अंग्रेजों का भारत प्रवेश : भारत में विधि का इतिहास-12
|मुगल काल में ही भारत में अंग्रेजों का प्रवेश हुआ और धीरे-धीरे उन्हों ने भारत को अपने अधीन कर लिया। पुर्तगाली नाविक वास्कोडागामा ने 22 मई 1498 को कालीकट के निकट भारत में प्रवेश किया था। वह पहला व्यक्ति था जो केप ऑफ गुडहोप जलमार्ग से भारत पहुँचा था। उस ने कालीकट के तत्कालीन शासक से उस के राज्य में रहने और व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की और यूरोप वासिय़ों के लिए व्यापार और शासन का मार्ग प्रशस्त किया। एक शताब्दी तक पुर्तगालियों ने भारत से अपार धन अर्जित किया और बहुत महत्वपूर्ण स्थानों पर काबिज हो गए। बाद में मुगल बादशाह शाहजहाँ के प्रयत्नों से पुर्तगाली केवल गोआ तक सिमट कर रह गए।
सोलहवीं शताब्दी में हॉलेंड के डच निवासी भरत पहुँचे और यूनाटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ नीदरलेंड स्थापित कर पुर्तगालियों की सत्ता पर कब्जा कर लिया। उन्हों ने मुगल साम्राज्य की अनुमति से सूरत, अहमदाबाद पटना और मद्रास में अपनी कोठियाँ कायम की और किलों का निर्माण किया। डचों ने भारत से खूब धन कमाया और धीरे-धीरे यहाँ शासन की लालसा उत्पन्न होने लगी। 1578 में अंग्रेज नाविक फ्रांसिस डेविस को एक पुर्तगाली जहाज की लूट में भारत पहुँचने का मानचित्र प्राप्त हुआ जो अंग्रेजों को भारत पहुँचने में मददगार सिद्ध हुआ। लंदन के कुछ व्यापारियों ने 22 सितंबर 1599 को एक बैठक कर अपनी साम्राज्ञी एलिजाबेथ प्रथम से एक कम्पनी के रूप में निगमित करने की प्रार्थना की। इंग्लेंड की महारानी ने 31 दिसंबर 1600 को एक चार्टर जारी कर और ‘दी गवर्नर एण्ड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन ईस्ट इंडीज’ की स्थापना को स्वीकृति दे दी। इस कंपनी को पूर्वी द्वीप समूह के देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दान किया गया था। कंपनी का कार्यकाल 15 वर्ष निर्धारित किया गया था। कंपनी का काम संतोषजनक होने पर उस का कार्यकाल आगे बढ़ाने और असंतोषजनक होने पर उसका विशेषाधिकार दो वर्ष का नोटिस दे कर समाप्त करने की व्यवस्था इस चार्टर में की गई थी। यह कंपनी एक संयुक्त स्टॉक कंपनी नहीं थी और इस के सदस्यों को व्यक्तिगत हैसियत से काम करने की अनुमति नहीं थी।
सोलहवीं शताब्दी में हॉलेंड के डच निवासी भरत पहुँचे और यूनाटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ नीदरलेंड स्थापित कर पुर्तगालियों की सत्ता पर कब्जा कर लिया। उन्हों ने मुगल साम्राज्य की अनुमति से सूरत, अहमदाबाद पटना और मद्रास में अपनी कोठियाँ कायम की और किलों का निर्माण किया। डचों ने भारत से खूब धन कमाया और धीरे-धीरे यहाँ शासन की लालसा उत्पन्न होने लगी। 1578 में अंग्रेज नाविक फ्रांसिस डेविस को एक पुर्तगाली जहाज की लूट में भारत पहुँचने का मानचित्र प्राप्त हुआ जो अंग्रेजों को भारत पहुँचने में मददगार सिद्ध हुआ। लंदन के कुछ व्यापारियों ने 22 सितंबर 1599 को एक बैठक कर अपनी साम्राज्ञी एलिजाबेथ प्रथम से एक कम्पनी के रूप में निगमित करने की प्रार्थना की। इंग्लेंड की महारानी ने 31 दिसंबर 1600 को एक चार्टर जारी कर और ‘दी गवर्नर एण्ड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन ईस्ट इंडीज’ की स्थापना को स्वीकृति दे दी। इस कंपनी को पूर्वी द्वीप समूह के देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दान किया गया था। कंपनी का कार्यकाल 15 वर्ष निर्धारित किया गया था। कंपनी का काम संतोषजनक होने पर उस का कार्यकाल आगे बढ़ाने और असंतोषजनक होने पर उसका विशेषाधिकार दो वर्ष का नोटिस दे कर समाप्त करने की व्यवस्था इस चार्टर में की गई थी। यह कंपनी एक संयुक्त स्टॉक कंपनी नहीं थी और इस के सदस्यों को व्यक्तिगत हैसियत से काम करने की अनुमति नहीं थी।
कंपनी का स्वरूप
कंपनी के साधारण सदस्यों की एक सभा थी जिस के कार्य का नियंत्रण एक गवर्नर और चौबीस समितियों को दिया गया था। ये चौबीस समितियाँ चौबीस व्यक्ति थे जिन्हें बाद में निदेशक कहा जाने लगा और उन की सभा को निदेशक मंडल। निदेशक का कार्यकाल एक वर्ष का होता था और वे अगले वर्ष के लिए पुनः चुने जा सकते थे। कंपनी मात्र एक व्यापारिक संस्था थी। उसे केवल व्यापारिक निकायों के लिए मान्य विधायी और न्यायिक अधिकार प्राप्त हुए थे। इस के अंतर्गत उसे कारावास और अर्थदंड आरोपित करने की शक्ति अंग्रेज कानूनों के अंतर्गत प्रदान की गई थी। 1635 में इंग्लेंड में एक और कंपनी को अनुमति प्राप्त हो गई जिस से पुरानी कंपनी को कठिनाई हुई और दोनों कंपनियों में प्रतिद्वंदिता होने लगी। जिस का निराकरण करने का प्रयत्न किया गया जिस से भविष्य की ज्वाइंट स्टॉक कंपनियों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1694 में इंग्लेंड के हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रस्ताव आया कि इंग्लेंड के प्रत्येक नागरिक को विश्व के किसी भाग में व्यापार करने का अधिकार है यदि संसद उसे प्रतिबंधित न कर दे। इस प्रस्ताव के उपरांत 1698 में एक और कंपनी ‘दी इंग्लिश कंपनी ट्रेडिंग टू दी ईस्ट इंडीज’ की स्थापना हुई जिस से ल
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12 Comments
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पूरी श्रृंखला सहेज कर रखे जा रहा हूँ… निश्चित रूप से ब्लॉगजगत पर सार्थक अध्ययन के लिये प्रचुर सामग्री उपलब्ध हो सकती है… बस आप जैसा जीवट चाहिये।
संकीर्ण राष्टवाद के परे देखें, तो अंग्रेजों की कुछ देन ऐसी हैं, जो ताउम्र इस देश को फायदा पहुँचायेंगी। चाहे आईपीसी, सीपीसी हों, या शारदा एक्ट जैसे विधि-रत्न।
जितना इतिहास पढने से डरते थे उतना ही आप पढा रहे हैं मगर आपके स्कूल टीचर के पढाने मे अन्तर है इस लिये चाव से पढ रही हूँ धन्यवाद्
द्विवेदी साहब, आपका यह इतिहास सम्बंधित लेख आज की पीढी के लिए काफी ज्ञानवर्धक है !
आज फिर मल्टीनेशन कंपनियों की घुसपैठ हमें आर्थिक तौर पर गुलाम बनाने के लिए कमर कस चुकी हैं…उदारीकरण का नारा अर्थव्यवस्था को खोल नहीं रहा,भारत की जड़ों में मठ्ठा डाल रहा है…और हम इस मनमोहनी मॉडल पर इतराए
जा रहे हैं…
जय हिंद…
सर जितना बोरिंग फ़र्स्ट ईयर में legal history पढते हुए लगी थी ……उससे उलट आपने इसे यहां इतना रोचक बना दिया है कि ……मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करके आपने तो इसे जीवंत कर दिया सचमुच ..। पहले भी कह चुका हूं कि ये श्रंखलाएं भविष्य के लिए एक धरोहर का काम करेंगी
nice
द्विवेदी जी आप सचमुच एक महत्वपूर्ण काम में जुटे है आजकल- भारत में विधि का इतिहास की ये कड़ियां गवाह हैं। मेरी शुभकामनाएं। जो लोग ब्लाग पर होने वाले लेखन को सिर्फ़ भड़ासियों की भड़ास मानकर नाक-भौं सिकोड़ने को मजबूर हैं, उन्हें जानना चाहिए कि ऎसे महत्वपूर्ण कामों में आज बिना किसी व्यक्तिगत लाभ को ध्यान में रखकर जुटे लोगों की एक बड़ी जमात ब्लाग लेखन में सक्रिय है।
ज्ञानवर्धन का आभार!!
बहुत सुन्दरता से आपने विस्तारित रूप से बढ़िया, ज्ञानवर्धक और महत्वपूर्ण जानकारी दी है! बहुत से बातों के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ! इस बेहतरीन और उम्दा पोस्ट के लिए बधाई!
aapka mere blog par aane aur comments ke liye hardik dhanyawaad. samay mile to punah padharen. dhanyawaad.