कल की टिप्पणियाँ
|पिछली पोस्ट पर पुराणिक जी की टिप्पणी थी “हम तो जी एक बार ही अदालत गये थे,वहां से पांच विषय निकले थे व्यंग्य के। पर एक भी ना लिखा,कोर्ट की अवमानना के डर से।”
उन्हें मेरा सुझाव है कि वे ये पोस्टें लिखें व्यंग्य पर अवमानना से नहीं डरें और आश्वस्त नहीं हों तो पहले मुझे जंचवा लें। कोई अवमानना का मुकदमा नहीं चलेगा। वैसे भी अदालतें फुरसत में नहीं हैं।
एक टिप्पणी ज्ञान जी की थी “आपने जो नतीजे निकाले हैँ – वे तर्कसँगत प्रतीत होते हैँ। हाँ, कुछ सॉफ्टवेयर के प्रकरण – मसलन नैतिकता और ईमानदारी को भी टेकल करना होगा।
इसे तो टेकल करना ही होगा इसका अनुपात गड़बड़ा रहा है।
एक और टिप्पणी ममता जी की “अदालतों की संख्या बढेगी तो इसका मतलब ये नही है कि सब कुछ इतना आसान हो जाएगा। बात फिर भी वहीं कि वहीं रहेगी हाँ थोडा -बहुत फर्क पड़ सकता है।जरुरत है तो वकीलों और न्यायधीशों को अपना नजरिया बदलने की। यानी तारीख पर तारीख वाला सिस्टम कम करने की।
इस पर हम किसी अगली पोस्ट पर जरूर लिखेंगे। अभी बिजली जाने वाली है
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यह अच्छा कर रहे हैं कि टिप्पणियों को भी साथ लेते चल रहे हैं चर्चा में।