आपराधिक न्याय प्रशासन की कमजोर कड़ी – लोक अभियोजन
|- मनिराम शर्मा, एडवोकेट
न्यायालय के साथ साथ, पुलिस और लोक अभियोजक आपराधिक न्याय प्रशासन के आधार स्तंभ हैं। पुलिस किसी मामले में तथ्यान्वेषण व साक्ष्य एकत्र करने का कार्य करती है और लोक अभियोजक उसे प्रस्तुत कर अभियुक्त को दण्डित करवाने हेतु पैरवी करते हैं। सामान्य अपराधों का परीक्षण मजिस्ट्रेट न्यायालयों द्वारा होता है और गंभीर (जिन्हें जघन्य अपराध कहा जाता है) अपराधों का परीक्षण सामान्यतया सत्र न्यायलयों द्वारा किया जाता है। वैसे अपराधों के इस वर्गीकरण में राज्यवार थोडा बहुत अंतर भी पाया जाता है किन्तु समग्र रूप में भारत में लगभग स्थिति एक जैसी ही है।
निचले स्तर के मजिस्ट्रेट न्यायालयों में तो पैरवी हेतु अभियोजन सञ्चालन के लिए पूर्णकालिक स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त होते हैं किन्तु ऊपरी न्यायालयों – सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में अभियोजन के सञ्चालन के लिए मात्र अंशकालिक और अस्थायी लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं। इन लोक अभियोजकों को नाम मात्र का पारिश्रमिक देकर उन्हें अपनी आजीविका के लिए अन्य साधनों से गुजारा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। वर्तमान में लोक अभियोजकों को लगभग सात हजार रुपये मासिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है जबकि सहायक लोक अभियोजकों को पूर्ण वेतन लगभग तीस हजार रुपये दिया जा रहा है। यह भी एक विरोधाभासी तथ्य है कि सामान्य अपराधों के लिए निचले न्यायालयों में स्थायी सहायक लोक अभियोजक नियुक्त हैं जबकि ऊपरी न्यायलयों में संगीन अपराधों के परीक्षण और अपील की पैरवी को अल्पवेतनभोगी अस्थायी लोक अभियोजकों के भरोसे छोड़ दिया गया है। यह स्थिति आपराधिक न्याय प्रशासन का उपहास करती है और अपराधों की रोकथाम व अपराधियों को दण्डित करने के प्रति सरकारों की संजीदगी का एक नमूना पेश करती है ।
लोक अभियोजकों की नियुक्तियां सत्तासीन राजनैतिक दल द्वारा अपनी लाभ हानि का समीकरण देखकर की जाती हैं और लोक अभियोजक भी अपने नियोक्ता के प्रसाद ( प्रसन्नता) का पूरा ध्यान रखते हैं अन्यथा उन्हें किसी भी समय सरकारी कोप-भाजन का शिकार होने पर पद गंवाना पड़ सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संगीन जुर्मों के अपराधियों को यदि सरकारी संरक्षण प्राप्त हो तो उस प्रकरण में लोक अभियोजक के माध्यम से पैरवी में ढील देकर दण्डित होने से बचा जा सकता है। भारत में राजनीति के अपराधीकरण के लिए यह भी एक प्रमुख कारक है। सरकार जिसे दण्डित नहीं करवाना चाहे उसके विरुद्ध पैरवी में ढील के निर्देश दे सकती है।
न्यायप्रशासन की स्वतंत्रता के लिए प्रायः देश के न्यायविद और उनके समर्थक तर्क देते हैं कि न्याय प्रशासन की पवित्रता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं न्यायाधीशों का निर्भय, एवं उनकी नौकरी में स्थायित्व होना आवश्यक है। यक्ष प्रश्न यह है कि जब न्याय प्रशासन के अहम स्तंभ लोक अभियोजक की सेवा की अनिश्चितता जनित न्यायप्रशासन पर संभावित प्रतिकूल प्रभाव को देश वहन कर सकता है तो न्यायाधीशों की सेवा की अनिश्चितता से देश वास्तव में किस प्रकार कुप्रभावित होगा। अर्थात न्यायाधीशों की सेवा को भी स्थायी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है।
लोक अभियोजक इतने अल्प पारिश्रमिक के कारण पैरवी में न तो कोई रूचि लेते हैं और न ही न्यायालयों द्वारा सामान्यतया अभियुक्तों को दण्डित किया जाता है। राजस्थान के एक जिले के आंकड़ों के अनुसार वर्ष में दोषसिद्धि का मामले दर्ज होने से मात्र 1.5% का अनुपात है। यह तथ्य भी उक्त स्थिति की पुष्टि करता है। लोक अभियोजक भी अपनी आजीविका के लिए अनैतिक साधनों पर आश्रित रहते हैं। यह तो सपष्ट है ही कि भारतीय न्यायालयों से दण्डित होने की बहुत कम संभावनाएं हैं किन्तु अभियोजन पूर्व की यातनाओं से मुक्ति पाना एक बड़ा कार्य है जिसके लिए न्यायालयों की स्थापना अपना आंशिक औचित्य साबित करती है। भारत के राष्ट्रीय पुलिस आयोग का कहना भी है कि देश में 60% गिरफ्तारियां अनावश्यक होती है जिन पर जेलों का 43.2% खर्चा होता है। माननीय सुप्रीम कोर्ट भी जोगिन्दर कुमार के मामले में कह चुका है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए और मजिस्ट्रेटों पर यह दायित्व डाला गया है कि वे इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करें। किन्तु मजिस्ट्रेटों के निष्क्रिय सहयोग से स्वार्थवश पुलिस अनावश्यक गिरफ्तारियां करती रहती है और वकील न तो इनका विरोध करते और न ही मजिस्ट्रेट से इन अनुचित गिरफ्तारियों में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत रिहाई की मांग करते हैं। उलटे इन अनावश्यक गिरफ्तारियों में भी जमानत से इन्कार कर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों द्वारा जेल भेज दिया जाता है।
न्यायालयों द्वारा दोषियों के दण्डित होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हो जाने से लोक अभियोजकों की भूमिका अग्रिम एवं पश्चातवर्ती जमानत तक ही प्रमुखत: सीमित हो जाती है। प्रचलित परम्परानुसार एक गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत (चाहे उसकी गिरफ्तारी अनावश्यक या अवैध ही क्यों न हो) के लिए भी लोक अभोयोजक के निष्क्रिय सहयोग की आवश्यकता है अर्थात जमानत आसानी से हो जाये इसके लिए आवश्यक है कि लोक अभियोजक की ओर से जमानत का विरोध नहीं हो। वकील समुदाय में आम चर्चा होती रहती है कि वकील को बोलने के लिए जनता से फीस मिलती है जबकि सरकारी वकील को चुप रहने के लिए जनता फीस (नजराना) देती है। ऐसा नहीं है कि यह तथ्य सरकार की जानकारी में नहीं है। क्योंकि सरकार को भी स्पष्ट ज्ञान है कि जिस प्रकार राशन डीलर, स्टाम्प विक्रेता आदि सरकार से मिलने वाले नाममात्र के कमीशन पर जीवन यापन नहीं कर सकते और वे अपने जीवन यापन के लिए अन्य अवैध कार्य भी करते हैं ठीक उसी प्रकार लोक अभियोजकों और सरकारी वकीलों के भी अनैतिक कार्यों में लिप्त रहने की भरपूर संभावनाए मौजूद रहती हैं।
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दुखद पहलू यह है कि उक्त स्थिति से केंद्र व राज्य सरकार को अवगत करवाने पर राजकीय वाद्कर्ण विभाग राजस्थान सरकार द्वारा पत्र दिनांक १४.०९.१२ से कहा गया है कि पुराने समय से चली आ रही उक्त सफल व्यवस्था में कोई बदलाव किया जाना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है |
न्याय सांगत सलाह है |