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लोकपाल और न्यायपालिका के लिए सरकारों के बजट का निश्चित प्रतिशत निर्धारित हो

खिर यह तय हो ही गया है कि लोकपाल विधेयक संसद के अगले सत्र में प्रस्तुत होगा। इस के लिए जिस प्रकार का वातावरण बना है उसे देखते हुए इस विधेयक को सर्वसम्मति से इसी सत्र में पारित भी हो लेगा। जन-लोकपाल विधेयक का जो मसौदा सरकार को दिया गया है वह 32 पृष्ठों का है और अभी उस का हिन्दी अनुवाद अभी उपलब्ध नहीं है। इस विधेयक के प्रावधानों के अनुसार इस कानून से केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों का गठन होगा। इस कानून के अंतर्गत बनी संस्थाएँ चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय की तरह सरकार से स्वतंत्र होंगी। लोकपाल व लोकायुक्तों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। 
लोकपाल व लोक आयुक्त को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने की शक्तियाँ प्राप्त होंगी। लोकपाल/ वलोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा। किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। सुनवाई अगले एक साल में पूरी कर ली जाएगी। इस तरह किसी भी भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को दो साल के भीतर जेल भेजा जा सकेगा।  
भ्रष्टाचार के कारण सरकार और सार्वजनिक संपत्ति को जो भी हानि हुई है, अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा। किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अधिकारी पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर प्राप्त होगा। 
लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच दो महीने में पूरी कर दोषी पाए जाने पर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा। सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटि-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा। 
स तरह लोकपाल विधेयक के कानून बन जाने पर एक नई स्वतंत्र संस्था अस्तित्व आ जाएगी। लेकिन इस संस्था के खर्चे सरकार को वहन करने होंगे। यदि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इन संस्थाओं को पर्याप्त वित्त उपलब्ध न कराया गया तो ये संस्थाएँ भी देश की न्यायपालिका की तरह पंगु हो कर रह सकती हैं। वर्तमान में न्यायपालिका के पास जितनी अदालतें होनी चाहिए उस की केवल 23 प्रतिशत हैं, जिस का नतीजा यह है कि जनता को इतनी देरी से न्याय मिल रहा है कि उस के मिलने का कोई अर्थ नहीं रह गया है। कहीं ऐसा न  हो कि इसी तरह लोकपाल संस्थाओं को भी पंगु न बना दिया जाए। इस के लिए यह स्पष्ट प्रावधान होना चाहिए कि सरकार अपने बजट का एक निश्चित प्रतिशत भाग लोकपाल संस्थाओं के लिए देना होगा। इसी तरह का प्रावधान न्यायपालिका के लिए भी होना चाहिए। 
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