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क्या हिन्दू विवाह अधिनियम ने विवाह विच्छेद के मामलों को बढ़ाया है?

निशान्त दुबे ने पूछा है –

मैं जानना चाहता हूँ कि हिन्दू विवाह अधिनियम के समाज पर क्या प्रभाव हुए हैं? क्या इस ने तलाक के मामलों में वृद्धि की है और परिवार के स्वरूप को विश्रंखलित किया है? 

उत्तर –
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में अस्तित्व में आया। उस के पहले परंपरागत हिन्दू विवाह विधि ही प्रचलित थी। जब हिन्दू विवाह अधिनियम पारित हुआ तो यह कहा गया था कि यह हिन्दू विवाह से संबंधित कानून को संहिताबद्ध करेगा और उस में संशोधन भी करेगा। इस कानून से पहले जो विधि प्रचलित थी वह प्राचीन हिन्दू विधि थी जिस का स्रोत या तो प्राचीन भारतीय ग्रंथ थे या फिर न्यायालयों के निर्णय थे। इस तरह हिन्दू विवाह विधि को इस अधिनियम के द्वारा पहली बार संहिता बद्ध किया गया था।
स कानून के पहले भारतीय विवाह को पूरी तरह धार्मिक संस्कार  और विवाह के बंधन को इस जन्म का ही नहीं, जन्म-जन्मांतर का बंधन माना जाता था। यह विवाह किसी भी भांति नहीं टूट सकता था। हिन्दू विवाह में किसी भी परिस्थिति में विवाह विच्छेद अथवा तलाक जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। एक पुरुष अनेक पत्नियाँ रख सकता था लेकिन एक स्त्री के अनेक पति नहीं हो सकते थे। विवाह की कोई न्यूनतम आयु निश्चित नहीं थी। किसी भी आयु के अवयस्क का विवाह उस के संरक्षक की सहमति से संपन्न  हो सकता था और वह सदैव के लिए बंधनकारी होता था। विधवा को विवाह का कोई अधिकार नहीं था। यहाँ तक कि विवाह किसे माना जाए इस के लिए कोई निश्चित मानदंड नहीं था। परंपरा के अनुसार विवाह के लिए निषिद्ध संबंधों के मानक भी भिन्न था। इस कारण से यह कहा जा सकता है कि इस कानून के संहिताकरण और संशोधन से हिन्दू विवाह को एक स्थाई स्वरूप प्राप्त हुआ था और अनेक बदलाव आए थे। इन सब की आप के इस प्रश्न के उत्तर में विवेचना  करना संभव नहीं है। उस के लिए ब्लाग पर एकाधिक आलेखों की आवश्यकता होगी।
प का मूल प्रश्न था कि क्या इस कानून से विवाह-विच्छेद में वृद्धि हुई है और इस ने परिवार के स्वरूप को विश्रंखलित किया है? इस का उत्तर यह है कि इस कानून के पहले तो विवाह विच्छेद था ही नहीं। विवाह विच्छेद तो इस कानून से ही अस्तित्व में आया है। लेकिन समय को देखते हुए यह एक प्रगतिशील कदम ही कहा जा सकता है। यह भी सही है कि प्रतिवर्ष विवाह-विच्छेद के मामलों की संख्या बढ़ती गई है। लेकिन मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि यह कानून के कारण नहीं है। पहले यदि किसी पत्नी को कोई पति त्याग देता था तो यही कहा जाता था कि उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी को छोड़ दिया है अथवा पत्नी अपने पति को छोड़ कर चली जाती थी तो यह कहा जाता था कि पत्नी अपने पति को छोड़ कर चली गई है।  इस घटना के उपरांत भी स्त्री अपने पति की पत्नी बनी रहती थी। उसे दूसरा विवाह करने का अधिकार नहीं था। इस कानून के बाद विवाह विच्छेद अस्तित्व में आया और स्त्री को विवाह विच्छेद के उपरांत विवाह करने का अधिकार प्राप्त हुआ  जो संविधान में दिए गए समान अधिकार के अनुसार भी है। कानून बन जाने के उपरांत आज 54 वर्ष गुजर चुके हैं। लेकिन हिन्दू समाज इस कानून को पूरी तरह नहीं अपना पाया है और पुरानी परंपराओं का प्रचलन एक सीमा तक जारी है। अनेक पति-पत
्नी पृथक हो जाने के उपरांत भी विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त नहीं करते। दूसरी ओर कटुतापूर्ण और सामंजस्यहीन  वैवाहिक दंपतियों की संख्या भी बहुत अधिक है। हमारे समाज में आज भी विवाह विच्छेद उस मात्रा में नहीं हो रहे हैं। जो हो रहे हैं वे कानून के कारण कम अपितु समाज में तेजी से हो रहे आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों के फलस्वरूप अधिक हो रहे हैं। देश में अदालतों की संख्या अत्यंत न्यून होने और पारिवारिक विवादों में लगने वाले लंबे समय के कारण भी विवाद बमुश्किल ही अदालतों के समक्ष जाते हैं। जाते भी होते हैं तो अपनी चरम अवस्था में जाते हैं। पारिवारिक विवादों के अदालत में जाने के पहले आवश्यक रूप से एक समझौता बोर्ड के सामने जाना चाहिए जहाँ उचित सामाजिक काउंसलिंग हो, जिस की महति आवश्यकता है। यह काउंसलिंग समयबद्ध हो, जिस की अवधि कम से कम तीन माह और अधिक से अधिक छह माह निर्धारित की जा सकती है।
हालांकि एकाधिक बार हमारे सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों ने भी कहा है कि इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों ने विवाह विच्छेद के मामले बढ़ा दिए हैं कई बार तो लगता है कि विवाह होने के पहले ही तलाक की अर्जी लिखी जा चुकी होती है। लेकिन न्यायाधीशों की यह राय विकृतचित्तता और कोढ़ को विवाह विच्छेद के आधारों में सम्मिलित होने के कारण प्रकट की है।
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