जनता के धन के अपव्यय के सवाल पर कोई ध्यान देता है?
|कल जिला उपभोक्ता मंच में एक मुकदमे में अंतिम बहस थी। लगभग डेढ़ वर्ष से मंच में सदस्यों की नियु्क्ति न होने से काम नहीं हो रहा था। डेढ़ वर्ष तक मंच का खर्च बिना किसी उपयोगिता के चलता रहा, जज साहब और सारा स्टाफ खाली बैठा रहा। जनता का लाखों रुपया पानी में बह गया। यह राज्य सरकार का काम था लेकिन राज्य सरकार ने इसे त्वरित गति से क्यों नहीं किया? इस सवाल को राज्य सरकार से कौन पूछे? और पूछ भी ले तो राज्य सरकार इस का उत्तर क्यों दे? जिस राजनैतिक दल (भाजपा) की सरकार है वह राज्य में चुनाव लड़ रहा है। उस के किसी उम्मीदवार से पूछा जाए तो उस का जवाब यही होगा कि यह मुख्यमंत्री के स्तर का मामला था वे क्या कर सकते थे? फिर चुनाव में इस प्रश्न और इस तरह के अनेक प्रश्नों का क्या महत्व है?
ये नियुक्तियाँ क्यों नहीं हुईं? सब जानते हैं कि ये नियुक्तियाँ राजनैतिक आधार पर होती हैं। सत्ता दल के कार्यकर्ताओं को इन पदों पर स्थान मिलता है। चुनाव के वक्त बहुत से कार्यकर्ताओं को इन पदों का लालच दिया जाता है और वे दलों के लिए काम करते हैं। हालत यह है कि एक एक पद के लिए अनेक कार्यकर्ता जोर लगाते हैं। अब मुख्यमंत्री किसे खुश रखे और किसे नाराज करे? राजस्थान में सैंकड़ो पद इसी लिए खाली रहे और जनता का करोड़ों रुपया बरबाद किया गया। चुनाव के ठीक दो-चार माह पहले इन पदों में से कुछ पर नियुक्तियाँ कर दी गई हैं। इस तरह जनता के धन के का अपव्यय करने वाली राज्य सरकार के मुख्यमंत्री को किसी भी चुनाव में भाग लेने के अयोग्य ठहराने संबंधी संशोधन संविधान में नहीं किया जा सकता है?
कल भी मंच में बहस नहीं सुनी गई। मामला हाउसिंग बोर्ड से संबंधित था। किसी को 1987 में मकान आवंटित हुआ। 1999 में जब उस मकान का सारा पैसा जमा कर दिया गया और 2004 में जब मकान की लीज डीड का पंजीयन कराने का अवसर आया तो बताया गया कि गलती से 1983 की दर से कीमत ले ली गई है जब कि कीमत आवंटन की तारीख से लेनी चाहिए थी। कीमत में 15000 रुपयों का फर्क आ गया लेकिन 1999 वर्षों का ब्याज जोड़ कर वह पचपन हजार हो गया। अब तक तो वह लाख से ऊपर जा चुका है। सवाल था कि क्या इस तरह से कीमत बढ़ा कर इतने दिनों के उपरांत धन ब्याज सहित वसूल किया जा सकता है।
जज साहब ने कहा हाउसिंग बोर्ड सारे हिसाब का चार्ट बना कर पेश करे। जो हिसाब पेश है वह उन की समझ में नहीं आ रहा है। इस के लिए एक माह की तारीख पड़ गई क्यों कि बीच में चुनाव है और हाउसिंग बोर्ड का स्टॉफ चुनाव की ड़्यूटी पर है। मेरा मुवक्किल अदालत के बाहर आ कर फट पड़ा कि मुझे तारीख जल्दी लेने के मामले में अदालत से तकरार करनी चाहिए थी। मुझे उस मुवक्किल को समझाना पड़ा जिस में मेरा आधा घंटा खर्च हो गया। अब मुकदमे की बहस एक माह बाद होगी। तब तक नई सरकार चुनी जा चुकी होगी। मुझे पता है कि वह खुद वर्तमान मुख्यमंत्री के दल का समर्थक है और संभवतः इस चुनाव में भी वह उसी दल को मत देगा। क्यों कि उस के उसी दल में संपर्क हैं और उसे यह विश्वास है कि उस के किसी भी बुरे वक्त में उसी दल के लोग काम आ सकते हैं। चाहे वे बुरा वक्त आने पर वे सब मुहँ ही क्यों न फेर लें।
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वाकई बहुत शर्मनाक स्थिति है…
इस अपव्यय के सबसे सुन्दर उदाहरण हमारे लखनउ में मिल जाएंगे। हर चौराहे, हर मोहल्ले में अम्बेडकर, कांशीराम, मायावती की मूर्तियां। और बजट अरबों में।
डाँक्टर अपने मरीज़ को प्रिस्क्रिप्शन लिख कर मुक्त हो जाता है। आपके मुवक्किल
का दुख दूर करने में आप सहायक होना चाहते है,परन्तु भ्रष्ट प्रशासन बाधक है।
अजीब विडम्बना है। फ़ीस तो आप को भी प्राप्त हो ही जाती है; मगर आप जैसे
भावुक व्यक्ति का इस पैशे में निर्वाह कैसे हो? सोच-सोच कर हैरान होता रह्ता हूँ!
-मन्सूर अली हाशमी।
चुनाव के ठीक दो-चार माह पहले इन पदों में से कुछ पर नियुक्तियाँ कर दी गई हैं।
बहुत ही अजीब हालत है ! प्रयास की जरुरत है ! शुभकामनाएं !
जनता का पैसा तो एसे ही लेते रहते हैं। और जो बचता है उसे वो बर्बाद कर देते हैं।
चूनाव मे भी खूब पैसा फेक देते हैं। ना जाने ईसपर क्यो नही संविधान में कोई कानून बना।
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अजी छोड़िये पंडित जी, केवल आपके प्रश्न उठाने से क्या होगा.. जब तक समान सोच के अन्य लोग एकजुट होकर आवाज़ नहीं उठाते.. तब तक अपनी अपनी महंतई में मशगूल ऎसे ही हमें चरते रहेंगे !