देश के सभी कानून अंग्रेजी, हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में इंटरनेट पर उपलब्ध क्यों नहीं?
|यदि कोई व्यक्ति सहज भाव से कोई ऐसा काम कर दे जो कि कानून की निगाह में जुर्म हो, और दुर्भाग्य से वह पकड़ा जाए। फिर उस के विरुद्ध आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष आए। वहाँ जब वह यह कहे कि उस से गलती हो गई, उसे पता नहीं था कि यह काम करना अपराध है, उसे माफ किया जाए, तो उस की यह प्रतिरक्षा उस के किसी काम न आएगी। क्यों कि सर्वोपरि नियम यह है कि कोई भी न्यायालय के सामने यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता कि उसे इस विधि की जानकारी नहीं थी। अब इस परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए। देश की संसद, विधानसभाएँ, नगर पालिकाएँ, पंचायतें आदि सभी संस्थाएँ नित्य कानून का सृजन करती हैं। क्या उन का यह कर्तव्य नहीं है कि उस कानून की प्रति नागरिकों को सुलभ हो? मेरी सोच यह है कि यह सरकारों का कर्तव्य है कि वे प्रत्येक कानून को जनसाधारण के लिए जनसाधारण की भाषा में सुलभ कराएँ। अब तो यह सूचना के अधिकार के अंतर्गत जनता का अधिकार भी है।
लेकिन क्या सरकारें अपने इस कर्तव्य का निर्वाह सही तरीके से कर रही हैं? यदि आप इस की तलाश में जाएंगे तो पाएंगे कि सभी सरकारें इस ओर से उदासीन हैं। वे केवल गजट में कानूनों और कायदों को प्रकाशित कर निश्चिंत हो जाती हैं। यह गजट जिले के सब से बड़े अधिकारी जिला कलेक्टर के कार्यालय में स्वयं कलेक्टर के मांगने पर भी मिल जाए तो बहुत है। मैं ने जिला जजों और जिला कलेक्टरों को गजट की अनुपलब्धता की शिकायत करते देखा है। इस से बड़ी सरकार की लापरवाही दूसरी नहीं हो सकती।
अब तो लगभग पूरे देश में इंटरनेट सेवाएँ उपलब्ध हैं। किसानों को उन की कृषि भूमि के अभिलेख इंटरनेट से प्राप्त हो रहे हैं। कोई भी व्यक्ति इस बात की अनुज्ञा प्राप्त कर सकता है कि वह लोगों को अपने यहाँ से इन अभिलेखों की प्रमाणित प्रतियाँ जारी कर सके। वैसी अवस्था में देश भर के कानूनों को जनता की भाषा में इंटरनेट पर उपलब्ध कराया जाना कठिन नहीं है। लेकिन अभी तक इस मामले में अधिक कुछ नहीं किया गया है। यह सही है कि संसद द्वारा निर्मित सभी कानून इंडिया कोड पर उपलब्ध हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय 1950 से अद्यतन निर्णय सूचना प्रणाली पर उपलब्ध हैं। लेकिन वहाँ भी कानून केवल अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। राजभाषा हिन्दी में पाँच-छह वर्षों के कानूनों की गजट में प्रकाशित पन्नों के चित्रों को पीडीएफ प्रारूप में प्रस्तुत कर कर्तव्य की इति-श्री समझ ली गई है। आज हमारे पास हिन्दी का यूनिकोड फोन्ट उपलब्ध है। जिस के माध्यम से कितनी ही जानकारियाँ हिन्दी में उपलब्ध हैं लेकिन भारत सरकार आज तक केन्द्रीय कानूनों और कायदों को इंटरनेट पर हिन्दी देवनागरी लिपि में उपलब्ध नहीं करा पाई है। अभी तक उस की इस तरह की कोई योजना भी स्पष्ट नहीं है।
राज्यों की स्थिति तो बिलकुल बेहाल है। राज्यों के कानून तो उन की अपनी वेबसाइटों पर अंग्रेजी में भी उपलब्ध नहीं हैं। हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध कराया जाना तो बहुत दूर की बात है। यह स्थिति उन राज्यों की भी है जो भाषाई आधार पर निर्मित हुए हैं। तमिलना़डु में तमिल, केरल में मलयालम, कर्नाटक में कन्नड़, आंध्र में तेलुगू, बंगाल में बंगाली, महाराष्ट्र में मराठी और गुजरात में गुजराती भाषा में उन के राज्यों के कानून भी उपलब्ध नहीं हैं। यही स्थिति पूर्वो
More from my site
13 Comments
I’d have to clinch the deal with you here. Which is not something I typically do! I really like reading a post that will make people think. Also, thanks for allowing me to comment!
इस पोस्ट पर विश्वनाथ गोपालकृष्ण की टिप्पणी एरर के कारण नहीं आ सकी उन की मेल से मिली टिप्पणी इस तरह है-
जी. विश्वनाथ कहते हैं-
दिनेशरायजी,
आपकी बात रोचक लगी।
कभी इसके बारे में सोचा भी नहीं था।
कहा गया है कि "ignorance of the law is no excuse" पर क्या जहाँ इतने सारे लोग अशिक्षित हैं, लिखना – पढना ही नहीं जानते, उनके लिए इस प्रोजेक्ट से क्या लाभ? करोडों रुपये और कई साल लगेंगे इसमें।
आप अपवाद हो सकते हैं पर ज्यादातर वकील तो इस प्रस्ताव से खुश नहीं होंगे।
आखिर उनकी रोजी रोटी का सवाल है।
साथ साथ, पुलिस वाले और सरकारी अधिकारी भी इसका स्वागत नहीं करेंगे।
सरकार इस काम को कोई महत्ता नहीं देगी।
उनके लिए एक अच्छा बहाना भी मिल जाएगा और वह है कि इतना सारा खर्च कौन उठाएगा? और आखिर किसके लिए?
भाषा यहाँ एक या दो नहीं, अठारह से ज्यादा हैं। किस भाषा से शुरू करें? कौन उठाएगा इसका जिम्मा? क्या पता रूपांतरण सही है या नही? कौन निश्चय करेगा? अब तक कट्टर करुणानिधि ने भी यह माँग नहीं की कि सब तमिल में उपलब्ध हो। तो क्या इस "hornet's nest" को stir किया जाए?
सब कुछ प्रान्तीय भाषाओं में लिखे जाने के बाद भी, कितने लोग हैं जो इसे पढ़ने में रुचि लेंगे या इसे पढ पाएंगे?
मेरे जैसे पढे लिखे लोग जो अंग्रेज़ी जानते हैं, वे भी कानूनी किताबें कहाँ पढते है?
जरूरत पडने पर किसी वकील के पास ही जाएंगे। और वैसे भी सिर्फ़ कानून की थोडी बहुत जानकारी रखने से काम नहीं चलता। यदि किसी केस में हम फ़ँसते हैं तो वकील के बिना हम काम नहीं चला सकते।
कुछ लोग तो यही कहेंगे कि आखिर वकील किस लिए होते हैं?
हम सब इससे क्यूँ जूझें? करने दो वकीलों को अपना काम जिस के लिए हम फ़ीस देते हैं।
इतनी सारी सामग्री को सभी प्रान्तीय भाषाओं में लिखने के बजाय, क्या निम्नलिखित प्रसताव ज्यादा उचित नहीं रहेगा ?
मेरा प्रसताव है कि कानून के हर पहलू का साराँश सभी प्रान्तीय भाषाओं में किसी अच्छे और योग्य वकील की आवाज़ में सीधी साधी शब्दों में समझाया जाए और इसका voice recording , लघु किस्तों में अंतरजाल पर उपलब्ध किया जाए। जो व्यक्ति किसी भी विषय पर कानून जानना चाहता है, उसे अपनी चुनी हुई भाषा में, सीधे उस sound file तक पहुँचने की सुविधा होनी चाहिए। इस के लिए उसे वकील के पास जाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
औरों के क्या विचार हैं?
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ, बेंगळूरु
सही सलाह है. सब ऑनलाईन उपलब्ध होना चाहिये.
सही सलाह है. सब ऑनलाईन उपलब्ध होना चाहिये.
गेहलोत जी आपकी उम्मीद अनुसार काम कर पायें तो फ़िर यह प्रजातंतर हो ही नही सकता. प्रजातंतर में तो काम के लिये सिर्फ़ वादे किये जा सकते हैं अगले पांच साल के लिये.:)
रामराम
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
क्या चोर और दलाल चाहेगा की उसे पकड़ने वाले साधन इस देश के आम लोगों को उनकी भाषा में सहजता से उपलब्ध हो ..? हमारे देश का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद पे बैठा व्यक्ति भी अपने कर्तव्यों को थोड़ी भी ईमानदारी से नहीं निभा रहा है तो बांकी की क्या कहें …गांव के लोग अशिक्षित रहें इस लिए ये सरकार हर गांव में एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तक नहीं उपलब्ध करा रही है आजादी के 63 वर्षों बाद भी …सबके सब बेशर्म हैं ,जनता तो कमजोड है ,नहीं तो इनको सबक सिखाती जरूर और अब तो जनता का दो वक्त का रोटी भी छीन लिया गया है जिससे वो सोच भी नहीं पा रही है ठीक से ..
अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण सलाह, राज्य चलने [chalaane walo ko]वालो को.क्या ब्लॉग जगत ऐसे किसी अभियान का हिस्सा नहीं हो सकता? आप बीड़ा उठाये तो हम आपके साथ है.
ईद की बधाई के लिए धन्यवाद, आप को भी मुबारक.
अरे वह! अच्छी जानकारी है!
विश्वास कीजिए, जिस दिन किसी जनप्रतिनिधि को इस कार्य में अपने हित की संभावना दिखेगी उस दिन ही यह काम हो जाएगा
दिनेश जी आप की बात से सहमत हुं,हमारे यहां क्या पुरे युरोप मै ही कोई नया कानून बनता है या कोई परिवर्तन होता है किसी कानून मै तो लोगो को काफ़ी समय पहले बताया जाता है, टी वी के जरिये, आखवारो के जरिये, फ़िर स्थानिया आखवारो के जरिये, फ़िर एक एक प्रति घरो मै बांटी जाती है, ओर सारे कानुन इंट्रनेट पर हमेशा मोजुद रहते है, सभी तरह के फ़ार्म भी हमे इंटर्नेट से मिल जाते है, लेकिन हमारी सरकार के पस समय ही नही घटोले करने के सिवा, धन्यवाद इस अच्छॆ लेख के लिये
1.सरकार यानि सरकारी नौकर अपने को खुदा से कम नहीं समझते बल्कि ज्यादा ही समझते हैं , सूचना का अधिकार तो उन्हे फूटी आँख नहीं समा रहा है , सब प्रयास में हैं कैसे इसे खिसकाया जाए । मैंने एक ईमेल भेजा था छत्तीसगढ़ के IT विभाग को , जिसे राष्ट्रिय पुरस्कार मिल चुका है , प्रश्न था की क्या राजपत्र इंटरनेट पर उपलब्ध है, कोई जवाब नहीं मिला।
2 कितने लोग जानते हैं की राजपत्र क्या होता है ।
3 जैसा की आपने कहा की कानून की जानकारी नहीं होना कोई प्रतिरक्षा नहीं है, तो कौन जिम्मेदार है इसके लिए
4 लोअर कोर्ट में भी जो भाषा उपयोग होती है कितने हिन्दी भाषी उसे समझ पाते हैं । एक शब्द है फ़ौती उठाना । पूछ लीजिये ब्लाग जगत में कितने लोगों को इसका मतलब मालूम है
5 जहां राजनैतिक इच्छा शक्ति ही नहीं हो सिवाय गद्दीनशीन होने के वहाँ ये सब अपेक्षाएँ बेकार हैं
ये तो एक जरूरी काम है खासकर तब जब विधि की भूल अक्षम्य मानी जाती है….
संविधान में निहित कल्याणकारी राज्य होने का एक यह भी कर्तव्य है