विधि मंत्री सपने दिखाने का थिएटर चला रहे हैं?
|अब केन्द्रीय विधि मंत्री कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार एक ऐसे कानून को बनाने पर विचार कर रही है जिस से न्याय प्राप्त करना नागरिकों का मौलिक अधिकार हो जाएगा। यह घोषणा उन्हों ने 23वें एशिया विधि सम्मेलन में बोलते हुए दी। कुछ दिन पहले गुवाहाटी उच्चन्यायालय की अगरतला खंडपीठ के नए भवन के उद्घाटन के समय उन्हों ने कहा था कि “केंद्र सरकार न्यायिक सुधार के लिए कदम उठाने के अलावा नवीनतम सूचना प्रौद्योगिकी की मदद से देशभर के न्यायालय प्रशासन का आधुनिकीकरण करने जा रही है। निचली अदालतों में लंबित सभी मामलों का निपटारा छह माह के भीतर करने के लिए ग्राम न्यायालय (ग्रामीण अदालतों) का गठन किया जा रहा है साथ ही पिछले वर्ष अक्टूबर में देशभर में चलायमान न्यायालय प्रणाली शुरू की गई है।”
विधि मंत्री द्वारा अनेक अवसरों पर की जा रही इन घोषणाओं के लागू होने पर भी देश में न्याय प्राप्त करने के परिदृश्य में कोई बड़ा अंतर आ पाना संभव प्रतीत नहीं होता। यह वैसे ही है जैसे समन्दर को खाली करने के लिए कुछ पंप लगा दिए जाएँ और फिर कहा जाए कि शीघ्र ही समन्दर खाली हो जाएगा। हालत यह है कि इसी वर्ष के सितम्बर माह के अंत में सुप्रीम कोर्ट में 54,732 मामले लंबित थे। जुलाई 2009 में विभिन्न उच्च न्यायालयों में 40 लाख तथा निचली अदालतों में 2.7 करोड़ मामले लंबित थे। लंबित मुकदमों की यह संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। यदि किसी औद्योगिक श्रमिक को 30-35 वर्ष की उम्र में गैर कानूनी रीति से नौकरी से निकाल दिया जाए और वह अदालत से न्याय प्राप्त करना चाहे तो उसे न्याय प्राप्त करने में इतना समय गंवाना पड़ सकता है कि उस की सेवानिवृत्ति की तिथि निकल जायेगी, यह भी हो सकता है कि न्यायालय के निर्णय की पालना होने के पहले वह इस दुनिया से ही विदा ले जाए। यदि उस की सेवा निवृत्ति तिथि निकल जाती है तो अदालत में यह तर्क दिया जाता है कि अब उसे नौकरी में तो रखा ही नहीं जा सकता उसे कुछ आर्थिक राहत दे दी जाए जो 20-25 हजार रुपयों से चार-पाँच लाख रुपयों तक की हो सकती है। इस तरह अंत में उस व्यक्ति को या उस के उत्तराधिकारियों को न्याय के स्थान पर जीवन भर अभावों में जीना पड़ता है, उस का परिवार बर्बाद हो चुका होता है, उस के बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते और अंत में खैरात की तरह कुछ रुपये उस की झोली में डाल दिए जाने का आदेश होता है, वह भी कई वर्षों तक निष्पादित नहीं किया जाता। हम इस दृष्टिकोण से विचार करें तो अनेक मामलों देश की अदालतों में किसी तरह का न्याय नहीं हो रहा है। जो हो रहा है उसे तकनीकी न्याय तो कह सकते हैं लेकिन वास्तविक न्याय नहीं कहा जा सकता।
हम इस स्थिति का कारण तलाशने की एक कोशिश कर सकते हैं। विधि आयोग ने जुलाई 1987 में अपनी 120वीं रिपोर्ट में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के लिए ‘न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात’ को जिम्मेदार बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन (2002) मामले के पैरा 25 में कहा था कि मामलों के निपटारे में देरी का मुख्य कारण ‘न्यायाधीश- जनसंख्या अनुपात’ ही है। अगर पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश नियुक्त नहीं किए गए तो लोगों को न्याय नहीं मिलेगा। वर्ष 2009 में भारत में यह अनुपात 12.5 न्यायाधीश प्रति दस लाख लोग था, जबकि अमेर
हम इस स्थिति का कारण तलाशने की एक कोशिश कर सकते हैं। विधि आयोग ने जुलाई 1987 में अपनी 120वीं रिपोर्ट में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के लिए ‘न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात’ को जिम्मेदार बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन (2002) मामले के पैरा 25 में कहा था कि मामलों के निपटारे में देरी का मुख्य कारण ‘न्यायाधीश- जनसंख्या अनुपात’ ही है। अगर पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश नियुक्त नहीं किए गए तो लोगों को न्याय नहीं मिलेगा। वर्ष 2009 में भारत में यह अनुपात 12.5 न्यायाधीश प्रति दस लाख लोग था, जबकि अमेर
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सरकार भी यह जानती होगी कि उसका ये कदम कोई बहुत ठोस लाभ नही पहुंचायेगा पर इसे एक लोक बहलाव कदम कहा जा सकता है ।