मंदी में राज्य सरकारों की जिम्मेदारी
|मंदी का दौर जारी है। कर्मचारिय़ों पर छंटनी की तलवार लटकी है। सरकार ने घोषणा की है कि तनख्वाह कम कर दें लेकिन कर्मचारियों को छंटनी न करें। खुद सरकारें अपने कर्मचारियों के वेतन-भत्तों को लगातार बढ़ाने की घोषणाएँ कर रहे हैं। जो उद्योग मंदी से अधिक प्रभावित नहीं वे भी किसी न किसी भाँति इस अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूक रहे हैं। अनेक छोटे उद्योंगों में कामगारों को काम से हटाया जा रहा है और इस में कानूनी प्रक्रिया को भी तिलांजली दे दी जाती है। उन को उचित हिसाब तक नहीं दिया जा रहा है। वे राज्यों के श्रम विभागों को शिकायत करते हैं तो वह भी मालिकों से हिसाब करने की बात करता है। न्यायिक सेवाएँ इतनी विलम्बित हैं कि मामले का हल निकलने में पूरा एक युग पूरा हो जाए।
जो ट्रेड यूनियनें काम कर रही हैं वहाँ जाना भी मजदूर पसंद नहीं कर रहा है। उसे लगता है कि ट्रेड यूनियनों में पहले सा दम नहीं रहा। अदालती कार्यवाही पर उन का विश्वास नहीं रहा। एक विडम्बना यह भी कि इन मजदूरों को कानूनों और अपने अधिकारों ज्ञान नहीं है। नतीजा यह कि सर्वोत्तम कानूनी सलाहकारों और वकीलों की सेवाएँ प्राप्त मालिक मजदूरों के साथ छल करने में कामयाब हो रहे हैं।
इसी तरह का एक प्रकरण मेरे पास आया। एक कंपनी ने जो कि दूसरी बड़ी कंपनियों को सेवाएँ प्रदान करती है, अपने कुछ कर्मचारियों को जो सब से विश्वसनीय और पुराने थे बुला कर विश्वास में लिया कि कंपनी संकट में है। वे काम देने में असमर्थ हैं, कुछ मजदूर कुछ दिन काम से बैठ जाएँ तो ठीक नहीं तो उन्हें सेवा से हटाना पड़ेगा, और चाहें तो इस बीच वे दूसरी जगह काम कर सकते हैं। कर्मचारी मान गए। पर इस बैठक और समझोते का कोई लिखित सबूत नहीं। चार माह बाद मजदूरों ने कहा कि उन्हे काम पर ले लिया जाए। तो मालिक ने मना कर दिया और कहा कि हिसाब ले जाएँ। हिसाब में मालिक ग्रेच्यूटी के अलावा कुछ देने को तैयार नहीं। कामगार कानून के मुताबिक हिसाब चाहते हैं। बात नहीं बनी तो मालिक ने रजिस्टर्ड डाक से सूचना भेज दी है कि मजदूर खुद ही पांच पांच माह से अनुपस्थित हैं। अब स्थिति यह है कि कामगार करें तो क्या करें?
देश में कानून बना है कि यदि कामगारों के लिए काम नहीं है तो मालिक कानूनन छँटनी कर सकते हैं। लेकिन नियोजक कानूनी रूप से जरूरी मुआवजा आदि देने को तैयार नहीं हैं। इस समस्या का एक ही हल है वह यह कि एक तो मजदूरों को कानूनी सहायता उपलब्ध हो जिस से वे धोखा न खाएँ। दूसरे इस तरह की छँटनी और कामगारों की शिकायतों पर राज्य सरकारों के श्रम विभाग तुरंत कार्यवाही कर कामगारों को उन के वाजिब हक दिलाएँ। विवाद होने पर श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों द्वारा तीन से छह माह में उन विवादों का निपटारा किया जाए।
देश में कानून बना है कि यदि कामगारों के लिए काम नहीं है तो मालिक कानूनन छँटनी कर सकते हैं। यही कानून हमारे यहां भी है, लेकिन जब छटनी करते है तो लिखित होती है, ओर जितने साल एक कर्मचारी ने, कलर्क ने इन्जिंयर ने, उस कमपनी मै काम किया होता है उस कपनी को उतना हरजाना देना पडता है, ओर फ़िर उस की परिवारिक स्थिति भी देखते है अगर बच्चो वाला हुआ तो उसे नही निकल सकते.
ओर कम्पनी को घाटा भी दिखाना पडता है, ओर अगर दोवारा कर्मचारी रखती है तो पहले कर्मचारियो को रखेगी बाद मै नये लोगो को.
लेकिन लगता है भारत मै अभी हम इतने जागरुक नही हुये.
दिनेश जी धन्यवाद आज की इस पोस्ट के लिये काफ़ी नयी जानकारी मिली.
यह तो आपने बडी विचित्र और पीडादायक बात बताई। कामगार का दोष केवल यही है कि वह कामगार है। पह अपने लिए रोटी का जुगाड करे कि कोर्टों, दफ्तरों के चक्कर काटे।
यह तो ‘जबरा मारे, रोने न दे’ से भी बदतर स्थिति है। वास्तविकता सब जानते है किन्तु प्रमाण कुछ नहीं।
क्या गरीब को बेमौत ही मरना है?
देश में कानून बना है कि यदि कामगारों के लिए काम नहीं है तो मालिक कानूनन छँटनी कर सकते हैं। लेकिन नियोजक कानूनी रूप से जरूरी मुआवजा आदि देने को तैयार नहीं हैं। इस समस्या का एक ही हल है वह यह कि एक तो मजदूरों को कानूनी सहायता उपलब्ध हो जिस से वे धोखा न खाएँ। दूसरे इस तरह की छँटनी और कामगारों की शिकायतों पर राज्य सरकारों के श्रम विभाग तुरंत कार्यवाही कर कामगारों को उन के वाजिब हक दिलाएँ। विवाद होने पर श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों द्वारा तीन से छह माह में उन विवादों का निपटारा किया जाए…..acchi jankari mili aapke blog se…!!
दिनेश जी,
कर्मचारी की मजबूरी ये है कि वह लड़ाई-झगड़े से बचता है और सोचता है कि इस लड़ाई में अगर उलझ गया तो दूसरा लाला या कंपनी भी उसे नौकरी नहीं देगी। ऐसे में वह चुपचाप रिजाइन लिख कर बैठना पसंद करता है।
सबसे ज्यादा हल्ला मीडिया मचाता है लेकिन सबसे ज्यादा शोषण मीडिया में है। कहने को तो मीडिया में मणिसाना वेज बोर्ड लागू है लेकिन अब शायद ही कोई इसके अंतर्गत कर्मचारियों की नियुक्ति करता है। इतना ही नहीं; कुछ पुराने कर्मचारियों के प्रमोशन रोके गए और फिर उन्हें बाध्य किया गया कि यदि उन्हें प्रमोशन और इनक्रिमेंट चाहिएं तो वह अनुबंध पर आ जाएं। एक-एक कर लोग टूटते गए। लालच भी था।…और आज उन सभी की एक-एक कर छुट्टी हो रही है। ये सभी बड़े घरानों में हो रहा है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि कानून क्या करेगा।