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शो-पीस बना, घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण का कानून

क्या यह कड़ुआ सच नहीं कि सरकारें सामाजिक समस्या के प्रति बस इतना ही दायित्व निभाती हैं कि उस पर कानून बना दें और उस का प्रचार कर लें कि उस ने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। अब समाज में से यह अन्याय जल्दी ही उठ जाएगा या कानून और सरकार से भयभीत हो कर अन्याय करने वाले चुप बैठ जाएँगे।

ऐसा ही कुछ महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को रोकने के मामले में हो रहा है। संसद ने घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण का कानून बनाया है। इस कानून के अंतर्गत सरकारों, उन की पुलिस और अदालतों की जिम्मेदारियाँ तय कर दी गई हैं।  कानून के अन्तर्गत इस बात का भी प्रावधान है कि घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को तत्काल सहायता प्रदान की जाए। लेकिन अधिकांश सरकारों ने न तो इस कानून के अंतर्गत संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति की है। बस समाज कल्याण विभाग या महिला व बाल विकास विभाग के कुछ अधिकारियों को संरक्षण अधिकारी घोषित कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर दी है। ये अधिकारी अपने विभाग के कामों को इस अधिनियम के अंतर्गत मिली जिम्मेदारियों पर तरजीह देते हैं, जिस का नतीजा यह है कि उन के पास पहुंची शिकायतें या अदालतों द्वारा जाँच करने के लिए दिए गए मामले उन के दफ्तरों की किसी अलमारी में धूल खा रहे होते हैं। अदालतें उन की रिपोर्ट के इन्तजार में तारीखें पलटती रहती हैं।

पुलिस का मामला तो इस से भी अजीब है। तमिलनाडु से मिले एक समाचार से पता लगता है कि तमिलनाडु सरकार के गृह विभाग ने 2008-09 के पॉलिसी दस्तावेज में यह तो स्वीकार किया है कि महिलाओं के प्रति अपराध खतरनाक अनुपात तक पहुँच चुके हैं।  लेकिन, सरकार ने इस मुद्दे से निपटने के लिए कोई भी कदम उठाने की घोषणा नहीं की है।  न तो सरकार के समाज कल्याण विभाग  ने और न ही गृह विभाग ने इस तरह के अपराधों को रोके जाने के लिए कोई नीति घोषित की है, अलावा इस के कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम में दायर मामलों के निपटारे के लिए  के अन्तर्गत सभी जिलों में  संरक्षण अधिकारियों और कनिष्ठ सहायकों की नियुक्ति की जाए.

चेन्नई शहर की पुलिस द्वारा महिलाओं के लिए संचालित की जाने वाली हेल्पलाइन के एक ऑपरेटर ने एक समाचार पत्र के संवाददाता को बताया  को प्रतिदिन औसतन 10 शिकायतें प्राप्त होती हैं। यहाँ तक कि आधी रात को भी उन के पास ह्स्तक्षेप के लिए फोन कॉल्स आती हैं जिन में अधिकांश कॉल घरेलू हिंसा के बारे में होती हैं, उन में भी ज्यादातर दहेज उत्पीड़न की होती हैं।  50 % से अधिक शिकायतकर्ता उच्च मध्य वर्ग या उच्च वर्ग के होती हैं. यदि शिकायत तत्काल हस्तक्षेप के योग्य नहीं होती तो काल सेंटर उन्हें पुलिस आयुक्त के यहाँ जा कर शिकायत करने या उन्हें सलाहकारों (कौंसलर्स) को सोंपने के लिए कहते हैं। नगर पुलिस आयुक्त कार्यालय को की गई शिकायत उपायुक्त के पास भेजी जाती है, जो उसे उपायुक्त को भेजता है, जहाँ से वह सहायक आयुक्त को भेजी जाती है और वहाँ से  यह पुलिस स्टेशन को भेजी जाती है। अधिकतर मामलों मे इस तरह बहुत समय व्यर्थ हो जाता है। अधिकांश मामलों में तो महिलाएँ कमिश्नरी के बजाए निकट के स्थानीय पुलिस के पास ही पहुँचती हैं।  चेन्नई की वकील गीता रमेशन ने बताया है कि,  "यदि कोई महिला अपने पति, ससुराल वालों या परिजनों के खिलाफ शिकायत करती है तो उसे एक सामाजिक बहिष्कृत समझा जाता है। नतीजतन वह हिंसा का शिकार होने के बावजूद भी उसी परिवार के साथ रहने को सुरक्षित समझती है। कमोबेश यही हालत सभी राज्यों में है।

इस कानून का लाभ अपने मुवक्किलों को देने के लिए वकीलों ने परिवार न्यायालय का रुख करने के बजाए इस अधिनियम के अंतर्गत मुकदमें दर्ज कराना शुरू कर दिया, और जल्दी ही निचली अदालतों में मुकदमे बढ़ने लगे। इन अदालतों के पास पहले ही मुकदम
ों की संख्या स्टेण्डर्ड से चार से सात गुना तक थी। नतीजा वही कि न्याय में देरी! जिस का अर्थ कोई न्याय नहीं। इस के अलावा निचली अदालतों के अधिकांश जजों ने यह धारणा भी बना ली कि महिलाएँ जानबूझ कर इस तरह की शिकायतें कर रही हैं। आखिर जज भी तो उसी पुरुषीय अहंकार से ग्रस्त हैं जिस से सारा समाज। नतीजा यह है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण का कानून एक शो-पीस बन कर रह गया है।

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