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सब को दिखाई देता है, सिर्फ सरकार अन्धी है

च्चतम न्यायालय का कहना है कि यदि कोई अधिकार औद्योगिक विवाद अधिनियम तथा आनुषंगिक विधि से उत्पन्न हुआ है तो उस से संबंधित विवादों के हल के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम में प्रदत्त उपाय ही किए जाने चाहिए। इस का यह अर्थ हुआ कि औद्योगिक विवादों के लिए सिर्फ और सिर्फ औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत ही मामला ले जाया जा सकता है, उच्च न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार और सिविल न्यायालय के सामान्य दीवानी क्षेत्राधिकार के अंतर्गत इन मामलों को नहीं उठाया जा सकता। 
द्योगिक विवाद अधिनियम में उपाय यह है कि कोई भी औद्योगिक विवाद उत्पन्न होने पर उचित सरकार के श्रम विभाग में शिकायत प्रस्तुत की जाए। श्रम विभाग उस पर विपक्षी की टिप्पणी आमंत्रित करेगा। तत्पश्चात यदि श्रम विभाग को प्रतीत होता है कि मामला वास्तव में एक औद्योगिक विवाद है तो उस पर समझौता वार्ता आरंभ की जाएगी। यदि समझौता वार्ता में पक्षकारों में कोई समझौता संपन्न नहीं होता है तो फिर रिपोर्ट उचित सरकार को प्रेषित कर दी जाती है। उचित सरकार उस रिपोर्ट के आधार पर मामले पर विचार कर के श्रम न्यायालय या औद्योगिक न्यायाधिकरण को संप्रेषित कर देता है। 
औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 में अस्तित्व में आया था। तब औद्योगिक विवादों की संख्या कम थी और राज्य सरकार की मशीनरी सही रीति से काम करती थी। तीन से छह माह की अवधि में कोई भी ओद्योगिक विवाद न्यायालय में पहुँच जाता था। न्यायालय भी ऐसे मामलों में एक-दो वर्ष में निर्णय प्रदान कर देता था। धीरे-धीरे औद्योगिक विवाद बढ़ते गए। श्रम विभागों के पास भी दूसरे कामों का आधिक्य हो चला। ऐसे में औद्योगिक विवादों को हल करने की मशीनरी अपर्याप्त होती चली गई। अब यह स्थिति है कि एक औद्योगिक विवाद को शिकायत प्रस्तुत करने के उपरांत न्यायालय तक पहुँचने में एक वर्ष से ले कर तीन-चार वर्ष का समय तो व्यतीत हो ही जाता है।
धर औद्योगिक न्यायाधिकरणों और श्रम न्यायालयों की स्थिति यह है कि जिन क्षेत्रों में औद्योगिक विवाद अधिक हैं वहाँ के न्यायालयों में तीन-चार हजार विवाद हमेशा लंबित रहते हैं। अनेक विवाद ऐसे हैं जो पच्चीस तीस वर्ष की अवधि से उन में लंबित हैं। औद्योगिक विवाद अधिनियम में प्रावधान है कि धारा 33 सी (2) के मामले तथा सेवा समाप्ति से संबंधित मामलों में तीन माह में अधिनिर्णय पारित कर दिया जाना चाहिए। लेकिन कार्याधिक्य के कारण यह संभव नहीं है। धरातल की वास्तविकता यह है कि ऐसे मामलों में दो तारीखों के बीच का फासला ही तीन से छह माह तक का होता है। इस तरह कानून की पालना के लिए सरकार पर्याप्त मशीनरी उपलब्ध नहीं करा रही है।
दूसरी ओर स्थिति यह भी है कि अनेक औद्योगिक न्यायाधिकरण व श्रम न्यायालय केवल क्षेत्रीय आधार पर स्थापित किए गए हैं। लेकिन वहाँ तीन सौ से पाँच सौ तक ही मुकदमे लंबित हैं। एक न्यायालय में पदस्थापित न्यायाधीश का कथन था कि यदि वे अपनी पूरी क्षमता से काम करने लगें तो एक वर्ष में अदालत में मुकदमों की संख्या दस भी न रह जाएगी। अदालत की स्थापना का औचित्य समाप्त हो जाएगा। राजस्थान में इन दोनों तरह की अदालतों की संख्या लगभग बराबर सी है। श्रम विभाग के ही एक उच्च स्तरीय अधिकारी ने बातचीत को दौरान इस स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा कि वर्तमान स्थिति को सुधारा जा सकता है इस तरह तीन सौ से पाँच सौ मुकदमे वाली दो अदालतों में से एक को दूसरी का काम भी करने को दिया जाए। अदालत 15-15
दिन दोनों स्थानों पर बैठ कर कार्य करे तो भी उसी गति से कार्य हो सकता है जिस से हो रहा है। इस तरह एक न्यायालय बिलकुल खाली हो लेगा। उसे उस स्थान पर स्थानान्तरित किया जा सकता है जहाँ के न्यायालय के पास तीन से चार हजार मुकदमे लंबित हैं। एक के स्थान पर दो अदालतें हो जाने पर मुकदमों के निपटारे की गति कम से कम आधी की जा सकती है। 
ह उपाय श्रम विभाग के उच्चाधिकारियों के ज्ञान में है। राज्य के सभी श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों के ज्ञान में भी है। लेकिन केवल राज्य सरकार ही इस से अनभिज्ञ है। राज्य सरकार को भिज्ञ बनाने के लिए श्रम संगठन लगातार ज्ञापन आदि भी प्रेषित कर रहे हैं। लेकिन लगता है ऐसे मामलों में सरकारें जानबूझ कर ही अनभिज्ञ बनी रहना चाहती हैं। यदि वे एक सुव्यवस्था स्थापित कर देंगी तो फिर जिन क्षेत्रों में अधिक विवाद हैं उन क्षेत्रों के उद्योगपतियों का हित साधन कैसे हो सकेगा? वे अपने कर्मचारियों को बरसों विवाद लंबित रहने का भय दिखा कर उन के साथ मनमानी कैसे कर सकेंगे?
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