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निजता में वयस्कों के सहमत यौनाचरण को दंड की श्रेणी से हटाने पर इतनी चिंता क्यों?

इधर यहाँ वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार पर श्रंखला चल रही है।  इस बीच संजय बैंगाणी जी के जोग लिखी पर का एक आलेख भारत, संस्कृति और समलैंगिकता पढ़ने को मिला।  मैं ने टिप्पणी कर उन के बहाव की विपरीत दिशा में तैरने के साहस को सलाम करने के साथ उन के विचार से सहमति जाहिर की और धारा 377 को दंड संहिता से हटाए जाने के खतरों के बारे में भी बताया।  इस विषय पर उन से कुछ विमर्श भी हुआ। इस बीच कल सुबह दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय आ गया।  इस निर्णय ने धारा 377 के मामले में जो धुंध थी उसे छाँट दिया है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को हटाने के मामले में पिछले दिनों विधि मंत्रालय से खबर आई तो अचानक मीडिया और प्रेस को चर्चा के लिए फिर से यह विषय मिल गया था।  इस पर राजनीति भी आरंभ हो गई थी।  पर कुछ विषय हैं जिन पर राजनैतिक और वैयक्तिक समझ के दुराग्रहों को छोड़ कर विचार करना सदैव बेहतर होता है।  यह भी एक ऐसा ही विषय था जिस पर इसी तरह विचार कर सकते थे।  अब  दिल्ली उच्चन्यायालय के निर्णय की प्रतिक्रिया में जहाँ कुछ के दिल बल्लियों उछल रहे हैं वहीं विपरीत प्रतिक्रियाएँ भी कम नहीं हैं। किसी को समाज की चिन्ता सता रही है तो कुछ इसे सुधार का कदम भी मान कर चल रहे हैं। आलोचक इसे समलैंगिक स्वतंत्रता के रूप में देख हैं और माध्यमों ने भी इसे इसी रूप में प्रस्तुत किया है।  धार्मिक नेता इसे अपना अपमान समझ बैठे हैं इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा कर बैठे हैं।  वहीं कुछ राजनेताओं को इस में कुछ वोट कबाड़ने की जुगत भी दिखाई देती है।  लेकिन सोच सही नहीं है कि यह निर्णय समलैंगिक स्वतंत्रता प्रदान करता है।

समलैंगिकता पर विज्ञान ने शोध उपरांत जो मत रखे हैं उन में प्रधान मत है कि इस प्रवृत्ति का कारण किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट है, जिस का निर्धारण मनुष्य के हाथ में नहीं है।  इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगा पाना भी उस व्यक्ति के नियंत्रण में नहीं जिसे इस प्रवृत्ति के लिए दोषी मान लिया गया है।  यह सही है कि मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति में यह एक विचलन है और यह जितना कम हो उतना ही अच्छा है।  लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि किसी को जन्मजात अथवा इसी समाज द्वारा आरंभिक लालन-पालन के बीच दी गई शारीरिक विकृति की सजा दी जाए।  ऐसा हो रहा था कि कुछ व्यक्तियों को उस दोष के लिए सजा दी जा रही थी जो उन का न हो कर प्रकृति का अथवा समाज का था।

दिल्ली उच्च-न्यायालय का निर्णय 105 पृष्ठों का है जिस में 26397 शब्द हैं।  इसे पढ़ने में समय लगेगा। लेकिन  न्यायालय ने तमाम संभावनाओं, सामाजिक परिस्थतियों, तथ्यों, विचारों और दुनिया भर के निर्णयों पर भरपूर विचार करने के उपरांत जो  निर्णय दिया है, उस का अन्तिम चरण इस प्रकार है-

We declare that Section 377 IPC, insofar it criminalises consensual sexual acts of adults in private, is violative of Articles 21, 14 and 15 of the Constitution. The provisions of Section 377 IPC will continue to govern non-consensual penile non-vaginal sex and penile non-vaginal sex involving minors. By ‘adult’ we mean everyone who is 18 years of age and above. A person below 18 would be presumed not to be able to consent to a sexual act. This clarification will hold till,of course, Parliament chooses to amend the law to effectuate the recommendation of the Law Commission of India in its 172nd Report which we believe removes a great deal of confusion.
Secondly, we clarify that our judgment
will not result in the re-opening of criminal cases involving Section 377 IPC that have already attained finality. We allow the writ petition in the above terms.

 न्यायालय ने धारा 377 में से केवल निजता में वयस्कों दारा सहमति से किए गए यौनाचरण को  भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के कानून के समक्ष समता और संरक्षण के मूल अधिकार, अनुच्छेद 15 में लिंग के आधार पर विभेद के मूल अधिकार और अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के अधिकार के विरुद्ध मानते हुए इसे दंडनीय श्रेणी से बाहर किया है।  मेरी समझ में इस से समाज को कोई हानि नहीं होने वाली है।  इस से सरकार को धारा 377 भारतीय दंड संहिता को इस निर्णय के प्रकाश में संशोधित करने लिए एक दिशा मिली है। इस से धारा 377 में केवल यह अपवाद जोड़ना ही पर्याप्त होगा कि, “निजता में वयस्कों द्वारा सहमति से किया गया यौनाचरण इस धारा के अंतर्गत दंडनीय नहीं होगा”

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