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राजस्थान का बजट न्याय-प्रशासन के लिए दिशाहीन और उदासीन

राजस्थान विधानसभा में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वित्त मंत्री की हैसियत में राज्य का बजट प्रस्तुत किया। तीसरा खंबा की निगाह इस बात पर थी कि वे न्याय प्रणाली को गति प्रदान करने के मामले में इस बजट में क्या प्रावधान करते हैं। कुछ स्वागत योग्य घोषणाओं के अतिरिक्त इस बजट में राज्य में न्यायप्रणाली को गति देने के लिए कुछ भी नहीं है। बजट भाषण के पैरा सं. 218-220 जो न्याय प्रशासन के बारे में हैं, इस प्रकार हैं।

न्याय प्रशासन:
218. जोधपुर में माननीय उच्च न्यायालय एवं ज्यूडिशियल अकादमी
के नये भवनों के निर्माण हेतु आगामी वर्ष क्रमश: 20 करोड़ रुपये एवं
15 करोड़ रुपये का प्रावधान प्रस्तावित है।

219. मकान मालिक व किरायेदारों के हितों का ध्यान रखते हुए
हमारे पूर्व शासनकाल में किराया नियंत्राण अधिनियम 2001 पारित किया
गया था। अब यह प्रस्तावित है कि आगामी वर्ष जयपुर, जोधपुर, कोटा एवं
अजमेर में स्वतंत्र रेंट ट्रिब्युनल एवं अपीलीय रेंट ट्रिब्युनल की स्थापना की
जाये।
220. पारिवारिक कानून के अंतर्गत मुकदमों की संख्या में बढ़ोतरी
को देखते हुए आगामी वर्ष 7 पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की
जायेगी।

जोधपुर में राजस्थान उच्च न्यायालय का भवन निर्माण कार्य प्रगति पर है, ऐसी स्थिति में उस के लिए धन आवंटन आवश्यक था। ज्युडीशियल अकादमी की भी यही स्थिति है।

नया किराया कानून गहलोत की पिछली काँग्रेस सरकार ने 2001 में पारित किया था और इसे 1 अप्रेल 2003 द्वारा लागू किया गया था। इस कानून के अंतर्गत लगभग सभी नगरों में जहाँ यह लागू किया गया है उसी समय किराया अधिकरणों और जिला या संभाग स्तर पर अपीलीय किराया अधिकरण की स्थापना किया जाना आवश्यक था। लेकिन सरकार ने मौजूदा अतिरिक्त सिविल जज वरिष्ठ खंड को प्राधिकार दे कर उन्हें किराया अधिकरण बनाया और संबंधित जिला न्यायालय को अपीलीय क्षेत्राधिकार दे कर काम चलाया है। इस से स्थिति में बिलकुल अंतर नहीं आया। जिन न्यायालयों को किराया कानून के अंतर्गत क्षेत्राधिकार दिया गया उन पर यह अतिरिक्त बोझा आ पड़ा और किराया कानून बनाने का मकसद ही समाप्त हो गया। अब सात वर्ष के उपरांत भी केवल चार नगरों में किराया अधिकरण और अपीलीय अधिकरण बनाने का प्रस्ताव बहुत देरी से दिया गया है और पर्याप्त नहीं है। सभी नगरों में किराया कानून के अंतर्गत पृथक न्यायालयों की स्थापना किया जाना चाहिए था।
प्रदेश में सात और पारिवारिक न्यायालय स्थापित किए जाने का प्रस्ताव स्वागत योग्य है। होना यह चाहिए कि प्रदेश में पारिवारिक न्यायालय इतनी संख्या में हों कि किसी भी पारिवारिक विवाद का निर्णय दो वर्ष में हो जाए। तभी पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना का उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। पारिवारिक विवादों के निर्णय में देरी से हजारों जीवन नष्ट हो रहे हैं। 
प्रदेश में लगभग सभी न्यायालयों में दो से चार हजार तक मुकदमे लंबित हैं। अनेक अदालतों में इस से भी अधिक प्रकरण लंबित हैं। राज्य में न्याय प्रशासन को गति प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि प्रदेश में  इतनी संख्या में सामान्य दांडिक और दीवानी न्यायालयों की स्थापना की जाए कि कोई भी मुकदमा एक अदालत में अधिकतम तीन वर्ष में निर्णीत हो सके। यह अपेक्षा थी कि इस वर्ष के बजट में न
्याय प्रशासन को गति प्रदान करने के लिए वर्तमान में कार्यरत न्यायालयों में कम से कम 20 प्रतिशत का इजाफा तो किया जाएगा। लेकिन सामान्य दांडिक और दीवानी न्यायालयों की स्थापना के लिए कोई भी प्रावधान इस बजट में नहीं किया गया है। इस तरह इस बजट को न्याय प्रशासन की दृष्टि से पूरी तरह दिशाहीन कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि राज्य सरकार प्रदेश में न्याय प्रशासन के प्रति पूरी तरह उदासीन है।
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