रोकिए! इस सड़न को, रोकिए!
|रात को दो ब्लागरों के आलेख आए, एक लोकेश जी की अदालत पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि देश में आपराधिक न्याय प्रणाली सड़ रही है और इस से भी पहले वरिष्ठ ब्लागर श्री रवि रतलामी के रवि रतलामी का हिन्दी ब्लाग पर सड़ने के लिए, क्या अब भी, सचमुच, कुछ बाकी बचा भी है योर ऑनर? ये दोनों ही आलेख किसी भी भारतीय को झकझोर देने के लिए पर्याप्त हैं। एक सवाल और खड़ा होता है कि क्या हमारे देश ने इसी तरह से 21वीं सदी में प्रवेश किया है?
एक साल पहले जब “तीसरा खंबा” आरंभ हुआ था तो उस का पहला आलेख न्याय व्यवस्था की आलोचना था और अगली तीन कड़ियाँ न्याय-वध…..(1), न्याय-वध…..(2) और न्याय-वध (3) थीं। इस के बाद तो लगातार न्याय प्रणाली की आलोचना का सिलसिला शुरू हो चुका था। यह आलोचना ऐसी नहीं थी जो बेवजह हमारी न्याय प्रणाली को बदनाम कर रही हो। अपितु यह खोज कर रही थी कि विश्व की श्रेष्ठतम न्याय प्रणालियों में से एक को यकायक ऐसा क्या हो गया है कि वह हर तरह से आलोचना की शिकार होने लगी है? तीसरा खंबा दो माह भी का भी नहीं था कि भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश (देश को जरूरत है 77,664 जजों की) ने स्वयं ही मुखर होना प्रारंभ कर दिया।
उन्हें लग रहा था कि अब भी मुहँ नहीं खोला तो बहुत देर हो जाएगी। लेकिन देर तो हो चुकी थी। उन्हें जहाँ भी बोलने का अवसर मिला वहीं वे बोलते गए और बीमारी का स्थान स्पष्ट होता चला गया। जिस तरह से हमारी न्याय की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गई उस के अनुरूप न्याय प्रणाली के आकार को नहीं बढ़ाया गया। अब आप ही सोचें कि एक कुर्ता जो आप ने चार साल की उम्र में सिलाया हो क्या उसे चौदह और चौबीस साल की उम्र में पहना जा सकता है? यही हुआ हमारी न्याय प्रणाली के साथ।
इधर हिन्दी ब्लागरी में तीसरा खंबा के साथ अदालत और जूनियर कौंसिल ब्लाग भी सामने आए जिन्हों ने इस अभियान में अपनी भूमिका तय की और जाने अनजाने ही एक दूसरे के सहयोगी बन गए। इन तीनों ब्लागों के पाठकों ने इन्हें पढ़ कर और टिप्प्णियाँ करते हुए इस अभियान को आगे बढ़ाया। भारत की न्याय प्रणाली में अनेक कमियाँ और दोष हो सकते हैं और हैं। लेकिन उन में से अधिकांश तो अदालतों की संख्या की कमी के कारण है। यदि अदालतों की संख्या पर्याप्त हो तो उन में से बहुत सी कमियाँ और दोष स्वतः ही दूर हो सकते हैं।
भारतीय न्याय प्रणाली के नेतृत्व अर्थात मुख्य न्यायाधीश और उन के सहयोगी उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की चिन्ता इतनी बढ़ चुकी है कि उन्हें अब अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर इस बात को उठाना पड़ रहा है। (मुकदमों के अंबार में न्याय प्रणाली का दम घुट जाएगा) और अब तो बात यहाँ तक पहुँच चुकी है कि अदालतों के निर्णयों में भी यह कहना पड़ रहा है। जो हमारे रिकार्ड का अभिन्न हिस्सा बनता जा रहा है।
यह सही है कि न्याय प्रणाली के आकार पर वक्त रहते ध्यान नहीं देने के लिए हमारी केन्द्र और राज्यों की सरकारें जिम्मेदार हैं, और अब यह तथ्य दस्तावेजों में दर्ज हो चुका है। राजनीति की तराजू पर आज ये दस्तावेज वजन नहीं नजर आ रहे हैं, लेकिन इतिहास में ये सब बातें दर्ज हो चुकी हैं। इतिहास किसी को नहीं बख़्शता। आज के राजनेताओं को भी नहीं बख़्शेगा।
तीसरा खंबा ने यह प्रश्न कुछ दिन पहले आप के सामने रखा था कि क्या न्याय प्रणाली में सुधार चुनावों में चर्चा का विषय बनेंगे? पर इसी बीच आतंकवाद, क्षेत्रीयता आदि फर्जी मुद्दे इस जोरों से
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ओर कब तक सर से पानी गुजरने का इंतज़ार है….?
जब तक पानी सर से ऊपर ना हो जाए हम कहाँ संभलते हैं?
aap ki baat se sahmat hain–samay rahtey ab to sabhi ko chet jaana chaheeye–
रवि ने सम्मन भेजने की पुरानी व्यवस्था का जिक्र किया है। और फिर लाद-फांद कर आदमी गवाही को पंहुचे तो पत्ता हिलते अगली डेट पड़ जाती है।
गवाह अपने को अभियुक्त सा पाता है। ह्यूमन डिग्निटी की कद्र होनी चाहिये। यह कद्र जितना जजों की अधिक पोस्टों पर निर्भर है, उससे ज्यादा यह एटीट्यूडनल मामला है।
देश में व्याप्त असंख्य विसंगतियों और प्रतिकूलताओं को समाप्त करन के लिए ब्लाग विधा का उपयोग तेज, धारदार और प्रभावी हथियार के रूप में किया जा सकता है – यह विश्वास मुझे, ब्लाग जगत में पहला कदम रखने के प्रथम क्षण से ही हुआ था जो अब भी बना हुआ है । अपनी प्रारम्भिक पोस्टों में से एक पोस्ट ‘ब्लागियों उजड जाओ’ में मैं ने यही कहा था जो आप कह रहे हैं ।
हमारी व्यवस्था ‘कागज’ से चलती है ‘ एक कही, सौ लिखी ।
सुनिश्चित स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित कर, तय रणनीति पर चलकर ब्लग विधा का सदुपयोग कर देश में अपेक्षित परिवर्तन लाए जा सकते हैं ।
न्यूनतक सहमति के बिन्दु तलाश कर, किसी एक को नेतृत्व सौंप कर कोई शुरुआत यदि होती है तो मैं साथ चलना चाहूंगा ।
आपने बड़े सटीक और सामयीक तथ्य रखे हैं ! समय चुक गए तो उसकी भरपाई होना बड़ा मुश्किल है ! धन्यवाद !
जब तक साझा सरकार चलती रहेगी, अपराधी नेता बने घूमते रहेंगे, सरकार उनका कुछ कर नही पायेगी समर्थन जो चला जायेगा। बस वो मनमानी करते रहेंगे, उनके कुछ और गुर्गे होंगे जिन पर उनका वरद हस्त होगा उन्हें भी कुछ नही होना। पैसे वाले पैसा सुँघा कर निकल लेते हैं तो बचा कौन एक आम गरीब पिसा आदमी।
जिस दिन इन लोगों का सब्र टूटेगा नक्सलियों की बाढ़ आयेगी फिर जाकर शायद किसी की नींद खुले।
यदि अब भी हमारी जनता नहीं चेती तो ये राजनेता इस देश को उस गर्त में पहुँचा देंगे जहाँ से उसे वापस निकाल लाना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो जाएगा।
-बिल्कुल सही कह रहे हैं आप!!