कानूनों के संबंध में भ्रम फैलाते टी.वी. धारावाहिक
|पूरे देश में ऐसा कौन सा थाना है जो केवल टेलीफोन पर मिली बेनामी सूचना पर एफआईआर दर्ज कर लेता है और बिना कोई अन्वेषण किए बेनामी सूचना में बताए गए कथित अपराधी को गिरफ्तार कर लेता है? वह भी तब जब कि वारदात में घायल व्यक्ति जिस नाम के अस्पताल में भर्ती बताया जा रहा है शहर में उस नाम का कोई अस्पताल नहीं है। फिर अचानक अपराधी का एक रिश्तेदार सीधे मजिस्ट्रेट के पास पहुँच जाता है और इस गलती की ओर ध्यान दिलाता है। मजिस्ट्रेट फोन पर ही कथित अपराधी को रिहा कर देने का आदेश थानाधिकारी को दे देता है, लेकिन थानाधिकारी से यह भी नहीं पूछता कि इस तरह बिना किसी सबूत के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार क्यों किया गया।
देश में ऐसा पुलिस थाना मिले न मिले हिन्दी के मनोरंजन चैनलों के मशहूर धारावाहिकों में ऐसे दृश्य आम हैं जिनमें मनमर्जी से कानूनों और कानूनी प्रक्रियाओं को गलत रीति से दिखाया जाता है। इतना ही नहीं, भाई की जमानत के लिए भाई पिता से कुछ खाली कागजों पर अंगूठा करवा लेता है और उन कागजों के आधार पर वह अपने पिता की सारी अचल संपत्ति अपने नाम हस्तान्तरित करने का दस्तावेज उप पंजीयक के दफ्तर में पंजीकृत करवा लेता है। इस तरह का दस्तावेज पंजीकृत होते ही भाई में इतनी ताकत आ जाती है कि वह जायदाद अपने कब्जे में कर अपने माता-पिता, दादी और भाभी को अपने घर से निकाल देता है और वे निकल भी जाते हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में देखें तो पाएंगे कि एक दस्तावेज पंजीकृत कराने के लिए न केवल दस्तावेज निष्पादित करने वाले व्यक्ति अपितु जिस के नाम जायदाद हस्तांतरित हो रही है उस व्यक्ति के और गवाहों तक के पहचान पत्र देखे जाते हैं, उन के छायाचित्र दस्तावेज और पंजिकाओं में चिपकाए जाते हैं, उन्हें पंजीयक के कार्यालय में उपस्थित होना जरूरी है जहाँ एक कैमरा उन के चित्र लेता है जो पंजीकृत होने वाले दस्तावेजों के साथ और पंजीयक के कार्यालय के रिकार्ड में रखे जाते हैं। बिना किसी व्यक्ति के उप पंजीयक के कार्यालय में उपस्थित हुए उस की जायदाद किसी अन्य व्यक्ति के नाम हस्तान्तरित नहीं की जा सकती। यदि कोई दस्तावेज ऐसा पंजीकृत हो भी जाए तब भी कोई किसी को उस के निवास स्थान से केवल दस्तावेज के आधार पर नहीं निकाल सकता और निकालने की कहे तब भी कोई क्यों निकलेगा? सब जानते हैं कि जब तक अदालत कब्जा दूसरे को सौंप देने का आदेश न दे दे तब तक किसी व्यक्ति से अचल संपत्ति का कब्जा हासिल नहीं किया जा सकता।
ये तो अक्सर टीवी दर्शक धारावाहिकों में देखते हैं कि एक हिन्दू पति अपनी पत्नी के हस्ताक्षर कुछ कागजों पर हासिल करता है और दोनों का तलाक हो जाता है। जब कि किसी भी हिन्दू दम्पति का विवाह विच्छेद केवल और केवल न्यायालय ही स्वीकृत कर सकता है। यदि यह तलाक दोनों स्वेच्छा से भी ले रहे हों तब भी अर्जी दाखिल करने की तारीख के छह माह की अवधि व्यतीत होने के पहले तलाक मंजूर किया जाना संभव नहीं है।
एक और दृश्य है। एक खाद्य निरीक्षक मिठाई के दुकान मालिक को नोटिस भेजता है कि वह मिठाई के नमूने उस के दफ्तर में जमा कराए। फिर वह रिश्वत मांगने उस के घर पहुँच जाता है। दुकानदार की पत्नी उसे रिश्वत मांगने के लिए बेइज्जत कर घर से निकाल देती है। दुकानदार निर्धारित अवधि में मिठाई के नमूने खाद्य निरीक्षक के दफ्तर में जमा करवा देता है। नमूने जाँच के लिए प्रयोगशाला भेजे गए हैं या नहीं यह नहीं दिखाया जाता लेकिन अगले दिन ही खाद्य निरीक्षक मिठाई वाले की दुकान पर ताला लगा कर उसे सील कर देता है। फिर निरीक्षक आ कर दुकानदार को कहता है, देख लिया रिश्वत न देने और पत्नी की बात मानने का नतीजा। जब कि खाद्य निरीक्षक को किसी भी खाद्य सामग्री विक्रय करने वाले दुकानदार को नोटिस भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सीधे दुकान पर आ कर दुकानदार की मौजूदगी में बेची जा रही खाद्य सामग्री के नमूने सील कर सकता है और उन्हें प्रयोगशाला भेज सकता है। प्रयोगशाला की रिपोर्ट में मिलावट पाए जाने पर दुकानदार के विरुद्ध मुकदमा चला सकता है लेकिन खाद्य सामग्री विक्रय करने के स्थान को बंद कर के सील नहीं कर सकता।
रोज ही ऐसे दृश्य टेलीविजन पर दिखाए जा रहे हैं जिन में कानूनी स्थितियों को गलत तरीके से दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह कहानी की जरूरत हो। इस के पीछे सब से बड़ी वजह तो इन दृश्य लेखकों की अज्ञानता है। जब वे किसी दृश्य को लिखने बैठते हैं तो यह जानकारी करने की कोशिश नहीं करते कि जो दृश्य वे लिख रहे हैं उस में कानूनी बातों को सही ढंग से दिखाया जा रहा है या नहीं। सीरियलों के निर्माता भी इस बात का प्रयास नहीं करते। इन मामलों पर कोई शोध नहीं होता। यहाँ तक वे कानून के किसी साधारण जानकार से सलाह लेना तक जरूरी नहीं समझते। इस तरह हम पाते हैं कि हमारे लेखक और हमारा मीडिया कानून और कानूनी स्थितियों को सही रूप में दिखाने के प्रति बिलकुल लापरवाह है। वह इस बात की चिंता नहीं करता कि कानूनी स्थितियों को गलत रूप में दिखाने पर आम लोग यह समझने लगते हैं कि देश का कानून ऐसा ही है जैसा उन दृश्यों में दिखाया जा रहा है। टीवी और सिनेमा जो दृश्य माध्यम हैं उन पर जनता को शिक्षित करने का भी भार है। गलत तथ्यों का जनता के बीच प्रचार कर के वे कानूनों और कानूनी स्थितियों के बारे में भ्रम फैला रहे होते हैं। क्या ऐसा करना देश और समाज के प्रति एक गंभीर अपराध नहीं है?
कानून का सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्ति को उस पर लागू होने वाले कानूनों की जानकारी होना चाहिए। कभी किसी कार्यवाही में कोई व्यक्ति यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता कि उसे इस कानून की जानकारी नहीं थी। लेकिन यह भी सच है कि सारे कानून न तो सब वकील जानते हैं और न ही हमारे देश के मजिस्ट्रेट और न्यायाधीश। जब उन के सामने कानूनी मामले आते हैं तो उन्हें भी कानूनों को बार बार पढ़ना होता है। ऐसे में न केवल राज्य की यह जिम्मेदारी हो जाती है कि वह कानूनी जानकारियों को आम जनता को इस तरह उपलब्ध कराए कि जो भी कानूनी जानकारी प्राप्त करना चाहता है उसे वह मुफ्त और सहज उपलब्ध हो। अभी तक केन्द्र और राज्य सरकारें अपने इस कर्तव्य को पूरा करने में असफल रही हैं। लेकिन वे इतना तो कर ही सकती हैं कि किसी भी रूप में चाहे वह साहित्य, कहानी, उपन्यास या टीवी सीरियल आदि ही क्यों न हों जनता के बीच कानूनों और सामाजिक गतिविधियों को गलत रूप में प्रस्तुत करने से रोकें। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो कृतिकारों को अपनी कृतियों में कानून और कानूनी स्थितियों को सही रूप में दिखाने के लिए बाध्य करता हो और गलत रूप में दिखाने को रोकने के उपाय करता हो तथा इसे एक दंडनीय अपराध घोषित करता हो।
दिनेश जी, इस जानकारीपूर्ण आलेख के लिये आभार.
आज “मां” चिट्ठे की नवीनतम कविता का पाठ करने के बाद एकदम बाद तीसरे खंबे पर आया तो यह आलेख दिख गया. आजकल कई विषयों पर ये माध्यम काफी गलतफहमी फैला रहे हैं औार उन में से एक पर आप ने विस्तार से जो प्रकाश डाला है उसके लिये आभार.
अपना यह जनोपयोगी आंदोलन जारी रखें!
सस्नेह — शास्त्री
सर जी, बहुत दिनों बाद दर्शन हुए आपके!
हैं किधर आप?
बी एस पाबला का पिछला आलेख है:–.गन्ना रस क्यों नहीं पीता मैं!?
प्रथम तो भारत में ९९% से भी अधिक वकीलों और न्यायधीशों को वास्तविक न्याय देने हेतु आवश्यक कानून का ज्ञान ही नहीं है वे मात्र परम्पराओं का अनुसरण कर रहे हैं | उन्हें सीमा के बाहर क्या हो रहा है इसका ज्ञान नहीं है| उनमें अनुसन्धान के प्रति कोई रुचि नहीं है| फिर कानून का ज्ञान हो तो भी न्यायालय उनका अनुसरण नहीं करते , कानूनी दृष्टान्तों को निर्देशात्मक , संप्रेक्षण , लागू नहीं होता आदि कह कर न्यायाधीशों द्वारा नकार दिया जाता है जिससे निराश और हताश होकर वकील किसी कानून का अध्यन करने की कोई उपयोगिता नहीं समझते और अध्ययन करना छोड़ देते हैं | कानून के प्रति आम व्यक्ति में जागरूकता लाने का आत्मघाती कदम भारतीय वातावरण में न तो कोई पेशेवर वकील उठाएगा , न ही कोई न्यायधीश और न ही सरकार |
बाहरी चमक दमक ही है शायद कंटेंट को रिसर्च करने पर ध्यान ही नहीं दिया जाता … बहुत ज़रूरी है की ऐसे संवेदनशील विषयों पर भ्रामक जानकारी न दी जाये ….. सार्थक पोस्ट