मद्रास का मेयर न्यायालय और चाउल्ट्री अदालतें : भारत में विधि का इतिहास-15
|1687 के चार्टर के अधीन मद्रास नगर निगम के ही एक आवश्यक अंग के रूप में न्यायिक कार्य करने के लिए मेयर न्यायालय स्थापित किया गया। मेयर और एल्डरमैन मिल कर सिविल न्यायालय, मेयर और तीन वरिष्ठ एल्डरमैन मिल कर शांति (अपराधिक) न्यायालय का काम करते थे। यह न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय था, जिस में एक विधि-दक्ष व्यक्ति होता था। नौकाधिकरण न्यायालय का जज-एडवोकेट जान बिग्स इस न्यायालय का पहला अभिलेखक नियुक्त हुआ, इसे विवादास्पद मामलों में सलाह देने और न्यायालय में उपस्थित रहने पर एल्डरमैन की तरह मत देने का अधिकार था। कंपनी का अंग्रेज अधिकारी ही अभिलेखक हो सकता था, भारतीय भाषाओं के जानकार को शांति लिपिक के रूप में रखा जा सकता था।
चाउल्ट्री न्यायालय
इन न्यायालयों में से नौकाधिकरण में सेंट जॉन को पहला अध्यक्ष नियुक्त किया गया था वह विद्वान विधिवेत्ता और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति था किन्तु तत्कालीन गवर्नर जॉन चाइल्ड से मतभेद के कारण उसे अपना पद छोड़ना पड़ा। 22 जुलाई 1687 को जॉन बिग्स को इस का प्रधान नियुक्त किया गया जिस ने अत्यंत कुशलता से इस कार्य को किया लेकिन 1689 में उस की मृत्यु हो गई और उस के बाद यह न्यायालय निष्क्रिय हो गया। बाद में जॉन डाल्बन को इस का अध्यक्ष नियुक्त किया जिस ने पूर्ण निष्पक्षता से काम किया जिन्हें कंपनी हितों के विरुद्ध समझा गया। मौका मिलते ही 1694 में उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर उसे
पदच्युत कर दिया गया और कंपनी के एक अधिकारी फ्रेजर को उस का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। 1696 से ही सपरिषद गवर्नर के सदस्यों को यह दायित्व सौंप दिया गया। 1704 में यह पद रिक्त हो गया जिस के बाद इस न्यायालय का अस्तित्व ही समाप्त प्रायः हो गया।
दंड व्यवस्था
मद्रास में न्यायिक व्यवस्था का चरणबद्ध विकास होने के बावजूद भी एक निश्चित दंडविधान नहीं बन सका था। भारतियों के लिए सामान्य अपराधों में भी क्रूर ढंग से मृत्यु दंड दिए जाते थे। जब कि अंग्रेजों को गंभीर अपराधों के लिए उन के हाथों को चिन्हित कर के उन्हें इंग्लेंड भेज दिया जाता था और वे कठोर दंडों से बच जाते थे। किसी भी व्यक्ति को जलदस्यु बता कर उसे मृत्युदंड दे दिया जाता था। अंगच्छेदन, कंपनी सीमा से निष्कासन, कोड़े मारना, दासता, माथा दागना और सश्रम कारावास आदि दंड प्रचलन में थे। ब्राह्मणों को मृत्युदंड से मुक्त रखा गया था। पुरुष और स्त्री को समान दंड दिए जाते थे। दंड की प्रकृति सुधारात्मक न हो कर प्रतिशोधात्मक थी। जेलें अत्यंत कष्टप्रद थीं। बंदियों से कठोर श्रम कराया जाता था। अभियुक्तों को लंबे समय तक जेल में रखा जाता था। दंडाधिकारी इच्छानुसार दंड दे सकते थे।
चित्र – ऊपर मद्रास 1680 ई. , नीचे फोर्ट सेंट जार्ज 1700 ई.
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