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जनसंख्या-न्यायाधीश अनुपात


कानून और न्याय मंत्री जनाब सलमान खुर्शीद साहब ने राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में फरमाया है कि विधि आयोग ने 31 जुलाई 1987 को दी गई अपनी 120वीं रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि दस लाख की आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या 10.5 से बढ़ा कर 50 की जानी चाहिए। उच्चन्यायालयों में जजों की संख्या के लिए प्रत्येक तीन वर्ष में पुनरावलोकन किया जाता है और मुकदमों के दर्ज होने और निपटारा किए जाने की संख्या के आधार पर समीक्षा की जाती है। खुर्शीद साहब ने यह भी फरमाया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने All India Judges’ Association & Ors Vs. Union of India & Ors ऑल इंडिया ‘न्यायाधीश एसोसिएशन व अन्य बनाम. भारत संघ व अन्य के प्रकरण में 21.03.2002 को पारित निर्णय में केन्द्र और राज्यों को निर्देश दिया था कि वे प्रति दस लाख आबादी पर न्यायाधीशों के 10.5 से 13 तक के तत्कालीन अनुपात को शीघ्रता से 50 तक बढ़ाएँ। इस के बाद केन्द्र ने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की कि इस निर्देश को कम से कम केंद्र सरकार की जिम्मेदारी को कार्यभार और मुकदमों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया जाए। सलमान खुर्शीद साहब ने राज्य सभा को यह सूचना नहीं दी कि केंद्र सरकार की प्रार्थना पर सर्वोच्च न्यायालय ने क्या आदेश दिया। उन्हों ने यह भी नहीं बताया कि केन्द्र और राज्यों ने विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट की सिफारिशों और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की पालना में क्या प्रगति की है।

न्यायपालिका राज्य का अनिवार्य अंग है। लेकिन राज्य की व्यवस्था सरकारें, संसद और विधानसभाएँ देखती हैं। वही निर्धारित करते हैं कि न्यायपालिका को कितना दाना-पानी दिया जाए। जब बजट आता है तो न्यायपालिका के लिए निर्धारित किए गए दाना-पानी की मात्रा की सूचना किसी कोने में छुपी रहती है। सब का ध्यान लगाए गए टैक्सों पर होता है। यहाँ तक कि मीडिया और समाचार पत्र में इस की चर्चा तक नहीं होती। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री इस विषय पर कभी नहीं बोलते। यह विषय हमेशा ही उपेक्षित रह जाता है। यही उपेक्षा कालान्तर में व्यवस्था को बहुत भारी पड़ती है। इस का एक उदाहरण हमने अभी हाल ही में देखा कि जब अन्ना का अनशन तिहाड़ से निकल कर रामलीला मैदान तक पहुँचा और जनता उस और दौड़ने लगी तो प्रधानमंत्री का सब से पहला बयान था कि केवल लोकपाल से कुछ नहीं होगा। हमें न्यायिक व्यवस्था में सुधार करने होंगे।

न का वह बयान बिलकुल सही था। लोकपाल आ गया, वह अन्वेषण कर के अभियोजन दाखिल करने लगा तो भी फैसले तो अदालतो ने ही करने हैं। जब तक अदालतें फैसला न कर देंगी तब तक कोई भ्रष्टाचारियों का क्या बिगाड़ लेगा? वे अदालतों के फैसलों की तारीख तक जेलों को थोड़े ही आबाद करेंगे। महिने दो महिनों में उन की जमानत लेनी ही पड़ेगी, आखिर सामान्य नियम जेल नहीं बेल (जमानत) है। वे बाहर आएंगे और अपने खिलाफ गवाहों के बयान बदलने की जुगाड़ में जुट जाएंगे। प्रधानमंत्री न्यायिक सुधार के बारे में फिर चुप हो गए। अन्ना के भय से शायद गलती से सच मुहँ से निकल गया था।

खिर कब….? आखिर कब तक विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट बस्ते में पड़ी धूल खाती रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश कब तक पालना की प्रतीक्षा करेगा? 1987 से 2011 तक 24 वर्ष गुजर

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