इतने क्यों नाराज हैं वकील ? -बनाम- वकीलों का गंभीरतम अपराध
|वकीलों का ऐसा व्यवहार गैरकानूनी तो है ही, अदालत की अवमानना भी है। हरीश उप्पल बनाम संघ में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट निर्णय दिया है कि वकील हड़ताल नहीं कर सकते हैं। किंतु वकील बार-बार हड़ताल करते नजर आ रहे हैं, चाहे मामला किसी वकील पर हमले का हो या अपराध प्रक्रिया विधान में संशोधन का या कुछ और। यहां तक कि केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट)को खत्म करने के केंद्र सरकार के फैसले के विरोध में भी उन्होंने जबर्दस्त हंगामा किया। अधिकरण का गठन केंद्र सरकार के कर्मचारियों के मामलों का त्वरित निष्पादन करने के लिए किया गया था। इसके पहले वे उच्च न्यायालय में मामले दायर करते थे, जिसके निर्णय के विरुद्ध अपील उच्चतम न्यायालय में की जाती थी।
….. ………परंतु 1996 में उच्चतम न्यायालय ने एल. चंद्रकुमार बनाम संघ में व्यवस्था दी कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का रिट ज्युरिसडिक्शन संविधान की मौलिक संरचना है, जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। यानी अधिकरण के निर्णय के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में होगी और अंत में उच्चतम न्यायालय में। इससे अब मुकदमेबाजी के तीन चरण हो गए, जो पहले मात्र दो थे। इसलिए अब, जब कि उच्च न्यायालय जाना अनिवार्यता हो गई है, तो अधिकरण को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि इससे समय और पैसे की बर्बादी होती है। इस तर्क के आधार पर अधिकरण को खत्म कर दिया गया। परंतु वकीलों ने इसे पसंद नहीं किया। संभवत: उन्हें वही व्यवस्था चाहिए, जिसमें मुकदमे लंबे खिंचे, ताकि उनकी फीस बनती रहे।
अब यहाँ सुधांशु का तर्क बिलकुल बेमानी है। मुकदमों के निपटारे में समय इस लिए नहीं लगता कि वकील उस में पेशी लेते रहते हैं। अपितु समय इस लिए लगता है कि मुकदमों और देश की आबादी की तुलना में देश में अदालतों की संख्या बहुत कम है। खुद विधिमंत्री द्वारा संसद में दिए गए बयान के अनुसार देश में 10 लाख की आबादी पर 50 अदालतें होनी चाहिए, लेकिन यहाँ हैं केवल मात्र 12-14 अदालतें। इतनी ही आबादी पर ब्रिटेन में 55 और अमरीका में 110 अदालतें हैं। यानी भारत में जरूरत की केवल एक चौथाई अदालतें हैं। वकील अपनी फीस मुकदमे के आधार पर लेते हैं, न कि इस आधार पर कि मुकदमा कितने वर्ष चलता है। वास्तविकता यह है कि अदालतों में मुकदमों की भरमार है और अदालतें एक दिन में जितने मुकदमों में कार्यवाही कर सकती है उस से पाँच-छह गुना मुकदमे सुनवाई के लिए प्रतिदिन लगाती है। अवश्यंभावी परिणाम यह है कि 80 प्रतिशत मुकदमों में बिना कोई प्रभावी कार्यवाही हुए ही पेशी बदल जाती है। इस का दोष मंढ़ा जा रहा है वकीलों के मत्थे।
सुधांशु रंजन ने आगे कुछ वकीलों द्वारा किए गए व्यावसायिक दुराचरण के मामलों का उल्लेख किया है। लेकिन इस तरह क
कृपया बताये कि एक सरकारी विभाग में नियुक्त वकिल किसी सरकारी योजना के लाभार्थी को लाभ से वंचित करने की दुभीवना से अपने साथी वकिल के जरीये स्टे की कार्यवाही करवाता है तथा विभाग की ओर से ऐसा ञबाब देता जिस कारण न्यायालय को स्टे देना पडे। ऐसे वकिल के खिलाफ क्या कार्य कही हो सकती है।
आप का लेख बहुत ही सार्थक और संतुलित हैं. यदि मात्र हड़ताल पर जाने से भाई सुधांशु रंजन वकीलों को बहुत बड़ा अपराधी मानते हैं तो हमारे देश के कौनसे व्यवसाय के समूह द्वारा अपने व्यवसाय पर किसी प्रकार की आंच आने पर हड़ताल नहीं की गयी हैं. वो चाहे भाई सुधांशु रंजन का खुद का पेशा हो या अन्य कोई. हाल ही में नवम्बर २००८ में मणिपुर में पत्रकार की मौत पर पत्रकारों द्वारा की गयी हड़ताल भी माननीय सुप्रीम कोर्ट की मंशा के अनुरूप नहीं थी, लेकिन अपने अधिकारो की रक्षा हेतु हड़ताल पर जाना सही हैं या नहीं यह एक बड़ी बहस का प्रसन्न हैं. लेकिन इस से यह कदापि मतलब नहीं निकाले की मैं हड़ताल को हर मर्ज की दवा मानता हूँ. मैं स्वयं एक वकील होने के नाते इस पेशे से जुडी गरिमा की हर हाल मैं रक्षा करने के लिए वकील समुदाय से ऐसे किसी भी कार्य की अपेक्षा नहीं करता जो आम जन में इस पेशे की गरिमा को तनिक भी आंच पहुचाएं. लेकिन केवल कुछ व्यक्तियों के गलत आचरण को आधार बनाकर सतही टिपण्णी कर देना कहा तक उचित हैं.
अब तो वकीलों का भी हड़ताल करना आम सी बात हो गई है ।
सुधांशु के लेख के बहाने, अदालतों की एक और वास्तविकता पर रोशनी डाली है आपने