आतंकवाद से निपटने को कानूनी ढांचा : पोटा की विशेषताएँ
|जब 2002 में आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) कानून बनाया गया तो उस की मुख्य विशेषताएं इस तरह थीं….
क. आतंकवादी कार्रवाई की परिभाषा:
आतंकवादी कार्रवाई की परिभाषा में अपराध के आशय को संशोधित कर बदल दिया गया था। नयी परिभाषा में एकता, अखंडता सुरक्षा या भारत की संप्रभुता को चोट पहुंचाना या जनता में आतंक पैदा करना और आतंकवाद के लिए धन एकत्र करना मुख्य रूप से आशय में सम्मिलित कर दिया गया था।
ख. गिरफ्तारी के प्रावधान:
इस में एक गिरफ्तार व्यक्ति को पूछताछ के दौरान कानूनी व्यवसायी (वकील) से मिलने की अनुमति दी गई थी लेकिन वह पूछताछ के पूरे समय उपस्थित नहीं रह सकता था। (धारा 52).
ग. जब्ती और आतंकवाद से आय की जब्ती :
अपराध का अन्वेषण करने वाला अधिकारी पोटा के तहत संपत्ति की जब्ती या कुर्की आदेश सकता था, यदि उसे विश्वास है कि वह संपत्ति आतंकवाद से आय का प्रतिनिधित्व करती है। इसी तरह की संपत्ति की जब्ती या कुर्की का आदेश संतुष्ट होने पर विशेष अदालत भी दे सकती थी। (धारा 6 से 17 तक)
घ. संचार का अवरोधन (इन्टरसेप्शन):
इस कानून के अन्तर्गत अन्वेषण अधिकारी के अनुरोध के सक्षम प्राधिकारी द्वारा प्राधिकृत होने पर तार माध्यम से या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से या मौखिक किए जा रहे संचार का अवरोधन किया जा सकता था यदि यह विश्वास हो कि ऐसा अवरोधन इस अधिनियम के अंतर्गत किसी अपराध के लिए सबूत जुटा सकता है। (धारा 36 से 48)
ङ. आग्नेयास्त्र का अनधिकृत कब्ज़ा:
यदि किसी भी व्यक्ति के अनाधिकृत कब्जे में आर्म्स नियम 1962 में विनिर्दिष्ट कोई हथियार या गोला बारूद अधिसूचित क्षेत्र में या किसी भी क्षेत्र में विस्फोटक पदार्थ और सामूहिक विनाश में सक्षम हथियारों या युद्ध के जैविक या रासायनिक पदार्थ पाए जाने पर, जिस भी व्यक्ति के कब्जे में पाया जाता वह आतंकवादी कार्रवाई करने का दोषी होता। (धारा 4)
च. अन्वेषण अधिकारियों शक्ति में इजाफा:
एक पुलिस अधीक्षक या उस से ऊंचे पद का कोई भी व्यक्ति अभियुक्त का इकबालिया बयान लिखित में या किसी भी इलेक्ट्रॉनिक साधन से रिकॉर्ड सकता था जिसे विचारण में एक सबूत के तौर पर स्वीकार्य बना दिया गया था। (धारा 32)
छ. पुलिस हिरासत की अवधि बढ़ाया गया:
हालांकि सीआरपीसी की धारा 167 को लागू किया गया था लेकिन पुलिस हिरासत की अवधि को15 दिन से 30 दिन और कुल हिरासत अवधि को 90 दिन से 180 दिन कर दिया गया था। [धारा 49 (2)].
ज. विशेष न्यायालयों का गठन:
इस कानून में केन्द्र द्वारा अधिसूचित क्षेत्रों या मामलों के समूह को केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार दोनों मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालयों का गठन कर सकती थीं। (धारा 23).
झ. आतंकवादियों के संगठनों से निपटने पर एक अलग अध्याय :
इस विषय पर एक पूरा अध्याय कानून में जोड़ा गया था। जिस में आतंकवादी संगठनों की एक सूची जोड़ी गई थी। केन्द्र सरकार को इस सूची में आतंकवादी संगठनों को जोड़ने या हटाने का अधिकार दिया गया था।
ञ. समीक्षा समितियों का गठन:
केन्द्रीय और राज्य सरकारों को इस कानून के तहत समीक्षा समितियाँ गठित करने का अधिकार दिया गया था। इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए एक या अधिक समीक्षा समितियों का गठन करने का अधिकार दिया गया था। (धारा 60).
पोटा कानून की संवैधानिक वैधता को पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत संघ के मामले में इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह कानून के बुनियादी मानव अधिकारों का उल्लंघन करता है। (जारी)
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बहुत ही खुल कर ओर अच्छी तरह समझा कर आप ने इसे लिखा , लेकिन भारत मै तो हर कानुन का इस्तेमाल गलत ठंग से होता है, किसी भी कानुन को ले ले, यानि जिस के हाथ लाठी भेस भी उसी की हमारे जेसा गरीब सर पकड कर बेठ जाये या फ़िर भगवान से ही प्राथान करे कि उसे दण्ड दे, ओर अगर एक गरीब कानुन हाथ मै ले तो वह गुण्डा बदमाश कहलाता है.
धन्यवाद
बहुत जानकारी पूर्ण पोस्ट….हम जैसों को कई बातें आज ही पता चलीं…धन्यवाद इस जानकारी के लिए…
नीरज
आपकी पोस्ट बताती है कि बुरी नीयत से प्रयुक्त किए जाने वाले औजार कितने घातक होते हैं ।
आज अमर उजाला मे आपके चिटठा का जिक्र चिटठा चर्चा मे हुआ है ,अच्छा लगा
जी हाँ ये बताता है की कानून भी किस तरह राजनीतिक शिकार होता है
@mahashakti
इस मुफीद यंत्र का उपयोग बहुत कम और राजनैतिक व दूसरे लोगों को सताने व नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन के लिए बहुत अधिक हुआ। अगली कड़ी इसी पर है।
पोटा एक बहुत ही मुफीद यन्त्र था, सेना और पुलिस के लिये किन्तु यह तो राजनीति का शिकार हो गया। बहुत ही अच्छा तरह से विश्लेषण किया है। हम लाभान्वित हुये। धन्यवाद