंद्र सरकार के कर्मचारी जो लोक सेवक हैं, तथा मजिस्ट्रेट व न्यायाधीशों के लिए यह उपबंध एक रक्षाकवच की तरह काम करता है। बिना उचित सरकार की पूर्व स्वीकृति लिए उस के विरुद्ध उस के पदीय कर्तव्य के निर्वहन के दौरान किए गए किसी अपराध के लिए अभियोजन नहीं चलाया जा सकता। यदि कोई आहत व्यक्ति ऐसे अपराध के लिए किसी के विरुद्ध ऐसा अभियोजन चलाना चाहता है तो उसे राज्य या केंद्र सरकार के समक्ष तमाम सबूतों सहित शिकायत प्रस्तुत करनी होगी। सरकार यदि उचित समझती है कि यह शिकायत ऐसी है जिस में अभियोजन के लिए अनुमति देनी चाहिए तो वह अनुमति देगी, अन्यथा नहीं देगी। इस तरह एक साधारण आहत व्यक्ति के लिए यह दुष्कर ही है कि वह किसी मामले में अभियोजन की अनुमति प्राप्त कर सके। सरकारें भी सामान्यतः तभी ऐसे अभियोजन की अनुमति देती है जब कि मामला बहुत गंभीर हो गया हो और स्वयं सरकार के लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न बन गया हो। ऐसी अनुमति प्राप्त होना दुष्कर होने से सामान्यतः न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट और लोक सेवक अपराध कर के भी बचे रह जाते हैं। 
ह धारा और सरकार द्वारा अभियोजन की अनुमति प्राप्त करने की जटिल प्रक्रिया के कारण ही अपनी पदीय कर्तव्य के दौरान अपराधिक कृत्य करने वाले न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट और लोक सेवकों को बचाती है। इस से पदीय कर्तव्यों के दौरान अपराधिक कृत्य किए जाने की संख्या लगातार बढ़ रही है। इस कानून में ऐसा परिवर्तन किया जाना निहायत आवश्यक है जिस से कोई भी अपराधी दंड से बचा न रह सके।

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