लोक अदालत, विधिक सेवा प्राधिकरण और स्थाई लोक अदालतें
समस्या-
बिलासपुर छत्तीसगढ़ से नवीन अग्रवाल ने पूछा है-
यह लोक अदालत क्या है? उन का गठन कैसे होता और उन का कार्यक्षेत्र क्या है?
समाधान –
अपराधिक मामलों के अतिरिक्त जितने भी मामले हैं उन में कोई न कोई एक पक्षकार अपने किसी न किसी दीवानी अधिकार के लिए न्यायालय के समक्ष दावा प्रस्तुत करता है। दूसरे पक्षकारों को न्यायालय द्वारा बुलाया जाता है और सुनवाई के उपरान्त मुकदमों में निर्णय प्रदान किया जाता है। कोई अपील न होने या अपील के बाद जब निर्णय अंतिम हो जाता है तो उसे पक्षकारों को मानना होता है यदि पक्षकार उसे नहीं मानते तो उस निर्णय के आधार पर बने जयपत्र (डिक्री) का निष्पादन न्यायालय कराती है। यही न्याय की सामान्य प्रक्रिया है।
आजादी के बाद से अभी तक हमारी राज्य व्यवस्था त्वरित न्याय के लिए पर्याप्त न्यायालय स्थापित नहीं कर सकी है। हमारे न्यायालयों पर काम का बोझ अत्यधिक है। नित नए कानूनों के कारण यह बोझ लगातार बढ़ता भी है। लेकिन बढ़ते हुए बोझ के अनुरूप भी न्यायालयों की स्थापना नहीं हो पा रही है। वर्तमान में हमारी न्याय व्यवस्था में न्यायालयों की संख्या जरूरत की 20 प्रतिशत है। भारत में 10 लाख की आबादी पर औसतन 11-12 न्यायाधीश हैं। जब कि इतनी आबादी पर ब्रिटेन में 55 और अमरीका में 130 के लगभग न्यायाधीश हैं। अमरीका से हमारी न्याय पालिका 10 प्रतिशत ही है। इस कारण से मुकदमों की संख्या कम करने के उद्देश्य से लोक अदालत का सिद्धान्त सामने आया।
गैर अपराधिक मामलों में पक्षकारों के बीच समझौता हो जाए तो मामला निपट जाता है। न्यायालय समझौते के आधार पर निर्णय और डिक्री पारित कर देता है। आधार दोनों पक्षकारों की सहमति होने से उस की कोई अपील भी नहीं हो सकती और अधिकांश मामलों में निष्पादन कराने की आवश्यकता भी नहीं होती है। तब यह सोचा गया कि ऐसे मामलों में यदि दोनों पक्षकारों को समझा-बुझा कर किन्हीं शर्तों पर समझौता करा दिया जाए और उस के आधार पर निर्णय पारित कर दिया जाए तो अदालतों के पास मुकदमों की संख्या कम की जाए। कुछ स्थानों पर इस तरह के प्रयत्न किए गए जिनमें सफलता भी मिली। तब इसे अभियान का रूप दे दिया गया। जिस में समाज के प्रभावशाली लोगों की मदद भी हासिल की गई। बाद में यह सिद्धान्त मामूली अपराधों के मामलों पर भी लागू किया गया। यदि कोई अपराधी यह अपना अपराध कबूल कर ले तो उस के प्रति नरमी बरती जाए। कोशिश की जाए कि ऐसे अपराधियों को चेतावनी दे कर या जुर्माने मात्र की सजा से दंडित कर छोड़ दिया जाए। तो इन मामली अपराधिक मामलों में भी आवेदन आने लगे कि उन का निपटारा लोक अदालत में किया जाए।
इस तरह जो लोक अदालत लगती है वह वास्तव में एक आयोजन होता है जिस में समझौते के आधार पर या अपराध स्वीकृति के आधार पर मामलों का निपटारा कर दिया जाता है। कई राज्यों में हर अदालत माह में एक दिन या सप्ताह में एक दिन इस तरह से मामलों का निपटारा करती है। इसी दिन को कहा जाता है कि लोक अदालत लगी है।
वर्ष 1976 में 42 वें संशोधन के द्वारा भारत के संविधान में अनुच्छेद 39 के जोडा गया था जिसके द्वारा शासन से अपेक्षा की गई कि वह यह सुनिश्चित करे कि भारत का कोई भी नागरिक आर्थिक या किसी अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय पाने से वंचित न रह जाये। इस उददेश्य की प्राप्ति के लिए सबसे पहले 1980 में केन्द्र सरकार के निर्देश पर सारे देश में कानूनी सहायता बोर्ड की स्थापना की गई। बाद में इसे कानूनी जामा पहनाने हेतु भारत सरकार द्वारा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 पारित किया गया जो 9 नवम्बर 1995 में लागू हुआ। इस अधिनियम के अन्तर्गत विधिक सहायता एवं स्थाई लोक अदालतों की स्थापना के उपबंध बनाए गए। स्थाई लोक अदालतों के संचालन का अधिकार राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को दिया गया।
राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण में कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त अथवा सेवारत न्यायाधीश और सदस्य सचिव के रूप में वरिष्ठ जिला जज की नियुक्ति की जाती है। इसके अतिरिक्त महाधिवक्ता, सचिव वित, सचिव विधि, अध्यक्ष अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन’जाति आयोग, मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से दो जिला न्यायाधीश, अध्यक्ष बार काउन्सिल, राज्य प्राधिकरण के सचिव प्राधिकरण के सदस्य होते हैं। इनके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से 4 अन्य व्यक्तियों को नाम’ निर्दिष्ट सदस्य बनाया जाता है।
इसी प्रकार प्रत्येक जिला में जिला विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है। जिसके अध्यक्ष संबंधित जिला के जिला जज हैं और सब जज स्तर के एक न्यायिक अधिकारी को जिला प्राधिकरण का सचिव नियुक्त किया गया है। पुलिस अधीक्षक, जिला दण्डाधिकारी, अध्यक्ष जिला बार एसोसियेशन, जिला शासकीय अधिवक्ता, दीवानी फौजदारी एवं राजस्व जिला प्राधिकरण के पदेन सदस्य होते है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा माननीय मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से 2 अन्य सदस्यों को नाम निर्दिष्ट किया जाता है।
राज्य और जिला स्तर के विधिक सेवा प्राधिकरण निम्न कार्य करते हैं-
1. पात्र व्यक्तियों को विधिक सेवा उपलब्ध कराना।
2. लोक अदालतों का आयोजन करके सुलह समझौते के माध्यम से विवादों का निपटारा कराना।
3. निवारक और अनुकूल विधिक सहायता कार्यक्रमों का संचालन करना।
4. विधिक सेवा उपलब्ध कराने हेतु अत्यधिक प्रभावी एवं कम खर्चीली योजनायें तैयार करके उन्हें क्रियान्वित करना।
5. ग्रामीण क्षेत्रों, गन्दी बस्तियों या श्रमिक कालोनियों में समाज के कमजोर वर्गों को उनके विधिक अधिकारों की जानकारी देने हेतु विधिक शिविरों का आयोजन करना।
6 पारिवारिक विवादों को सुलह समझौते के आधार पर निपटाना।
जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों के अंतर्गत ही जिला स्तर पर स्थाई लोक अदालतों का गठन किया गया है। इन अदालतों का क्षेत्राधिकार पूरा जिला होता है तथा किसी भी मूल्य के गैर राजस्व और गैर अपराधिक मामले यहाँ प्रस्तुत किए जा सकते हैं। स्थाई लोक अदालतों में प्रस्तुत किए गए मामलों को लोकउपयोगी सेवाओँ के मामले तथा अन्य मामलों में विभाजित किया गया है।
विधिक सेवा प्राधिकरण( संशोधन) अधिनियम,2002 के द्वारा इस एक नया अध्याय जोड कर जन उपयोगी सेवा को परिभाषित करते हुये वायु, थल, अथवा जल यातायात सेवा जिससे यात्री या समान ढोया जाता हो, डाक, तार, दूरभाष सेवा, किसी संस्थान द्वारा शक्ति, प्रकाश या जल की आम लोगों को की गयी आपूर्ति, जन संरक्षण या स्वास्थ्य से संबंधित प्रबंध, अस्पताल या औषधालय की सेवा तथा बीमा सेवाओं को लोकउपयोगी सेवाएँ इसमें शामिल किया गया है। इन जन उपयोगी सेवाओं से संबंधित मामलों को स्थायी लोक अदालतों द्वारा निपटारा किया जा सकता है।
इन लोक अदालतों में आवेदन प्रस्तुत होने पर प्रत्येक पक्ष को निदेश दिया जाता है कि वे अपना लिखित कथन, दस्तावेज व शपथ पत्र पर साक्ष्य प्रस्तुत करें। इसके बाद लोक अदालत पक्षकारों में सुलह करवाने की प्रक्रिया करता है। वह उभय पक्ष में सुलह करने के लिये शर्त भी तय करता है ताकि वे सुलह कर लें और सुलह होने पर वह एवार्ड देता है। यदि पक्षकारों में सुलह नहीं होती है तो वह मामले का निष्पादन प्राकृतिक न्याय, सबके लिये बराबर का व्यवहार, समानता तथा न्याय के अन्य सिद्धान्तों के आधार पर बहुमत से कर देता है। इस लोक अदालत का एवार्ड अन्तिम होता है तथा इसके संबंध में कोई मामला, वाद या इजराय में नहीं लिया जा सकता है। इस लोक अदालत में इससे संबंधित आवेदन के उपरान्त कोई भी पक्ष किसी अन्य न्यायालय में नहीं जा सकता है।
लोक सेवाओँ से संबंधित मामलों के अतिरिक्त अन्य मामलों में स्थाई लोक अदालत पक्षकारों में सुलह करा कर समझौते के आधार पर अवार्ड दे सकती है लेकिन सुलह संभव नहीं हो सके तो वह अवार्ड पारित नहीं कर सकती और वैसी स्थिति में वह पक्षकारों को राय देती है कि वे अपना मामला नियमित न्यायालयों के समक्ष प्रस्तुत करें। किसी न्यायालय में पहले से लंबित मामलों में आवेदन दे कर उन्हें स्थाई लोक अदालत को स्थानान्तरित कराया जा सकता है और न्यायालय में कोई मामला प्रस्तुत करने के पहले भी मामले को स्थाई लोक अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है।
बहुत बहुत धन्यवाद सर |