जनता को न्याय प्रदान करने में किसी राजनैतिक दल की कोई रुचि नहीं
|भारत को आजादी मिले 63 वर्ष हो चुके हैं। लेकिन न्याय की स्थिति बेहतर से बदतर ही हुई है। लगता है सरकारों को न्याय व्यवस्था से कोई सरोकार नहीं है। स्वतंत्र न्याय पालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है और सरकार का यह दायित्व है कि उसे मजबूत और कारगर बनाए रखे। न्यायपालिका का कमजोर होने का अर्थ है संपूर्ण राज्य की नींव का कमजोर होना। इस के बावजूद सरकार का न्यायपालिका को सक्षम औऱ पर्याप्त बनाए रखने के प्रयत्न न के बराबर हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि किसी भी जनतंत्र में न्यायपालिका की अपनी भूमिका है और जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त न्यायालय होने चाहिए। अमरीका में दस लाख की आबादी पर अदालतों की संख्या 112 है और इंग्लेंड में 55 है। भारत सरकार खुद यह मानती है कि भारत में दस लाख की आबादी पर कम से कम 50 अदालतें होना आवश्यक है। लेकिन फिर भी इस अनुपात का आँकड़ा 15 से ऊपर नहीं जा सका है और जजों की संख्या को देखा जाए तो वे दस लाख पर 12-13 ही हैं। प्रत्येक 15 अदालतों में से दो से तीन अदालतें हमेशा बिना जज के मुकदमों में सिर्फ पेशियाँ बदलने का काम करती रहती हैं। जब न्यायपालिका की बात होती है तो जजों की अकर्मण्यता, अदालत के बाबुओँ-चपरासियों में फैले भ्रष्टाचार और कदाचित न्यायाधीश के स्तर के भ्रष्टाचार को उस के लिए जिम्मेदार मान लिया जाता है।
यह सब है, लेकिन इस बात की भी खोज होना आवश्यक है कि आखिर अदालत के बाबुओँ-चपरासियों में फैला भ्रष्टाचार और कदाचित न्यायाधीशों के स्तर पर होने वाला भ्रष्टाचार क्यों जगह पाता है? इस का मुख्य कारण भी अदालतों का कम होना है। हम जानते हैं कि रेल में रिजर्वेशन न मिलने पर स्टेशन पर कंडक्टर को पटा कर बर्थ प्राप्त कर के यात्रा करना लगभग हमेशा संभव हो जाता है। यदि पर्याप्त मात्रा में बर्थ हों और प्रत्येक व्यक्ति को बर्थ खिड़की से निर्धारित दामों पर मिलने लगे तो कोई कंडक्टर को पूछने वाला नहीं है। अदालतों की सब से बड़ी बीमारी मुकदमों का लंबा चलना है। सभी बुराइयों की जड़ अदालतों की संख्या बेहद कम होना है। एक बार आप पर्याप्त संख्या में अदालतों की स्थापना कर दें और त्वरित निर्णय होने लगें तो भ्रष्टाचार तथा निर्णयों को प्रभावित करने के अन्य तरीकों पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। लेकिन सरकार को जनता को न्याय दिलाने की न तो कोई इच्छा है और न ही उस की कोशिश कहीं नजर आती है।
सरकार अदालतों की स्थापना कर न्याय प्रदान करने के स्थान पर मुकदमों को कम करने के वैकल्पिक तरीके तलाशने का काम करने में अधिक रुचि दिखाती है। इन उपायों में एक उपाय यह है कि बहुत से विवादों को नियमित अदालतों के स्थान पर विशेष अधिकरणों के क्षेत्राधिकार में ले जाना। यह उपाय भी जनता को न्याय से महरूम करने का ही तरीका है। इन अधिकरणों पर पूर्ण नियंत्रण सरकार का होता है। उच्च न्यायालयों के पास इन का पर्यवेक्षीय काम अवश्य होता है लेकिन वे नियंत्रण में सरकार के होती हैं। फिर सरकार जिन अधिकरणों को चाहती है कार्यरत बना सकती है और जिन को चाहती उन्हें नाकारा कर देती है। मसलन औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत स्थापित औद्योगिक अधिकरणों और श्रम न्यायालयों को अधिकांश राज्यों ने बेकार की वस्तु समझ कर बेका
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2 Comments
आप के लेख से सहमत है जी, धन्यवाद
अब सरकार न्याय दिलाने की फ़ुरसत कहां से निकाले? अपनी जेब का न्याय करने तक ही दिलचस्पी रखती है सरकार क्योंकि ५ साल बीतते देर नही लगती.
रामराम