मुकदमे का फैसला कितने सालों में?
|आज हम न्याय प्रणाली के क्षरण के प्रभावों की परीक्षा करेंगे। पिछली पोस्ट में हमने न्याय प्रणाली के क्षरण पर अराजकता के उत्पन्न होने पर बात की थी। अराजकता किसी भी देश, समाज तथा राज्य को नष्ट कर सकती है। इस कारण से मैं यह भी चाहूँगा कि इस विषय के मनीषी इस पर विचार करें और राज्य की विधायिका (संसद) और कार्यपालिका इस पर अविलम्ब ध्यान दे।
हम ने कल देखा कि किस तरह से हमारे मुख्य न्यायाधीश ने तथ्य जनता के सामने रखे हैं। देश में तीन करोड़ अस्सी लाख मुकदमें अदालतों में लम्बित हैं। कुल चौदह हजार अदालतें हैं जिनमें केवल बारह हजार जज पदस्थापित हैं, दो हजार अदालतें हमेशा रिक्त रहती हैं क्योंकि जजों की नियुक्ति के लिए होने वाली प्रक्रिया लम्बी है और उस के पूरा होने तक जजों के सेवानिवृत्त हो जाने से पुनः इतने ही पद रिक्त हो जाते हैं। हमारी मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि वह भविष्य में रिक्त होने वाले पदों के लिए पहले से चयन प्रक्रिया प्रारंभ करने में अक्षम है। क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है और केवल संसद में ही प्राप्त हो सकता है। वहां भी किसी सांसद के पूछे जाने पर। जनता वहाँ प्रश्न नहीं पूछ सकती है।
हम थोड़ी गणित में उलझें तो पाऐंगे कि एक अदालत के हिस्से में करीब ३,६५० मुकदमे आएंगे। एक अदालत औसतन महीने में बीस दिन से अधिक काम नहीं कर पाती है। यदि यह पचास मुकदमें भी रोज सुनवाई के लिए निश्चित करे तो सभी मुकदमों में अगली सुनवाई केवल पौने चार माह बाद ही हो पाना संभव हो पाएगा और साल में केवल तीन या चार सुनवाइयां ही सम्भव हो पाऐंगी। एक मुकदमे में कम से कम तीस सुनवाइयों में निर्णय हो जाए तो निर्णय होने में आठ या दस साल तो गुजर ही जाऐंगे। इस के बाद भी कम से कम दो अदालतों में अपी्लें की जा सकती हैं, इन में भी कम से कम चार-चार साल तो लग ही जाऐंगे। यानी कम से कम अठारह-बीस वर्ष में एक मुकदमें में निर्णय प्राप्त किया जा सकेगा। यदि निर्णय किसी अपराधिक मामले का नहीं है तो उस की पालना कराने के लिए विजित पक्ष को पुनः आवेदन करना होगा और इस में भी औसतन चार-पाँच साल लग जाते हैं। इस तरह हम पाते हैं कि एक व्यक्ति हमारी भारतीय अदालत से बाईस से पच्चीस साल में न्याय प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है। क्या इतनी देरी से हुए न्याय को न्याय कहा जा सकता है?
इसका असर यह हो रहा हैकि अदालतें विश्वसनीयता खोती जा रही हैं और आम जनता का न्याय प्रणाली पर से ही भरोसा उठता जा रहा है।
(और आगे कल……….)
न्याय में देरी होना न्याय नहीं के बराबर है
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दो हजार पद यदि खाली हैं तो अविलम्ब भरे जाने चाहियें।
एक एग्जीक्यूटिव के रूप में हम इतनी हेराफ़ेरी अवश्य करने का यत्न करते हैं – जिस केटेगरी में स्टाफ़ ज्यादा चाहिये उसमें पदों का आकलन काफ़ी लिबरल तरीके से करते हैं। वही जजों के विषय में होना चाहिये। अगर चयन प्रक्रिया ऐसी है कि २००० पद रिक्त ही रहेंगे तो जजों के पद ही २००० अधिक मान कर चयन होना चाहिये।
पर निश्चय ही यह इतना सिम्पल नहीं होगा!
आपने स्थिति की गम्भीरता का बड़ा ही सरल गणितीय विश्लेषण प्रस्तुत किया है। न्याय का समय से मिलना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और इसकी उपेक्षा अत्यन्त चिन्ता का विषय है। न्यायधीशों की नियुक्ति होगी तो एक साथ बहुत से फायदे होंगे – बहुत से लोगों को रोजगार मिलेगा; समय से निर्णय आने से न्याय व्यवस्ता पर लोगों का विश्वास बढ़ जायेगा; समाज में अराजकता कम होगी; उत्पादकता बढ़ेगी, आदि।