वकील फिर भी हड़ताल करते हैं।
|सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है कि वकीलों को हड़ताल का कोई अधिकार नहीं,वकील फिर भी हड़ताल करते हैं।
वकील अपने अधिकार क्षेत्र का उलंघन करते हैं। वे कानून के विशेषज्ञ हैं, उन्हें कानून के सब रास्ते पता हैं, कानून के रास्ते से समस्या हल करना उन का पेशा है, न्याय प्रणाली की वे मूल हैं, संख्या में न्याय प्रणाली की कुल मेनपॉवर के अस्सी प्रतिशत से अधिक हैं। वकील फिर भी हड़ताल करते हैं।
लखनऊ, कानपुर, बनारस, पटना, रांची, दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, चण्डीगढ़, जयपुर, जोधपुर, भोपाल, इन्दौर, बागपत, अहमदाबाद, बड़ौदा ……… और पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, बंगाल देश का कोई शहर और प्रान्त नहीं जहाँ के वकील हड़ताल पर नहीं जाते हों।
वकीलों की ये हड़तालें एक दिन की सांकेतिक प्रकार की भी होती हैं और दो-दो माह लम्बी भी। जब तक हड़ताल चलती है अदालतों का सारा काम ठप्प हो जाता है, अदालतें लगती हैं, पेशियां बदलने के लिए, न्यायार्थी आते हैं और नयी पेशी नोट कर वापस चले जाते हैं। तेज-तर्रार वकील उनसे फीस भी जमा करा लेते हैं। यह सब चलता रहता है, न्याय प्रणाली भी चलती रहती है, ऐसे ही।
दसेक साल पहले वकीलों की हड़तालें कम ही देखने को मिलती थीं।कोई हड़ताल होती भी थी तो उस की वजह जनता से जुड़ा होता था। वह बहुत बड़ी बात होती थी।आन्दोलन में जनता के विभिन्न हिस्से भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।अब हड़ताल की वजहें मामूली होती हैं, वकील अकेले जूझते रहते हैं।जनता उन्हें बुरा कहती है, पीठ पीछे गालियां भी दे लेती है।वकील फिर भी हड़ताल करते हैं।
उन की हड़ताल टूटती नहीं है।वे रण जीत कर, या हार कर, या खिसिया कर हड़ताल स्वयं ही समाप्त करते कते हैं।हड़ताल के दिनों में वकीलों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है, वकील फिर भी हड़ताल करते हैं।
पहले वकील ऐसा नहीं करते थे, लेकिन अब करते हैं। कोई तो गम्भीर कारण होंगे जिन के कारण वे हड़ताल करते हैं। जो कारण दिखाई देते हैं, वे तो कोई गम्भीर कारण नहीं हैं। तो फिर असली और गम्भीर कारण कौन से हैं? इन कारणों की पड़ताल होनी चाहिए, अगर हमें देश की न्याय व्यवस्था को सक्षम और सुचारु बनाना है तो पड़ताल करनी होगी।देश में न्याय व्यवस्था सही तरीके से चले, इस की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की है।उसे बहुत पहले इस पड़ताल में जुट जाना चाहिए था।लेकिन उस पर कोई असर नहीं है। दूसरी जिम्मेदारी विधायिका यानी संसद की है।उस में या किसी विधानसभा में कभी इस विषय पर कोई बहस नहीं हुई।तीसरी जिम्मेदारी लोकतन्त्र के तीसरे खंबे यानी न्यायपालिका की है, उस के शिखर मंच सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे कर कर्तव्य की इति श्री कर दी है।कह दिया कि वकीलों को हड़ताल का कोई अधिकार नहीं,वकील फिर भी हड़ताल करते हैं।
अगर वकीलों को हड़ताल का कोई अधिकार नहीं और वकील फिर भी हड़ताल करते हैं, तो कार्रवाई क्या होती है? किसी को पता नहीं।दूसरी हड़तालों के लिए भी ऐसे ही निर्णय होते हैं कि वे गैर कानूनी हैं।लेकिन फिर भी वहाँ बातचीत के दौर चलते हैं और हल निकल आता है।हड़तालों की बढ़ती प्रवृत्ति पर चर्चाऐं होती हैं, शोध होते हैं।वकीलों में बढ़ती प्रवृत्ति पर कोई अग्रलेख नहीं लिखता, कोई नहीं छपता।आखिर इतनी बड़ी और गम्भीर समस्या की इतनी उपेक्षा कयों हो रही है?
कोई इस का उत्तर देगा? पाठकों में से कोई अपने विचार देगा?
अगर ऐसा हो तो एक महत्वपूर्ण काम के प्रारम्भ का सेहरा चिट्ठाकारों के सिरों पर होगा। लोग आगे आऐं तो बेहतर,नहीं आऐं तो भी हम तीसरा खंबा पर अगली कड़ियों में यह काम प्रारम्भ करने जा रहे हैं।
aadrniya bhaai saaheb vkilon ki hdtaal ke baare men aapke vichaar pdhe bhut achche hen lekin vkilon ki hdtaal ki vjh kyaa he isko bhi hmen tlaash kr use dur krna hoga. akhtar khan akela kota rajasthan
दिनेश जी, नमस्कार
आपके ब्लाग पर पहली बार ही आया हूं। ज़रूरत ऐसे ही ब्लाग की थी आज के हालात में।
आप कोटा से है जानकर और भी अच्छा लगा क्योंकि मैं सन् 1993से 95 तक वहां रह चुका हूं। सिविल लाइंस में । बहुत पसंद आया वह शहर…खासतौर पर वहां के पोरवाल हलवाइयों द्वारा बनाई जाने वाली हींग की अद्वुत सुवास वाली कचौरियां। आज भी मंगवाता हूं अपने लिये ।
सफर का हमसफर बनने का शुक्रिया। अक्सर लगा करेगा फेरा।
गम्भीरता से विचार नहीं किया। यह जरूर लगता है कि हड़ताल कुछ ज्यादा ही करते हैं वकील। एक आध बार करें तो खबर अच्छी बने और चर्चा भी हो।
मैं रेलवे में जानता हूं – काम न करना और हड़ताल बार बार करना उन स्थानों पर ज्यादा होता है, जहां काम कम है और निठल्लापन ज्यादा। अथवा उन स्थानों पर है जहां कर्मियों की कंसंट्रेशन ज्यादा है। कुछ वैसे तत्व वकीलों में भी ढ़ूंढ़ने होंगे।