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चैक अनादरण मामले : अभियुक्त मर गया तो समझो परिवादी भी मारा गया

 
 फ़ैजाबाद, उत्तर प्रदेश से मृत्युञ्जय ने पूछा है –

क व्यक्ति से मेरा व्यापारिक लेनदेन चलता था। बाद में उसने मेरा 8,80,000/- रुपया नहीं दिया तो मैंने उस के द्वारा दिए गए चैकों के अनादरण के आधार पर उसके ऊपर धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम का मुकदमा किया है। अभी 16 सितम्बर को उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। उसकी शादी नहीं हुई थी और उसकी कोई स्वार्जित संपत्ति नहीं है।उसके पिता के पास काफी संपत्ति है और वह उसे बेचने पर अमादा है। यह संपत्ति जिस व्यक्ति के ऊपर मैंने मुकदमा किया है उसके दादा या परदादा (उसके पिता के दादा)  के द्वारा अर्जित की गई थी। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाने के बाद क्या इस संपत्ति से उसके हिस्से के आधार पर या अन्य किसी तरह कोई वसूली हो सकती है? क्या मैं किसी तरह उसके पिता को संपत्ति बेचने से रोक सकता हूँ।  वह व्यक्ति अभी मेरे द्वारा अप्रैल 2008 में किये गए मुक़दमे में हाजिर तक नहीं हुआ था। बाद में उल्टा मुझे ही अपने वकील के माध्यम से नोटिस भेजा था। उसके ऊपर दीवानी का मुकदमा करने के लिए एक बहुत बड़ी रकम कोर्ट फीस के रूप में भी देना पड़ेगा जो मेरे लिए बड़ा मुश्किल है।  लेकिन किसी तरह इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। कृपया यह सलाह दे की मुझे दीवानी का वाद किस आधार पर प्रस्तुत करना चाहिए? और क्या वह मुकदमा करने के बाद मुझे मेरा पैसा मिलने की कोई संभावना दिख रही है अथवा नहीं? मै निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ कि मुझे अब क्या

 

 
 
 कानूनी सलाह –
 
मृत्युञ्जय की समस्या के अवलोकन से पता लगता है कि उन्होंने अपने व्यापारिक लेन-देन की उधारी वसूलने के लिए किसी व्यक्ति के विरुद्ध उस व्यक्ति द्वारा उन्हें दिए गए चैकों के आधार पर परक्राम्य विलेख अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अप्रेल 2008 में मुकदमा किया। इस मुकदमे को चलते तीन वर्ष से अधिक हो चुके हैं।
रक्राम्य विलेख अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत मुकदमा एक अपराधिक मुकदमा है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को किसी कानूनन वसूली योग्य उधार या अन्य किसी दायित्व के भुगतान के लिए चैक देता है। चैक धारक द्वारा चैक को भुगतान हेतु बैंक में प्रस्तुत करने पर वह बैंक द्वारा चैकदाता के बैंक खाते में चैक के भुगतान के लिए पर्याप्त धनराशि न होने के कारण अनादरित कर दिया जाता है तो यह माना जाएगा कि चैकदाता ने अपराध किया है जिस के लिए उसे दो वर्ष तक के कारावास, या चैक की राशि की दुगनी राशि तक का जुर्माने, या दोनों से दंडित किया जा सकता है। लेकिन इस के लिए यह आवश्यक है कि –
1. चैक को बैंक में जारी करने की तिथि के छह माह की अवधि में अथवा उस चैक की वैधता की अवधि में, जो भी कम हो बैंक में प्रस्तुत किया गया हो।
2. चैक प्राप्तकर्ता चैक के अनादरण की सूचना प्राप्त होने के तीस दिनों की अवधि में अनादरित चैक की राशि चैकदाता से प्राप्त करने के लिए लिखित में चैकदाता से चैकराशि की मांग करे।
3. चैकदाता उसे लिखित मांगपत्र प्राप्त होने की तिथि से 15 दिनों की अवधि में चैकराशि का भुगतान चैक धारक को करने में असमर्थ रहे।
 
स तरह के मामले में जब तक कि अन्यथा साबित न कर दिया जाए तब तक चह माना जाएगा कि चैक धारक ने चैक किसी कानूनन वसूली योग्य उधार या अन्य किसी दायित्व के लिए ही प्राप्त किया था।
 
स मामले में न्यायालय तभी प्रसंज्ञान ले सकता है जब कि उस के समक्ष कार्रवाई के लिए कारण उत्पन्न हो जाने की तिथि से 30 दिनों की अवधि में परिवाद प्रस्तुत कर दिया गया हो। हालाँकि  न्यायालय 30 दिनों के उपरान्त प्रस्तुत किया गए परिवाद पर प्रसंज्ञान ले सकती है यदि उसे संतुष्ट कर दिया जाए कि 30 दिनों की निर्धारित अवधि में परिवाद प्रस्तुत नहीं करने के लिए परिवादी (चैक धारक) के पास समुचित कारण था। इस मामले में कार्रवाई के लिए कारण तब उत्पन्न हो जाता है जब कि चैकदाता को चैकराशि का मांगपत्र प्राप्त हो जाने की तिथि से 15 दिनों की अवधि समाप्त हो जाती है।
स पूरे कानून में कहीं भी यह उपबंधित नहीं है कि अपराध साबित हो जाने पर अभियुक्त को जुर्माने के दंड से दंडित किया ही जाएगा। यह भी उपबंधित नहीं है कि किया गया जुर्माने की राशि से कोई राशि चैकधारक को दिलायी जाएगी। इस तरह यह स्पष्ट है कि धारा 138 परक्राम्य विलेख अधिनियम तथा सम्बन्धित उपबंध किसी कानूनन वसूली जा सकने वाली धनराशि की वसूली के लिए है। लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 की उपधारा 1 (ख) में यह उपबंधित किया गया है कि दंडादेश से वसूल किए गए जुर्माने या उस के किसी भाग का उपयोजन उस अपराध द्वारा हुई हानि या क्षति का प्रतिकर देने में किया जा सकता है यदि न्यायालय की राय में ऐसे व्यक्ति द्वारा  प्रतिकर दीवानी न्यायालय में वसूल किया जा सकता है।
 
न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता के उक्त उपबंध का उपयोग कर के ही जुर्माने के रूप में वसूल की गई राशि का एक भाग चैक धारक को दिलाने का आदेश देते हैं। यह राशि आम तौर पर चैक की राशि और उस पर अर्जित किए जा सकने वाले ब्याज के समरूप होती है। इस तरह चैक धारक को उस के द्वारा दीवानी न्यायालय द्वारा वसूल की जा सकने वाली राशि प्राप्त हो जाती है। दीवानी दावा करने के लिए चैक धारक को दावे के मूल्यांकन के आधार पर न्याय शुल्क देनी होती है जो दावे के मूल्य की 5 से 10 प्रतिशत तक हो सकती है। इस न्याय शुल्क को बचाने के लिए लोग अब चैक अनादरण के आधार पर फौजदारी मुकदमे करते हैं लेकिन उस की राशि को वसूल करने के लिए दीवानी वाद प्रस्तुत नहीं करते। दीवानी वाद प्रस्तुत करने की अवधि धनराशि उधार दिए जाने की तिथि से केवल तीन वर्ष की है। इस अवधि में वाद प्रस्तुत न करने पर बाद में वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
 
जैसा कि मृत्युञ्जय के मामले मे हुआ है। धनराशि दिए हुए तीन वर्ष से अधिक की अवधि व्यतीत हो चुकी है और चैक दाता की मृ्त्यु हो गयी। अब चैक अनादरण का अपराधिक मुकदमा तो अभियुक्त की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाएगा। उस से मृत्युञ्जय को कोई राशि प्राप्त होना संभव नहीं है। मृतक अभियुक्त की संपत्ति यदि कोई हो तो उस से भी किसी भी प्रकार से उधार या अन्य दायित्व की राशि वसूल करने का कोई जरिया नहीं है, क्यों कि दीवानी वाद प्रस्तुत करने की अवधि तो समाप्त हो चुकी है। यदि मृत्यु़ञ्जय कोई दीवानी वाद प्रस्तुत करते हैं तो वह अवधि बाधित होने के कारण निरस्त कर दिया जाएगा और उन के द्वारा अदा की गई न्याय शुल्क की राशि की उन्हें और हानि हो जाएगी। मृत्युञ्जय को समझ लेना चाहिए कि उधार की राशि डूब गई है और उसे वसूल करने की हर कोशिश में उसे ही हानि होगी।
 
ब प्रश्न यह भी है कि तब किया क्या जाए? यदि कानूनी रूप से वसूले जाने योग्य उधार दी गई अथवा किसी दायित्व को चुकाने के लिए दिए गए चैक के अनादरित हो जाने पर धारा 138 परक्राम्य अधिनियम के अंतर्गत परिवाद प्रस्तुत कर दिया गया हो तो भी उस राशि को वसूलने के लिए किया जा सकने वाला दीवानी वाद उस के प्रस्तुत करने की अवधि समाप्त होने के पहले प्रस्तुत कर देना चाहिए। अन्यथा जिस दिन परिवादी अपने वकील को कहेगा कि अभियुक्त मर गया है तो वकील परिवादी को भी यही कहेगा कि तुम भी मारे गए।
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