मजबूत और शत्रु की तरह लगने वाले वकील ही मह्त्वाकांक्षी जजों के सबसे अच्छे मित्र हैं
|“एक कुशल न्यायिक व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि बार (वकीलों की जमात) भी मजबूत और कुशल हो। एक ऐसी बार जो कि दिखने में न केवल स्वावलंबी और निर्भय हो और पूरे आदर के साथ मामले के विवादित बिंदुओं को मजबूती से अदालत के सामने पेश करे। चापलूसों की तरह न्यायाधीशों की हाँ में हाँ मिलाने वाली बार एक गलती करने वाले जज की गलतियों में ही वृद्धि करती है। जजों को मस्का लगाना उन्हें न्याय के उचित और सही मार्ग से सदैव विचलित कर देता है। अपनी सोच के विपरीत तथ्यों को मजबूती से रखे जाने पर एक जज मामले पर गंभीरता से विचार करने को बाध्य हो जाता है और एक सही निर्णय पर पहुँचता है। एक कमजोर बार न्याय प्रशासन की सब से बड़ी शत्रु है। एक हावी होने वाले जज के लिए एक कमजोर वकील न तो उस के पेशे के लिए ही ‘रत्न’ है और न ही न्याय प्रणाली के लिए। वास्तव में एक कमजोर और हाँ में हाँ मिलाने वाला वकील एक जज के विकास में सब से बड़ी बाधा है। शत्रु की तरह व्यवहार करने वाला मजबूत वकील अच्छे कैरियर के महत्वाकांक्षी जज के लिए सब से अधिक लाभकारी है। वकीलों के मजबूत और नए तर्कों का सामना करते हुए ही एक अच्छे जज का निर्माण होता है। एक पुराने ढर्रे पर चलने वाली बार एक बुरी न्यायपालिका के लिए जिम्मेदार होती है। जज और वकील दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। न्याय व्यवस्था की ये दोनों भुजाएं एक साथ बराबरी के साथ विकास करनी चाहिए। दोनों एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते हैं तो एक स्वतंत्र और मजबूत न्याय प्रणाली विकसित होती है। अच्छे जज अच्छी आलोचना को सहृदयता के साथ स्वीकार करते हैं और अच्छे वकील हमेशा जजों को गलती करने से रोकते हैं।”
यह वकीलों और जजों के बीच संबंधों की सब से अच्छी व्याख्या है जिसे मैं ने अपनी वकालत के आरंभ में पढ़ा और लगभग हर वर्ष नियमपूर्वक इसे दोहराया और इस का लाभ भी उठाया। अनेक वाकये हैं जो इस वाक्यांश के साथ जुड़े हैं। उन में से एक आप के लिए …..
जज को श्रमं न्यायालय में आए एक माह ही हुआ था। वह श्रम मामलों की समझ विकसित कर ले तब तक हम बड़े मामले में बहस करने से कतरा रहे थे। मामूले मुकदमों में वे फैसले करने लगे थे। एक मामले में मुझे लगा कि अब वक्त आ गया है इस में बहस कर लेनी चाहिए। मैं ने मामले को मजबूती के साथ रखा और मुझे लगा कि मैं अपना पक्ष सफलता के साथ रखने में कामयाब हो गया हूँ। लेकिन जब तीसरे दिन फैसला सुनाया गया तो मैं दंग रह गया फैसला अनुमान से कोसों दूर था। जज कानून को ठीक से नहीं समझ पाया था। मेरे दिल में यह बात कांटे की तरह चुभ गई।
मैं जज से इस मामले पर बात करना चाहता था। मुझे लग रहा था कि जज की इस में इरादतन गलती नहीं है लेकिन उस ने हलके तौर पर मामले को समझते हुए बिना मेहनत किए फैसला दे दिया है। एक दिन अदालत में जब जज और मेरे अलावा कोई नहीं था।
मैं ने जज से पूछा -सर! आप बुरा न माने तो एक बात कहूँ?
उन्हों ने सहर्ष कहा कि -कहिए, कहिए।
मैं ने कहा -उस मामले में आप ने सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को नहीं देखा, वरना फैसला जो दिया उस से उलट होता।
उन्हों ने तुरंत उत्तर दिया -मैं पढ. लेता तो भी मेरा फैसला वही होता।
मैं ने कहा -मैं ने आप तक अपना अहसास पहुंचा दिया है, अब मुझे आप से कोई शिकायत नहीं है। लेकिन एक निवेदन जरूर है कि उस फैसले को अब जरूर पढ़ लें। मैं ने उसी समय अदालत की लायब्रेरी से पुस्तक निकाल कर संदर्भित निर्णय को फ्लेग कर उन्हें दे दिया। उन्हों ने उसे चपरासी को घर जाने वाले बस्ते में रखने को कहा। इस मामले पर मेरी उन जज साहब से कोई बात नहीं हुई।
बाद में उन्हीं जज साहब ने एक समारोह में बोलते हुए कहा जहाँ अनेक वकील और जज मौजूद थे। मुझे इस बात की खुशी है कि मुझे इस शहर में काम करने का अवसर मिला जहा
बहुत ही अच्छा व प्रेरणादायक संस्मरण लगा यह…आपको और उन जज साहब दोनों को ही न्यायप्रशासन को उचित दिशा में ले जाने हेतु बधाई
काफी समय से नेट पर ज्यादा समय नहीं दे पा रहा हूं… आपका ब्लॉग भी नियमित नहीं पढ़ पाता…कभी जब समय मिलता है तो इकट्ठे ही पिछली पोस्टें पढ़ता हूं टिप्पणियां भले ना दे पाऊं
बहुत सुन्दर वर्णन। बधाई।
संस्मरण न केवल सुन्दर है अपितु सर्वकालिक सत्य की तरह है । ‘वे’ जज साहब निस्सन्देह अभिनन्दन के पात्र हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारोक्ति करने का साहस किया । आप बधाई के पात्र हैं कि आपने (निर्णय हो जाने के बाद भी) अपना मन्तव्य प्रकट करने का साहस किया ।
मुझे लगता है, ऐसे जज साहब अब शायद ही कहीं मिलें । यह आपके, वकालात शुरु करने के प्रारम्भिक काल की घटना है । ईश्वर करे, ऐसे जज अभी भी काम कर रहे हों ।
सच मे बहुत सुन्दर आलेख है।लेकिन ऐसे गलती को स्वीकारनें वाले जज बहुत कम ही होगें और ऐसे वकील भी बहुत कम होगें जो ऐसी हिम्मत जुटा पाते हैं। आप ने सही लिखा है कि निरंतर अध्ययन रत रहने की आवश्यकता है ।
जज साहब को मानना पड़ेगा। बड़े ओहदे पर अपनी कमी स्वीकार करने वाला ऐसा चारित्रिक सक्षमता के कारण ही कर पाता है।
आपने एक बहुत ही लाजवाब संस्मरण सुनाया जिससे लगा की जजे’स को भी कानून की सम्पूर्ण जानकारी नही होती और उन्हें भी निरंतर अध्ययन रत रहने की आवश्यकता है वरना वो न्याय नही कर पायेंगे ! रामराम !