मुख्य न्यायाधीश ने कहा-अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में पाँच गुना वृद्धि आवश्यक
|अब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और मध्यस्थता व संराधन परियोजना के प्रधान श्री एस.बी. सिन्हा ने पिछले शनिवार को कहा कि देश की अदालतों में मुकदमों का अम्बार एक दैत्याकार समस्या हो चुकी है। तीन करोड़ मुकदमे अदालतों में समाधान के लिए लंबित हैं। मुकदमों के निर्णयों में हो रहे अत्यधिक विलम्ब के कारण लोग शर्म के मारे अदालतों में अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करने से बचने लगे हैं। वे तिरुनेलवेली में न्यायिक अधिकारियों के एक दिवसीय जागरूकता कार्यक्रम में समानान्तर विधि समस्या समाधान तंत्र पर बोल रहे थे। उन्हों ने कहा कि हमें कानून और संवेधानिक मूल्यों को बनाए रखना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को न्याय प्रदान करने को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए।
उन्हों ने कहा कि 2008 में अदालतों में तीन करोड़ मुकदमे लम्बित हैं और वर्तमान स्थिति के चलते उन की संख्या 2030 तक 24 करोड़ हो जाएगी। उन्हों ने कहा कि न्यायिक सुधारों की जिम्मेदारी सांसदों और विधायकों की है। जहाँ संरचनात्मक सुधारों के लिए कानूनों में संशोधनों की जरूरत है वहीं उन्हें लागू करने के लिए न्यायिक अधिकारियों को अपना मानस परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन ने कहा कि इस मामले में समस्या यह है कि जिला स्तर तक की और अधिक अदालतें स्थापित करने के लिए वित्तीय भार उठाने हेतु पहल करने का दायित्व संबंधित राज्य सरकारों का है, जब कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालयों का दायित्व केन्द्र सरकार पर है। अधिकतर राज्य सरकारें जिला स्तर तक के न्यायालयों की संख्या में वृद्धि के लिए साधन जुटाने में कृपणता करती हैं। यदि न्याय पालिका की मजबूती के लिए कुछ सार्थक करना है तो राजनैतिक इच्छा की कमजोरी को जनता के समक्ष उजागर करना होगा। यह समझा जा सकता है कि रातों-रात हजारों अदालतें नहीं खोली जा सकतीं। लेकिन राज्य सरकारों को इस मामले में समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित करने होंगे।
मुख्य न्यायाधीश ने न्यायपालिका के वर्तमान परिदृश्य पर कहा कि हमारी न्यायपालिका 16685 अधीनस्थ अदालतों 886 उच्च-न्यायालय जजों और 31 सर्वोच्च न्यायालय जजों से निर्मित है। समस्या यह है कि सभी स्तरों पर पुराने मुकदमे बड़ी संख्या में लंबित हैं। शिक्षा में प्रगति, सामाजिक-आर्थिक प्रगति और कानूनी अधिकारों के प्रति बेहतर जागरूकता के कारण अदालतों में बहुत मुकदमे आने लगे हैं। यह इस के बावजूद है कि अभी तक गरीबी, अशिक्षा, जागरूकता के अभाव और सामाजिक भेदभाव के कारण बहुत लोग न्यायालयों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। वास्तविकता यह है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ साथ न्यायपालिका के आकार को नहीं बढ़ाया गया। जब कि विधि आयोग यह बता चुका है कि भारतीय न्याय पालिका को विकसित देशों के समकक्ष बनाने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में पाँच गुना वृद्धि आवश्यक है।
मै काजल कुमार जी की बात से सहमत हू ।
तभी सब को समय से न्याय मिल सकेगा।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
केवल न्यायपालिका का आकर बढ़ाना ही एकमात्र उपाय नहीं है. न्यायप्रणाली में भी आमूल-चूल परिवर्तन की आवशयकता है.
कार्यप्रणाली की गुणवत्ता सुधार जरूरी है।
हमारे यहां जिस गति से आबादी बढी है उस गति से न्याय संशाधन नही बढे हैं. और यह बहुत ही चिंतनिय है, जनता कानून हाथ मे लेने को बाध्य होने का सोचे उससे पहले ही इस विषय मे कुछ ठोस किया जाना चाहिये.
रामराम.
इस पर तुरंत अमल करनें की जरूरत है ,वरना बहुत देर हो जायेगी .
मज़ाक से ज्यादा कुछ नहीं है भारतीय न्यायिक व्यवस्था। आपके ब्लाग के माध्यम से ताजा गतिविधियों से अवगत होता रहता हूं इस मामले में।
मै तो यही कहूंगा कि भगवान दुशमन को भी ना दिखाये आदालत का रास्ता.