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जनतंत्र की चाशनी में लपेट कर सामंतवाद को कब तक अभयदान दिया जाता रहेगा?

बंधुआ घरेलू नौकर

भारतीय गाँवों में तेजी से आर्थिक बदलाव हुए हैं। जब खेती का सारा काम बैलों के श्रम पर निर्भर करता था तो खेती में मानवश्रम की आवश्यकता अधिक होती थी। गाँवों के भूमिहीन लोगों को वहीं खेतों में रोजगार मिल जाता था। हालांकि यह रोजगार वैसा नहीं होता था जैसा आज कल नगरों में देखने को मिलता है। अक्सर जमींदार लोग अपने यहाँ काम करने के लिए मजदूरों को वार्षिक वृत्ति पर काम दिया करते थे। अक्सर यह वार्षिक वृत्ति मजदूर को पहले ही दे दी जाती थी क्यों कि मजदूर को उस वृत्ति से महाजन का कर्ज और सूद चुकाना होता था। इस तरह मजदूर अपने मालिक के यहाँ वर्ष भर के लिए बन्धुआ हो जाता था। जब एक मजदूर ने अपनी वार्षिक वृत्ति पहले ही प्राप्त कर ली हो तो उसे अपना जीवन चलाने के लिए वर्ष भर को भी कुछ चाहिए। इस के लिए उस की पत्नी और बच्चे भी काम करते थे जिन्हें गाँव में नाम मात्र की मजदूरी मिलती थी। जब उस से भी घर चलाना संभव नहीं होता था मजदूर अपने मालिक से या गाँव के महाजन से उधार लेता था और वर्ष भर में कर्जा चढ़ा लेता था। वर्षान्त या अगले वर्षारंभ में मालिक या महाजान के कर्जे को चुकाने के लिए उसे फिर से वार्षिक वृत्ति अग्रिम प्राप्त करना जरूरी हो जाता था। इन मजदूरों को अपने परिवार के बारे में सोचने को फुरसत ही नहीं मिलती थी। पत्नियाँ अक्सर हर वर्ष या हर दूसरे वर्ष गर्भवती हो जाती और संतानों को जन्म देतीं। परिवार की जैसी अवस्था थी उस में बच्चा बीमारी से जूझते हुए मर जाता या शारीरिक रूप से इतना सक्षम होता कि वह इन बीमारियों पर विजय प्राप्त कर लेता तो जीवित रह जाता। इन परिवारों की सोच भी ऐसी बनी हुई थी कि अधिक बच्चे होंगे तो कुछ बड़े होने पर वे भी कुछ न कुछ अर्जित करेंगे तो घऱ की स्थिति में कुछ योगदान ही होगा। तब बच्चों को भी कुछ न कुछ काम गाँव में मिल जाता था। लेकिन जब से खेती का आधार बदला है और खेती में ट्रेक्टर व अन्य साधनों का उपयोग होने लगा है तब से गाँवों में रोजगार की स्थिति और दयनीय हो गयी है। अब इन भूमिहीन लोगों को गाँवों में रोजगार मिलना कठिन हो चला है। इसी कारण उन का पलायन नगरों की ओर होना स्वाभाविक है।

दि गाँव के इन भूमिहीन परिवारों में से किसी के मुखिया कि मृत्यु हो जाए और उस का स्थान लेने वाला परिवार में कोई अन्य न हो तो परिवार की स्त्रियों और बच्चों की स्थिति दयनीय हो जाती है। उन के पास कर्ज लेकर जीवन चलाने के सिवा कोई अन्य मार्ग शेष नहीं रहता। नगर के लोग अपने घरों, दुकानो, कारखानों और उद्यमों में काम करने के लिए ऐसे ही परिवारों की स्त्रियों और बच्चों को खोज लाते हैं। ऐसे बच्चे व स्त्रियाँ नगरीय व्यवस्था में बंधुआ या अर्ध बंधुआ श्रमिक के रूप में काम करते हुए हमें आज भी बहुत मिलेंगे, बावजूद इस के कि देश में बंधुआ श्रम उन्मूलन कानून है। ऐसे श्रमिकों को यह कानून मुक्ति प्रदान करता है लेकिन उन के लिए वैकल्पिक रोजगार या जीवन साधन की कोई व्यवस्था नहीं करता। नतीजा ये है कि लोग जीवन को चलाने के लिए बंधुआ बने रहना और यातनाएँ भुगतते रहना पसंद करते हैं। इन बंधुआ श्रमिकों को जो यातना दी जा रही है उस के लिए वर्तमान कानूनों के अंतर्गत यातना प्रदान करने वाले मालिकों को सजा दी जा सकती है लेकिन वास्तव में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं कि किसी को इस कारण से जेल में रहना पड़ा हो। इस का कारण हमारी अभियोजन व्यवस्था है जो ऐसे मालिकों की तरफदारी करती है। अभियोजन व्यवस्था का आधार पुलिस है। यदि तलाशा जाए तो पुलिस अधिकारियों के घरों पर ही ऐसे बंधुआ श्रमिक काम करते दिखाई देंगे। आखिर कोई अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगा? यदि किसी तरह किसी मालिक को ऐसी सजा दिलाने के लिए कोई अभियोजन न्यायालय के समक्ष संस्थित भी हो जाए तब भी वह साक्ष्यों के अभाव में दम तोड़ देता है।

स तरह की यातना के लिए यदि कोई श्रमिक अपने मालिक के विरुद्ध हर्जाने का दावा करना चाहे तो नहीं कर सकता। उसे इस के लिए सब से पहले तो एक दीवानी वाद संस्थित करना होगा जिस के लिए मांगी गई धनराशि पर न्यायालय शुल्क अदा करना होगा, साथ में मुकदमे के अन्य खर्चे और वकील की फीस की व्यवस्था करनी होगी जो उस के लिए संभव नहीं है। जिस व्यक्ति को बंधुआ मुक्ति के उपरान्त रोजगार के ही लाले पड़े हों वह ऐसा कैसे कर पाएगा? यदि वह ऐसा वाद निर्धन के रूप में करे तो ऐसे वाद को दर्ज होने के पहले होने वाली कार्यवाही में ही बरसों बीत जाएंगे। ऐसा वाद दर्ज हो भी जाए तो भी उस में निर्णय होने में बरसों व्यतीत हो जाएंगे। नतीजा यह है कि ऐसे मुकदमे भारत में होते ही नहीं हैं और न ही इस तरह की किसी विधि का विकास यहाँ हो सका है। भारत में स्थिति अत्यन्त दयनीय है। यदि कोई नियोजक किसी कर्मचारी का वेतन रोक, समय पर न दे या देने से ही मना कर दे तो उस की वसूली के लिए मजदूरी संदाय अधिनियम है। लेकिन वह सीमित नियोजनों के लिए है। उसे सभी नियोजनों के लिए क्यों नहीं लागू किया जाता? उस की सीमा भी है कि वह केवल दस हजार प्रतिमाह वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारियों के लिए है। इस कानून मे काटे गए वेतन का दस गुना तक हर्जाना अदालत कर्मचारी को दिला सकती है, लेकिन यदि पूरे ही वेतन का भुगतान नहीं किया गया हो या फिर उस के भुगतान में देरी की गई हो तो हर्जाने की राशि 25 रुपए से अधिक नहीं दिलायी जा सकती। इस मुकदमे में निर्णय होने में कम से कम एक वर्ष की अवधि तो लगती ही है। राजस्थान में तो स्थिति यह है कि इस तरह की आधी से अधिक अदालतों में कोई अधिकारी ही नहीं है। जो अधिकारी लगाए जाते हैं वे संयुक्त श्रम आयुक्त से लेकर श्रम कल्याण अधिकारी स्तर तक के होते हैं जिन के नियोजकों के साथ ताल्लुक अब छुपे हुए नहीं हैं। वे विभाग के उच्चाधिकारियों और मंत्री के लिए कालाधन एकत्र करने का काम खुले आम करते हैं और उस गंगा में स्वयं भी स्नान करते हैं। कोई ऐसा नहीं करता है तो उस का असहज/दांडिक स्थानान्तरण कर दिया जाता है जिसे वह कीमत अदा कर के निरस्त करवा लेता है।

भी एक खबर है कि एक भारतीय राजनयिक नीना मल्होत्रा और योगेश मल्होत्रा के विरुद्ध भारत से ले जाई गई उन की घरेलू नौकर शान्ति गुरुंग की शिकायत पर अमरीका की एक अदालत ने 1,458,335 डालर का हर्जाना अदा करने का आदेश दिया है। शान्ति गुरुंग का आरोप था कि उस से एक बंधुआ की तरह काम लिया गया और उसे यातनाएँ दी गईं। अमरीका की इस अदालत के निर्णय के पहले ही इस राजनयिक ने दिल्ली उच्च न्यायालय से यह तर्क प्रस्तुत करते हुए कि नीना मल्होत्रा भारत सरकार की सेवा में एक राजनयिक हैं और उन्हें प्रभुसत्तात्मक उन्मुक्ति प्राप्त है और उन के विरुद्ध अमरीकी न्यायालय कोई मुकदमा नहीं चला सकता स्थगन प्राप्त कर लिया। इस स्थगन के बावजूद अमरीकी न्यायालय ने अपना निर्णय दिया। अब यह दीगर बात है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के स्थगन का अमरीकी न्यायालय के निर्णय पर क्या असर होता है। पर यह तथ्य तो प्रकट ही है कि इस तरह के अपराध या दुष्कृत्य के लिए भारतीय विधि में कोई उपाय उपलब्ध नहीं है।

ब प्रश्न है कि भारतीय संसद और विधि आयोग कभी सोचेंगे कि भारत में भी इस तरह का कानून होना चाहिए या नहीं? या फिर जनतंत्र की चाशनी में लपेट कर सामंतवाद को अभयदान दिया जाता रहेगा?

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