कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट क्या है?
|न्यायालय. किसी भी राज्य की अंतिम प्राचीर हैं। बिना किसी सेना के एक राज्य का अस्तित्व हो सकता है लेकिन न्यायालयों के बिना राज्य की प्राधिकारिता में जनता के विश्वास को बनाए रखना असंभव है। आदि-काल में राजा व्यक्तिगत रूप से स्वयं न्यायालय में बैठता था और न्याय करता था। जैसे-जैसे शासन की कला का विकास हुआ, वैस- वैसे राजा ने अपनी शक्तियों को सरकार के तीन अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में बांट दिया। न्यायाधीश राजा के नाम से न्याय करने लगे। .यह राजा का न्याय था, इस कारण उस के प्रति पूरे सम्मान और आदर की अपेक्षा की जाने लगी। न्याय-पीठ के प्रति कोई भी असम्मान उस की गरिमा और महिमा के विरुद्ध माना जाता। यदि कानून के प्रति जनता की निष्ठा को मूलभूत रूप से हानि पहुँचाने वाला कोई भी कृत्य न्याय के लिए सब से घातक और खतरनाक माना जाता। क्यों कि यह व्यक्तिगत रुप से जजों की सुरक्षा को नहीं अपितु राजा के द्वारा जनता के लिए किए जा रहे न्याय के प्रशासन में अवरोधकारी समझा जाता।
आदिकालीन राज्यतंत्रों में न्याय की सर्वोच्च महिमा के इस सिद्धान्त का बाद में प्रजातांत्रिक राज्यों में भी अनुसरण किया गया। आजादी पसंद आधुनिक दुनिया की जन-उत्तरदायी राज्यों के युग में भी न्यायपीठ के प्रति विशेष सम्मान का यह सिद्धान्त आज भी जीवित है और न्याय-पीठ प्रति किसी भी प्रकार का अपमानजनक व्यवहार दण्डनीय है।
न्याय की सामान्य प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने वाला और हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला प्रत्येक कृत्य न्यायालय की अवमानना (कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट) है। न्यायालयों की अवमानना के मामलों में लोगों से जिस अनुशासन की अपेक्षा की जाती है उस का अर्थ न्यायालयों और व्यक्ति के रूप में न्यायाधीशों के प्रति सम्मान बनाए रखना नहीं है। अपितु न्याय प्रशासन की प्रक्रिया को अनावश्यक हस्तक्षेपों से बचाए रखना है। यह जनता की आंकाक्षाओं के अनुरूप भी है, जो कि न्याय प्रशासन की स्वच्छता, निष्पक्षता और अधिकारिता की आभा और सम्मान को बनाए रखना चाहती है।
असम्मानजनक व्यवहार द्वारा जनता के बीच न्यायालयों के विश्वास को नष्ट करने की अनुमति किसी भी व्यक्ति को नहीं दी जा सकती है, भले ही वह स्वयं जज ही क्यों न हो। एक गलती करने वाला न्यायाधीश और न्यायालय की अवमानना कर न्याय प्रशासन में बाधा उत्पन्न करने वाला व्यक्ति न्याय प्रशासन की स्वच्छता, निष्पक्षता, अधिकारिता और गरिमा के प्रति इस सीमा तक समान रूप से घातक हैं कि दोनों ही न्याय प्रशासन की गरिमा को नष्ट करने का काम करते हैं। किसी भी निर्णय की उचित, ईमानदार और निष्पक्ष आलोचना न्यायालय की अवमानना नहीं है। इतना अवश्य है कि इस आलोचना की भाषा असम्मानजनक नहीं होनी चाहिए।
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dwivedi jee,
vidhi jaise vishay kee baareekiyon ko itnee saraltaa se koi aap jaisaa hee samjha saktaa hai dhanyavaad.
आपके ब्लॉग पर आकर काफ़ी जानकारी मिलती है…
शुक्रिया आपने अच्छे तरीके से समझा दिया
बहुत बढीया जानकारी।
लगता है बाद मे जूर्म बहुत बढ गया होगा और राजा सजा देते देते थक गया होगा तभी
न्यालय बना दीये होंगे। 🙂
न्यायालयों की अवमानना के मामलों में लोगों से जिस अनुशासन की अपेक्षा की जाती है उस का अर्थ न्यायालयों और व्यक्ति के रूप में न्यायाधीशों के प्रति सम्मान बनाए रखना नहीं है। अपितु न्याय प्रशासन की प्रक्रिया को अनावश्यक हस्तक्षेपों से बचाए रखना है।
और यह एक सामान्य व्यक्ति से लेकर न्याय प्रशासन से जुड़े ….सभी पर समान रूप से लागू होता है.क्या यह न्यायधीशों पर भी लागू होता है ??. जनोपयोगी जानकारी. शुक्रिया.
आपकी पोस्ट से, जो हमको नही मालुम था उसको सही तरीके से जान पाये ! आभार आपका ! और आपकी ससुराल की शादी के लिए आपको और संबंधियों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ! और मिठ्ठाई थोड़ी सी ज्यादा लाईयेगा ! राजस्थान की पेठा पापडी की खुश्बू आने लगी है शादी के नाम पर !:)
अब तक यही धारणा थी कि न्यायालय के निर्णयों की अवहेलना करना ही न्यायालय की अवमानना होता है । लेकिन इसका फलक कितना विस्तृत है, यह आपकी इस ‘ज्ञानदायी’ पोस्ट से ही जान सका ।
बहुत उम्दा जानकारी…आभार!!
जानकारी के लिए धन्यवाद