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भारत में विधि का इतिहास : प्रस्तर युग और सिंधु सभ्यता

विधि या कानून के बिना किसी सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। जब मनुष्य जांगल युग में रहता था तब भी अवश्य ही कुछ नियम अवश्य रहे होंगे जिन से परिवार और परिवारों के समूहों की गतिविधियाँ संचालित होती रही होंगी। जैसे जैसे मनुष्य समाज का विकास होता गया वैसे वैसे विधि, कानून और नियम भी व्यवस्थित होते गए हैं।

तीसरा खंबा पर यह लंबी चलने वाली श्रंखला भारत में विधि के इतिहास पर आधारित है, जिसे आज से प्रारंभ किया जा रहा है। इसे प्रतिदिन प्रस्तुत नहीं किया जा सकेगा। बीच-बीच में कानूनी सलाह, कानून और न्याय व्यवस्था पर आलेख आते रहेंगे लेकिन यह श्रंखला जारी रहेगी। इस श्रंखला में भारत में विधि के इतिहास की संक्षिप्त रूपरेखा आप को जानने को मिलेगी। भारतीय कानून के विकास में रुचि रखने वालों और कानून के विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी सिद्ध हो सके साथ ही सामान्य पाठकों को भी इस की जानकारी होती रहे, यह ऐसा ही एक प्रयास है। आशा है, यह प्रयास आप को पसंद आएगा।



श्रीगणेशः

प्रस्तर युग और सिंधु घाटी सभ्यता
भारत में प्रस्तर युगीन सभ्यता मौजूद थी। लेकिन उस समय का समाज कैसा था और वह आपसी व्यवहार किस प्रकार करता था इस के कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। निश्चित रूप से जब मनुष्य सब से अधिक प्रकृति में उपलब्ध साधनों पर निर्भर था और उसी से संघर्षरत भी तो परिवार और समाज के बहुत अधिक नियम नहीं रहे होंगे। अलावा इस के कि वह अपने परिवार और परिवार समूह को पालने, उस की रक्षा करने और समूह में जन की संख्या में वृद्धि ही उस का मुख्य लक्ष्य रहा होगा। ऐसी अवस्था में भी कुछ न कुछ विधियाँ और नियम अवश्य ही रहे होंगे, लेकिन उन्हें विधि कहना उचित नहीं होगा। उन्हें नैतिकता का सामान्य व्यवहार अवश्य कहा जा सकता है।

सिंधु सभ्यता से प्राप्त पुरावशेषों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस सभ्यता में वैचारिक विकास पर्याप्त विस्तार पा चुका था। समाज ने एक सुव्यवस्थित रूप ले लिया था। वे सुंदर और सुनियोजित नगरों में निवास करते थे। ये नगर स्वयं ही निर्माण कला के नियमों पर बने हुए थे। ऐसे में यह नहीं हो सकता कि वह समाज किसी सुव्यवस्थित विधि के बिना संचालित होता रहा होगा। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने अतीत के उस स्वर्णिम काल के बारे में आज भी कोई निश्चयात्मक जानकारी हासिल नहीं कर सके हैं। वहाँ लिपिबद्ध बहुत कुछ मिला है, लेकिन हम उस लिपि को पढ़ने में असमर्थ रहे हैं और यह नहीं जान सकते कि उस सुव्यवस्थित समाज की विधियाँ क्या थीं।

स्तुतः भारतीय विधि के विकास का अध्ययन केवल आर्य सभ्यता से ही आरंभ किया जा सकता है जिस के बारे में वैदिक साहित्य बहुत कुछ प्रकाश डालता है। इस बारे में हम अगले आलेख में जानेंगे।
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