न्याय रोटी से पहले की जरूरत है, न्याय प्रणाली की पर्याप्तता के लिए आवाज उठाएँ
|26 जनवरी, 1950 को भारत ने गणतंत्र का स्वरूप धारण किया। गणतंत्र का अर्थ है देश का शासक अब चुनी हुई सरकार करेगी। उस दिन जिस संविधान को हम ने अंगीकार किया था। उस में यह प्रावधान था कि इस की आत्मा में परिवर्तन किए बिना इसे देश के सामाजिक विकास के साथ साथ परिवर्तित जनाकांक्षाओं के अनुरुप उत्तरोत्तर विकसित किया जाएगा। यह हुआ भी समय समय पर हमारे संविधान में संशोधन किए गए। तत्समय प्रचलित कानूनों को संविधान सम्मत बनाया गया।
लेकिन गणतंत्र बनने के साथ साथ देश के नागरिकों ने एक उत्तरोत्तर विकासमान जनतांत्रिक राज्य की जो कल्पना की थी शायद आज तक वह सफल नहीं हो सकी। हम देखते हैं कि हम साधनों की दृष्टि से पिछड़ते जा रहे हैं। हमारे देश ने विकास किया, और ऐसा विकास कि जिस का दुनिया मे कोई सानी नहीं है। लेकिन हमारा यह विकास असमानता का शिकार हो गया। कोई पक्ष बहुत आगे बढ़ गया है तो कोई पक्ष बहुत पीछे रह गया है।
गणतंत्र की 58 वीं जयन्ती मनाते हुए हम देख रहे हैं कि देश में सम्पन्नता बढ़ी है तो उस के साथ ही अमीरी और गरीबी के बीच की खाई भी और चौड़ी हुई है। एक तेजी से बढ़ती हुई कंपनी जिस पर देश के नौजवान तकनीशियन आस लगाए बैठे हैं। वह 62 हजार कर्मचारियों को बांटती है और वहाँ केवल 50 हजार कर्मचारी हैं वेतन लेने वाले। शेष कर्मचारी केवल कागजों में हैं। उन का वेतन सीधे कंपनी के कर्ता-धर्ताओं की जेब में चला जाता है। यह न केवल उस कंपनी के शेयर धारकों के साथ धोखा था, अपितु पूरे देश के साथ धोखा था। देश में रोजगार के फर्जी आंकड़े बताए जा रहे थे।
लेकिन यह केवल एक कंपनी का किस्सा नहीं है। आप किसी कंपनी के खाते और वास्तविक स्थिति की जाँच करेंगे तो पाएँगे कि कोई भी कंपनी ऐसी नहीं जो घपला न करती हो। आप जाँचेंगे तो पता लगेगा सारे घपलों की शुरुआत कंपनी के प्रबंध मंडल और उच्च पदों पर बैठे लोगों से शुरु होती है। जब कंपनी गिरने के कगार पर होती है तो उसे बीमार कर के बीआईएफआर के अस्पताल को सौंप दिया जाता है। जिस का रिकार्ड है कि वह एक प्रतिशत कंपनियों को भी मरने से नहीं बचा सकी है। कंपनी के कर्ता-धर्ता उसे वैसे ही मरने के लिए वहाँ छोड़ देते हैं जैसे महिलाओं को काशी या वृन्दावन छोड़ दिया जाता है।
कोटा मे उद्योगों वाली उत्तर प्रदेश की एक कंपनी के खातों की जाँच की शिकायत मैं ने स्वयं इन्ही चिन्दम्बरम साहब के वित्तमंत्री रहते की थी। कंपनी तब लाभ में थी और अचानक हानि में जा कर बीआईएफआर में भर्ती हुई और उस ने कारखाने बंद कर दिए। बीच की बैलेंसशीट बताती हैं कि दस सालों में कर्मचारियों का वेतन 3.5 प्रतिशत ही रहा और प्रबंधन के विविध खर्चे 3 प्रतिशत से बढ़ते बढ़ते 11.5 प्रतिशत पहुंच गए। यदि इन खर्चों को औसतन 4 प्रतिशत भी मान लिया जाए तो भी कंपनी इतने लाभ में आ जाएगी कि एक-दो नए कारखाने और खोल ले। ये कारखाने खुले भी होंगे लेकिन वे कंपनी के कर्ता-धर्ताओं की दूसरी कंपनियों के होंगे।
यह सब क्यों हो रहा है? इस लिए कि हमारी सरकारों के कर्ता-धर्ताओं का इन उद्योगपतियों के साथ चोली-दामन का साथ है। वे चाहे नेता हों या फिर नौकरशाह। नेता जनता के वोट से चुन कर जाते हैं लेकिन चाकरी इन्हीं बेईंमान राष्ट्रद्रोही उद्योगपतियों की करते हैं। जब सैंया (चाकर) भए कोतवाल तो ड़र काहे का। मुझे तो अभी तक यह समझ नहीं आया कि राजू ने कौन सी वह तकनीकी गलती की जिस से वह जेल की हवा खा रहा है।
हमारे यहाँ किसी पर नियंत्रण के लिए पर्याप्त साधन राज्य ने नहीं जुटाए हैं। पर्याप्त पुलिस नहीं है, पर्याप्त अदालतें नहीं हैं, पर्याप्त विद्यालय नहीं हैं, पर्याप्त अस्पताल नहीं है। हमारी जनसंख्या का एक बड़ा भाग साक्षर नहीं है। पीने को साफ पानी नहीं है, भर पेट भोजन तो बहुत दूर की बात है। लेकिन आंकड़े कहते हैं कि हम विकास कर रहे हैं। अपराधियों की पौ-बारह है। जो अपराधी पकड़े जाते हैं, उन से अधिक खादी और लकदक सूटों में घूम रहे हैं और जनता पर शासन कर रहे हैं। यही है हमारा जनतांत्रिक गणतंत्र। क्या इसी के लिए हमारी पूर्व पीढ़ियों ने सपने देखे थे?
अब वक्त आ गया है जब हम ये सवाल हमारे जन प्रतिनिधियों से सार्वजनिक रुप से पूछें। वे चाहे किसी दल के क्यों न हों? तीसरा खंबा विशेष रुप से न्याय प्रणाली पर केन्द्रित है। इस लिए पाठकों से यह निवेदन करता है कि जीवन के लिए जितना हवा और पानी आवश्यक है उतना ही न्यायपूर्ण जीवन और समाज भी। यदि परिवार में खाने को पूरा खाना न हो तो परिवार भूख में भी प्रेम से जीवन बिता सकता है। बस लोगों को विश्वास होना चाहिए कि जितनी रोटियाँ हैं उन का बंटवारा न्यायपूर्ण हो रहा है। यदि यह विश्वास टूट गया तो परिवार बिखऱ जाएगा। परिवार के बिखरने का अंजाम सब जानते हैं। गट्ठर को कोई नहीं तोड़ सकता लेकिन एक एक लकड़ी को हर कोई तोड़ सकता है। इस लिए न्यायपूर्ण व्यवस्था परिवार के एकजुट रहने की पहली शर्त है।
यही कारण है कि न्याय रोटी से पहले की जरूरत है। कम रोटी से काम चलाया जा सकता है, लेकिन न्याय के बिना नहीं। लेकिन हमारी न्याय प्रणाली अपंग है। वह हमारी जरूरत का चौथाई भी पूरा नहीं करती। एक न्यायार्थी को उस के जीवन में न्याय मिलना असंभव होता जा रहा है। यदि इस स्थिति से युद्ध स्तर पर नहीं निपटा गया तो। समझ लीजिए कि परिवार खतरे में है। गणतंत्र खतरे में है।
आइए, न्याय प्रणाली की पर्याप्तता के लिए आवाज उठाएँ।
………………………………………………………………सभी को गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ
………………………………………………………………मैं आज शाम से अपने कुछ निजि कार्यों के संबंध में कोटा से बाहर जा रहा हूँ, और शायद अगले दस दिनों तक कोटा से बाहर रहूँगा। इस बीच अनवरत और तीसरा खंबा के पाठकों से दूर रहने का अभाव खलता रहेगा। इस बीच संभव हुआ तो आप से रूबरू होने का प्रयत्न करूंगा। कुछ आलेख सूचीबद्ध करने का प्रयत्न है। यदि हो सका तो वे आप को पढ़ने को मिलते रहेंगे।
सही कहा, अन्याय की दशा में रोटी भी ठीक से हजम नहीं होती।
गणतंत्र दिवस पर आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
—आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
न्यायोचित व्यवस्था प्री-कण्डीशन है रोटी सबको मिलने की।
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।
यह और कुछ नहीं, हमारे चुप रहने का दण्ड है। हममें से प्रत्येक अपने-अपने स्वार्थ वश, सब कुछ चुपचाप देखजा रहता है और प्रतीक्षा करता रहता है कि दूसरा कोई बोले। यह ‘दूसरा कोई’ भी किसी दूसरे कोई की प्रतीक्षा कर रहा है।
पाने के लिए कुछ खोना पडता है और हम कुछ भी खोने को तैयार नहीं हैं। सो, हमें ‘कुछ’ मिले तो क्यों मिले?
अमर रहे गणतन्त्र हमारा।
बहुत सुंदर. हमारा गणतंत्र अमर राहे. लगता है पुनः आपकी बातों से पूर्ण्तह सहमत हैं. आभार
आपको गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं।
बहुत सही लिखा है आपने। ब्रेष्ट के एक नाटक की पंक्तियां हैं-
जिस तरह रोटी की जरूरत है सभी को
इंसाफ की जरूरत भी होती है रोज-रोज
बहुत बहुत बधाई ! आपकी बात सही है। न्याय न मिले तो संविधान में मिले अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। न्याय यदि दस बीस वर्ष में मिले तो वह गलत करने से रुकने की प्रेरणा नहीं देता। किसी भी अपराधी को सजा देने का मुख्य उद्देश्य उसे और अपराध करने से रोकना व अन्य लोगों को अपराध करने से हतोत्साहित करना होता है। यदि यही न हो पाए तो न्याय व न्यायप्रणाली महत्वहीन हो जाती है।
लेख के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती
बहुत सटीक लिखा आपने.
गणतंत्र दिवस की बधाई और घणी रामराम जी.
आदरणीय सर, एकदम बजा फ़रमा रहे हैं आप। आइए, न्याय प्रणाली की पर्याप्तता के लिए आवाज उठाएँ। ज़रूर और फिर ज़रूर।
गणतंत्र दिवस पर आपको शुभकामनाएं .. इस देश का लोकतंत्र लोभ तंत्र से उबर कर वास्तविक लोकतंत्र हो जाएऐसी प्रभु से कामना है
सामयिक चिन्ता को उकेरा है आपने दादा… बधाई और शुभकामनायें..
गणतंत्र दिवस की आपको भी ढेर सारी शुभकामनाएं!!
वैसे तो मुझे लगता है कि उस न्याय का भी कोई मतलब नहीं है जिसमें सबके लिए पर्याप्त रोटी उपलब्ध न हो. लेकिन यह भी सच है कि तब तक सबके लिए रोटी की बात ही बेमानी है, जब तक कि न्याय व्यवस्था न सुधार जाए.
गणतंत्र दिवस की आपको ढेर सारी शुभकामनाएं.