न्याय प्रणाली को जरूरत की आधी ऑक्सीजन भी नसीब नहीं
|तीसरा खंबा की पिछला आलेख मुकदमों के अंबार में न्याय प्रणाली का दम घुट जाएगा एक समाचार था, जिसे सभी समाचार माध्यमों में बहुत स्थान मिला। लेकिन फर्क यह था कि सब ने ब्रिटिश कानूनी फर्मों के भारत में अपना काम प्रारंभ करने को प्रमुखता दी, जब कि भारत के मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति अरिजित पसायत की चिन्ताएँ गौण कर दी गई। जब कि वास्तविकता को वे लोग समझ रहे हैं जो इस से वाकिफ हैं। इस आलेख पर नारदमुनि, Gyan Dutt Pandey, ताऊ रामपुरिया, बवाल, सतीश सक्सेना, अजित वडनेरकर और प्रवीण त्रिवेदी…प्राइमरी का मास्टर की टिप्पणियाँ थीं। सब में एक ही सवाल नजर आ रहा था कि कैसे भारत की न्याय व्यवस्था सुधरे? भाई अजित वडनेरकर ने तो अपना क्रोध अवकाशों न्यायालयों में समय पर काम न होने पर निकाला। उन का क्रोध वाजिब है, खेद की बात तो यह है कि वह गलत स्थान पर निकल गया। इस में उन का दोष नहीं है, आखिर जो दिखेगा वही तो कहा, लिखा जाएगा। जब कि वास्तविकता कुछ और है।
मैं आगामी कुछ आलेखों में न्यायालयों, न्यायाधीशों की कार्यप्रणाली और उन के काम की वास्तविकता के बारे में विस्तार से लिखूंगा। जिन में उच्चतम न्यायालय से लेकर निचली अदालतों के विवरण होंगे। वास्तविकता जो है उस की पीड़ा को न्यायमूर्ति अरिजित पसायत के बयान में महसूस किया जा सकता है। वे कह रहे थे कि न्यायाधीश उन की क्षमता से बहुत अधिक काम कर रहे हैं और काम को निपटाने की आपाधापी में यह न हो कि न्याय न्याय ही न रह जाए, उस की गुणवत्ता जो आज भी भारत में बहुत अच्छी है वह समाप्त होने लगे। गुणवत्ता ही हमारी न्याय प्रणाली का वह आभूषण है जो अब दिखाने लायक रह गया है। जल्दी और अधिक मुकदमों में निर्णय करने की आपाधापी के कारण काम जिस बेतरतीब तरीके से होने लगा है। उस से गुणवत्ता कायम रख पाना कुछ ही समय में असंभव हो सकता है, उस ने प्रभावित करना तो आरंभ कर दिया है। उदाहरण के रूप में मैं अपनी पिछले दिनों की कुछ बातें बताना चाहूँगा।
एक प्रथम सूचना रिपोर्ट भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा दर्ज कराई गई थी कि उस के द्वरा उस के किसी उपभोक्ता को भेजा गया पूर्णकालिक भुगतान का चैक किसी अन्य व्यक्ति को डाक में प्राप्त हुआ, और उस व्यक्ति ने उपभोक्ता के नाम का फर्जी खाता खुलवा कर वह रकम उठा ली और चम्पत हो गया। पुलिस को अधिकांश दस्तावेजी साक्ष्य जो निगम के पास थी उपलब्ध करा दी गई। पुलिस ने उस रिपोर्ट पर अन्वेषण कर रिपोर्ट दी कि अपराधियों का पता नहीं लगाया जा सकता है। यह रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत कर दी गई। बीमा निगम के अधिकारी ने उपस्थित हो कर मौखिक रूप से आपत्ति की कि वे उस पर अपनी आपत्तियाँ प्रस्तुत करना चाहते हैं कि अन्वेषण ठीक से नहीं हुआ अन्यथा अपराधियों को पकड़ा जा कर उन्हें सजा दी जा सकती थी।
बीमा निगम उपभोक्ता को तो उस की शिकायत पर अलग से भुगतान कर के संतुष्ट कर चुका था। आपत्तियाँ प्रस्तुत करने के
लिए अदालत ने तिथि निश्चित कर दी। इस बीच बीमा निगम की ओर से रिपोर्ट की प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए आवेदन दिया जो इस लिए निरस्त हो गया कि उस पर प्रकरण की तिथि गलत अंकित है। इस के उपरांत मैं स्वयं करीब पिछले पन्द्रह दिनों से अदालत के दफ्तर और पुलिस के मुंशी के अनेक चक्कर लगा चुका हूँ लेकिन उस रिपोर्ट की न तो सही तारीख पता लग रही है और न ही वह रिपोर्ट या उस का अंकन कहीं मिल पा रहा है। सभी कर्मचारी भी तलाश कर कर के परेशान हैं। आखिर उन्हों ने थक-हार कर मुझ से उस रिपोर्ट के विवरण ले कर नोट कर लिए हैं। जब भी वह बरामद हो लेगी वे मुझे बताएंगे।
इस का मुख्य कारण उस अदालत में उस की क्षमता से दस गुना से भी अधिक काम का होना है। वहाँ दस हजार से अधिक मुकदमे तो केवल धारा 138 निगोशिएबुल इंस्ट्रुमेंट एक्ट के अर्थात चैक बाउंस के मामलों के हैं। इस के अलावा आम फौजदारी मुकदमे अलग हैं। कोई बीस मुकदमे रोज नए पेश होते हैं। जब कि निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या इस से आधी भी नहीं होती जो कि पहले ही अदालत की वास्तविक क्षमता से चार गुना से भी अधिक की है।
अदालत में जो काम दि्खते हुए होते हैं उस के साथ अदालत को बहुत से न दिखने वाले काम भी करने होते हैं। उसे दो से पांच तक निर्णय रोज लिखाने हैं जो कुल मिला कर तकरीबन पचास से सत्तर पृष्ठों के हो सकते हैं। इस के अलावा महत्वपूर्ण आदेश लिखाने हैं जो कि करीब तीस-चालीस की संख्या में हो सकते हैं। गवाहों की गवाहियाँ भी रिकार्ड करनी हैं और भी अनेक विविध प्रकार के काम होते हैं। यदि जज पचास पृष्ठ के निर्णय भी रोज लिखाता हो तो कम से कम चार घंटे उसे इन्हें लिखाने में लगेंगे। ये निर्णय वह खुली अदालत में नहीं लिखा सकता उस के लिए उसे चैंबर का उपयोग करना होगा। इन निर्णयों को लिखाने के लिए उसे पत्रावली और आवश्यक नजीरों को पढ़ना भी होता है। ऐसी हालत में अगर एक जज 12 बजे अदालत में आ कर बैठता है और शाम चार बजे उठ जाता है तो वह केवल चेम्बर में अदालत का काम निपटाने के लिए। जज अदालत के समय के बाद भी दो-दो घंटों तक चैम्बर में काम करते दिखाई दे जाते हैं। इस के साथ ही उन के स्टाफ को भी रुकना पड़ता है। रीड़रों और बाबुओं को अक्सर रात को आठ बजे तक और कभी कभी नौ-दस बजे भी घर जाते देखा जाता है।
अब आ जाइए अवकाशों पर तो। विवादों का निर्णय देने के लिए जजों और वकीलों को पढ़ने और अपनी क्षमता को भी बनाए रखना पड़ता है। जिस के लिए ये अवकाश आवश्यक हैं। मेरा तो यह मत है कि अदालतों को सप्ताह में पाँच दिन से अधिक बैठना ही नहीं चाहिए। सप्ताह में एक दिन जज अपने घर पर पढ़ने लिखने का काम निपटाए और एक दिन अवकाश पर बिताए। अभी तो रविवार का अवकाश भी का भी उस का अपना नहीं होता। उस दिन भी उसे काम करना होता है। यही हाल वकीलों का है। वे जो कुछ अदालत में दस से पाँच बजे तक करते हैं वह उन का प्रस्तुतिकरण (प्रेजेण्टेशन) मात्र होता है। उन्हें अदालत के बाद कम से कम छह से आठ घंटे अपने कार्यालयों मे लिखने, पढ़ने का काम करते रहना पड़ता है। रविवार को भी वे कम से कम आधे दिन अपने कार्यालयों में बैठते हैं अन्यथा वे अपने मुवक्किलों के साथ न्याय नहीं कर सकते।
मुझे लगता है कि भाई वडनेरकर जी को उन के प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। हाँ वे कुछ जजों और वकीलों के उदाहरण दे सकते हैं जो काम नहीं करते या फिर आलसी और अक्षम हैं। तो ऐसी कथाएँ तो मैं ने तीसरा खंबा पर भी लिखी हैं। लेकिन वे अपवाद भर हैं। अधिकांश जज और वकील अपनी क्षमता से कई गुना काम कर रहे हैं। समझिए उन्हीं के कारण हमारी न्याय प्रणाली की कुछ साख बनी हुई है। वरना सरकारों ने अपने बजटों में न्याय प्रणाली को इतना स्थान भी नहीं दिया है कि अदालतों को उन की जरूरत की आधी ऑक्सीजन भी मिल सके।
कुछ पाठकों ने यह प्रश्न भी किया है कि
कैसे ब्रिटिश फर्मों के भारत में काम प्रारंभ करने से न्याय व्यवस्था सुधरेगी? तो मेरा उत्तर है। कदापि नहीं। वे केवल यहाँ अपने कारपोरेट मुवक्किलों की सेवा करने और धन कमाने आ रहे हैं उन्हें यहाँ की न्याय व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं है। इस विषय पर फिर कभी विस्तार से।
आप की बात से सहमत हू.
sarahniya prayaas…..bahad dhardaar lakhen hai. bahut bahut mubarakbaad.
काम के बोझ से उपजी चिढ के शिकार कर्मचारी, पक्षकारों पर अपनी खीझ निकालते हैं । इससे दूरी बढती है और इसीलिए न्यायालयों की यह छवि बनती है ।
dwivedi jee,
saadar pranaam, aapne bilkul adbhut post likhee hai aur kachahri mein kaam karne ke kaaran main bhali bhaanti jaantaa hoon ki ye kitnaa satya hai, darasal jab apekhsaa bahut jyaadaa badh jaatee hai to is tarah kee baatein saamne aatee hee hain, 138 N I Act ke mukadmon ne to sadaandh failaa dee hai , aap dekhiyegaa ye samasyaa bahut jaldee hee naasoor ban jaayegee khud nyaaypaalikaa ke liye bhee waise to bhrashtaachaar bhee aajkal ek rog ban gaya hai uske liye.
धन्यवाद द्विवेदी जी, न्यायालयों की सक्रियता जनहित याचिकाओं के जरिये बढ़ने से उन्हें हाल के दिनों में जन लोकप्रियता का नया रस मिला है…यह जनप्रियता अपने साथ एकबारगी अपेक्षाओं का अम्बार लेकर आती है. और कुछ समय तक खुशफहमी का दौर चलता है..फ़िर वास्तविकता से सामना होते ही खुशफहमियां काफ़ूर होकर पूर्वाग्रहों में परिवर्तित होने लगती है, जो कालांतर में बिलावजह के आक्रोश को शरण देती हैं……अदालतों के कामकाज के बारे में आम आदमी की समझ बहुत कम है….उनमें मेरे जैसे लोग भी हैं. !! लेकिन आपने एक अच्छा काम किया है. बताते रहिये वरना न्यायालयों के प्रति अनास्था का दौर …..शुरू होने में देर नहीं लगना है. हम लोग तो इसके आदी हो चुके हैं…..कर भला तो भी, हो बुरा…!!
शुक्रिया दिनेश जी,
मुझे इस विषय में ज्यादा जानकारी नहीं। न्यायपालिका में छुट्टियों के हिसाब किताब पर हाल ही में जो आंकड़े पढ़े थे उसी का हवाला दिया था। बाकी हर संस्थान या क्षेत्र की साख कुछ ईमानदारों पर ही टिकती है। मगर व्यवस्था की उपेक्षा के शिकार भी वे लोग ही होते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि बजट बढे तो अदालतें बढ़ें। ये सब हो जाए तो छुट्टी जैसे मुद्दे तो सचमुच गौण हैं।
हर पेशे में केवल कुछ की लोग साख बचायें रखते है
सरकारों ने अपने बजटों में न्याय प्रणाली को इतना स्थान भी नहीं दिया है कि अदालतों को उन की जरूरत की आधी ऑक्सीजन भी मिल सके।
मेरा ऐसा सोचना है की जो सक्षम और कर्मठ काम करने वाले लोग हैं उनका योगदान तो सराहनीय है ही ! पर अगर सरकार थोड़ी सी भी आक्सीजन सपलाई अगर बढाए तो इसमे बड़ा आमूल चुल परिवर्तन आ सकता है ! बिना संसाधन बढाए कतिपय कर्मठ लोगो के हाथ से न्याय पाने की उम्मीद भी उन लोगो के साथ ज्यादती ही दिखती है मुझे तो !
आप इस विषय पर बहुत अच्छा लिख रहे हैं और हमारी जानकारी बढ़ा रहे हैं ! धन्यवाद !
यह बिल्कुल सच है की हम सिस्टम की कमियों और कुछ लोगों की कमियों का ठीकरा सारे लोगों पर डाल देते हैं /
अपने बेसिक शिक्षा विभाग में भी मैं यही महसूस करता हूँ की कार्य करने वाले को प्रोत्साहन नहीं जबकि लम्पटों को पूरा आराम !
कुछ जानकारियां मिली आभार आपका !
अरे, कुछ सुझाव तो अम भी टिकाये हैं..उसका क्या!! एकदमे बोगस हैं क्या!!!
अधिकांश जज और वकील अपनी क्षमता से कई गुना काम कर रहे हैं। समझिए उन्हीं के कारण हमारी न्याय प्रणाली की कुछ साख बनी हुई है।
ऐसा ही मैं रेल अधिकारियों के बारे में सोचता हूं। पर आम जनता में वैसी छवि दीखती नहीं। हमारा पीआर बेकार है।