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क्या आप अपने लिए एक काम करेंगे?

भारत के मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने बहुत बार कहा है कि देश में अदालतों की संख्या बहुत कम है इस कमी को तेजी से समाप्त किया जाना जरुरी है।  अदालतें कम होने के कारण मुकदमें लम्बित और विलंबित होते हैं। वर्षों तक उन का निपटारा नहीं होता है।  इस बार उन्हों ने अदालतों में दीवानी मुकदमे कम दायर होने पर चिंता व्यक्त की है।   उन्हों ने कहा कि सामान्य व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने पर इन मुकदमों की संख्या बढ़नी चाहिए। लेकिन इन की घटती संख्या यह बता रही है कि लोग विवादों के हल के लिए अवैधानिक साधनों का उपयोग कर रहे हैं।

अदालतों के बाहर उचित मध्यस्थता से विवादों का हल हमेशा शुभ संकेत है लेकिन लोग इस के स्थान पर गुडों और मवालियों की मदद ले कर अपने विपक्षीयों को धमका कर विवादों का हल करने लगें तो यह देश और समाज के लिए एक चेतावनी है।  इस से देश में अपराधी तत्वों को की वृद्धि तेजी से हो रही है और देश में कानून के राज की अपेक्षा जिस की लाठी उस की भैंस का न्याय स्थापित होता जा रहा है।

लेकिन इस की फिक्र कम से कम उन्हें नहीं है जिन के पास भारी भरकम लाठियों वाले लठैत हैं।  उन तमाम लोगों को नहीं है जो राजनीति में हैं और चुनाव जीत कर संसद और विधानसभाओं में विराजमान हैं।  उन्हें भी नहीं है जो अन्य स्थानीय संस्थाओं में अच्छे पदों पर बैठे हैं।  उन्हें भी नहीं जो बड़ी बड़ी कंपनियाँ चला रहे हैं। उन अफसरों को भी नहीं है जिन के पास प्रशासन का डंड़ा है।

इस मार से यदि कोई परेशान है तो वह आम व्यक्ति है।  जिस में गांव का किसान है, खेत मजदूर है, कस्बों और नगरों में नौकरियाँ कर रहे कर्मचारी हैं, छोटे-बड़े  दुकानदार हैं, फुटकर मजदूर हैं, छोटे उद्योगपति हैं। उन्हें इन लठैतों की मार सहन करनी होती है। जनता का यह सारा हिस्सा देश के अस्सी प्रतिशत से अधिक आबादी का निर्माण करता है।  देश की यह अस्सी प्रतिशत आबादी से मेरा यही प्रश्न है कि क्या वे सरकारों को इस न्याय-व्यवस्था को सुधारने और इसे विस्तार देने के लिए बाध्य करने में सक्षम नहीं हैं।  मैं जानता हूँ कि इस ब्लाग को केवल कुछ सौ लोग ही पढ़ेंगे।  लेकिन वे सौ लोग यदि अन्य लोगों तक यह बात पहुँचाएँ और आगे पहुँचाने के लिए कहें तो शायद यह बात एक दिन उन अस्सी प्रतिशत लोगों तक जरूर पहुँच जाएगी।

क्या आप इस काम को करेंगे?

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